tag:blogger.com,1999:blog-51207960089524705702024-03-13T23:40:33.052-04:00अप्रवासी उवाच (Apravasi Uvach)Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.comBlogger40125tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-26155731479111433282019-09-04T13:00:00.000-04:002019-09-04T13:00:01.491-04:00पापा किसके साथ सोयेंगे ?<div align="justify">कभी कभी बच्चे अपने भोले<span class="">पन </span>और मासूमियत में कुछ ऐसी बात कर जाते हैं <span class="">कि </span>मन हँसे बिना नहीं रह पाता। अधिकांशतः अभिभावकों के समक्ष बड़े होते बच्चो को अकेले सुलाने की विकराल समस्या होती हैं। इस समस्या में जहाँ एक तरफ स्वयं का वात्सल्य आड़े आता हैं वहीं दूसरी और बच्चों के अंकुरित होते मानस पटल में उभरने वाले भय नए नए कारक भी होते हैं। और फ़िर हमारे ज़माने में तो सिर्फ़ झोली वाला बाबा ही होता था किंतु आज कल सूचना-युग में बच्चे भी नए -नए विकट कारको से भय ग्रस्त रहते हैं। इन सब बातों के बीच जिस बात को हम सभी विस्मृत कर देते हैं वो हैं कि इस समस्या से झूझते हुए हमारी भावी संतान अपने बड़ों के प्रति क्या सोचती हैं....</div><div align="justify"></div><div align="justify"></div><div align="justify"></div><div align="justify">अभी हाल में ही, इसी समस्या से ग्रस्त मेरे साथ कार्यरत सहयोगी अपने <span class="">चार </span>वर्षीया पुत्री के विषय में बता रही थी कि गत सप्ताह वे उसे अकेले सोने के लिए प्रेरित कर रही थीं। यह बच्ची चार वर्षों से उनके साथ ही सोती थी किंतु अब कुछ ही माह में उनका परिवार "हम दो हमारी <span class="">एक"</span>की परिपाटी छोड़कर "हम दो हमारे <span class="">दो" </span>पर श्रद्धा व्यक्त करने वाला है। अतः वे अपनी बेटी को अकेले सोने के लिए प्रेरित कर रहीं <span class="">थी। </span>उसको समझाते हुए उन्होंने कहा कि तुम तो अब बड़ी हो गई <span class="">हो, </span>तुम्हे तो डर भी नहीं लगता हैं । अब आपको अकेले सोना <span class="">चाहिए, </span>मम्मी के साथ <span class="">नहीं" </span>तो बच्ची ने बड़ी मासूमियत से माँ से पूछा कि "आप कहाँ सो रहे हो ?" तो उन्होंने उसे समझाया कि पापा के <span class="">साथ। </span>इस पर उसने तपाक कहा कि जब पापा इतने बड़े होकर भी डरकर आपके पास सोते हैं तो फ़िर मैं तो अभी छोटी हूँ।</div><div align="justify"><span class=""></span> </div><div align="justify"></div><div align="justify"></div><div align="justify">इसी तरह की एक ओर घटना हमारे साथ भी कल हो गई। हमारे एक अन्य मित्र महोदय सपरिवार हमारे घर आए हुए थे। उनका एक पांच वर्षीय बेटा भी साथ आया हुआ था। रात को घर के बाहर जाते समय जब हमारे मित्र और उनके सुपुत्र घर के बाहर निकल गए तब हमारे मित्र के पत्नी कुछ क्षणों के लिए अन्दर मेरी पत्नी के साथ रूक गई। (अवश्य ही किसी धरावाहिक की आने वाली कड़ियों के विषय में विमर्श हो रहा होगा....अच्छा है कि ऐसी चीज़ों पर सट्टा नहीं लगता !!)। बाल स्वभाव के अनुरूप हमारा मित्र-पुत्र अत्यन्त व्यग्र हो गया। अपनी माँ को न आने के कारण बैचैनी से इधर उधर तांक-झांक कर रहा था। मैंने कहा कि "क्या ढूंढ रहे हो ? मम्मी आज हमारे घर में ही रुक रहीं हैं..." हमारे इस कथन पर उसने ऐसा विस्मयकारी दृष्टि से मुझे देखा कि मैं मंगल ग्रह पर जीवन की घटना बता रहा हूँ। शायद उसे अपने पीछे खड़े पिता की आँखों में सिर्फ़ इस संभावना से उपजी खुशी की चमक का अंदेशा नहीं था पर उसने थोडी पहले अपने सारे तर्क-वितरकों का तौल मोल किया फ़िर कहा कि अगर मम्मी यहाँ रुक जाएँगी तो खाना कौन बनेगा... हमने भी साधा हुआ सा जबाब दिया कि "पापा बनायेंगे और कौन बनेगा...." इस पर वो थोडी देर तक सोचता रहा फिर अपने सारे चातुर्य को समेट कर बोला - "अंकल अगर मम्मी आज यहाँ रुक जाएँगी तो पापा किसके साथ सोयेंगे....."</div>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-37950947288803800692010-05-31T02:03:00.003-04:002010-05-31T08:48:14.030-04:00नई कारमुनरो - कार उत्पादन के ब्रह्माण्ड के केंद्र बिंदु डेटरोइट के दक्षिण में छोटा सा शहर....इस शहर की जिन्दगी स्थानीय फोर्ड प्लांट से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है...वर्षों से यह प्लांट पीढ़ियों को पालता आ रहा था. इस शहर में फोर्ड के प्रति लोगों की आस्था कुछ इस तरह रची बसी थी जैसेकि चकोर का चंदा प्रेम...जब कि विदेशी कारों का बाज़ार सारे अमेरिका में बढ़ रहा था तब भी इस शहर में फोर्ड के आलावा कुछ नहीं बिकता था. यहाँ तक की डेटरोइट शहर में ही बनाने वाली जी.यम. (जनरल मोटर्स) और क्राइस्लर की भी कोई पूछ नहीं थी.....<br />
<br />
मुनरो के इसी प्लांट में मेरा मित्र जॉन काम करता है. अभी हाल में ही जॉन की पत्नी "सिंथिया" भी इसी प्लांट में काम करती थी किन्तु लगातार हो रहे घाटे से उबरने के लिए जब फोर्ड ने इस प्लांट से दो शिफ्टों को बंद किया तो सिंथिया को घर बैठना पड़ा... सिंथिया के घर बैठने से अगर कोई खुश हुआ था - तो वो थी सिंथिया और जॉन की तीन वर्षीय पुत्री "हेलन". छोटी सी हेलन की आँखों की चमक ही माँ के साथ बिताये जाने वाले अधिक समय की खुशियाँ बता देती थी....<br />
<br />
हेलन को क्या पता था कि माँ के घर पर रहने से इस मजदूर परिवार की आय काम और खर्चे बढ़ने लगे थे...अभी तक जहाँ एक ही प्लांट पर जाने से एक कार से काम चल जाता था, वहीं अब नौकरी तलाशती सिंथिया के कारण दो कारों की ज़रुरत आ पड़ी है... उसे तो बस स्कूल के बाद माँ के साथ बिताने वाले समय की चाह रहती थी...उसका बस चलता तो माँ को एक भी नौकरी नहीं ढूढने देती....<br />
<br />
नई कार को लेकर जॉन और सिंथिया में कुछ तना-तनी भी चल रही थी. सिंथिया आपनी माँ के समझाने पर नई कार टयोटा खरीदना चाहती थी किन्तु जॉन को यह गवारा नहीं था. कई दिनों के शीत युद्ध के पश्चात पत्नीनिष्ठ पति की तरह जॉन ने भी टोयोटा के लिए हाँ कर दी. हेलन की तो ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था क्योंकि जॉन ने कहा की नई कार हेलेन की होगी. जब जॉन और सिंथिया नई कार खरीद रहे थे तो डीलर के वहाँ बिचारी हेलन ने सारा बोरियत भरा समय यह सोच कर ही बिताया की नई कार उसे मिलने वाली है....जॉन ने भी अपना वादा निभाते हुए नई नंबर-प्लेट हेलन के नाम की ही ली.<br />
<br />
नई कार खरीदने की बधाई देने के लिए जब मैंने जॉन को फ़ोन किया तो जॉन ने मुझे बता की कैसे नई कार में फोर्ड के मुकाबले कुछ भी नया नहीं है किन्तु विदेशी होने के नाते उसे कितना अधिक पैसा देना पड़ा. इस समय जब उसकी माली-हालात अच्छे नहीं हैं ऐसे में व्यर्थ का गैर-ज़रूरी लोन उसे कितना दुःख पहुंचा रहा है. साथ ही प्लांट में सभी उससे नाराज़ हैं.. उसके यूनियन के दोस्त सब उसके सामने और पीठ पीछे इस नई कार के कारण कैसे ताने दे रहे हैं..कुल मिलाकर उसे ऊँची दुकान और फीका पकवान वाला अनुभव रहा. उसकी राम-कहानी सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैंने उसका मूड सुधारने के लिए कहा कि घर आ जाओ इस वीक-एंड पर तुम्हे कुछ लज्जत भरे देसी पकवान खिलते हैं....जॉन और सिंथिया दोनों को कढ़ी, पकोड़े, समोसे और परांठा बहुत पसंद हैं..मुझे विश्वास था कि वो इस दावत को मना नहीं करेगा... (हाँ उन दोनों को ५ साल पहले यह जानकार बड़ा आश्चर्य हुआ था कि हम बिना किसी मांसाहार के भोजन कैसे खाते हैं...वो अलग बात हैं कि अब उन्हें हमारे खाने की लत हो गई है)<br />
<br />
आज दावत पर जब वो हमारे घर आये तो प्रारंभिक पकोड़ों के बाद अपनी अपनी वार्ता में लीन हो गए...मैं और जॉन जहाँ इकोनोमी से लेकर मौसमों के प्रभाव आदि की वार्ता में व्यस्त थे वहीं औरतों ने व्यंजन से लेकर शहर में आने वाली हर सेल का विवरण तैयार करना शुरू कर दिया. बाहर अच्छी धूप थी सो बच्चों ने घर के बाहर डेरा जमाया. बातों ही बातों में फिर नई कार की बात निकल पड़ी... जॉन ने बताया कि वो नई कार से ही आया हैं. अब हमारे दोस्त के दांपत्य जीवन को चुनौती देने वाली कार हमारे घर की दहलीज पर खडी हो और हम उसके दर्शन का सौभाग्य छोड़ दे ऐसा कैसे हो सकता था. हमने भी मानवीय उत्सुकता को औपचरिकता का आवरण ओढा कर जॉन से कार-दर्शन की इच्छा व्यक्त की.<br />
<br />
हम सभी लोग (जॉन और मैं दोनों ही सपत्नी) घर के बाहर आये. घर के बाहर जॉन की नई कार पर हमारी नज़र पढ़ते ही हम आवाक रह गए. हेलन हाथ में एक कंकड़ लेकर उसके नई कार पर कुछ घिस-घिस कर लिख रहीं थी. इंतनी महंगी कार, वो भी मुफलिसी के दौर में जिसे बेचारे जॉन ने सारे पास-पड़ोस के ताने झेलते हुए खरीदा था उसे की यह दशा - जॉन ने आव देखा न ताव बिचारी हेलन को दो तमाचे जड़ दिए. हमने तो यहाँ किसी को भी अपने बच्चों पर यूँ हाथ उठाते नहीं देखा था सो हम भी सन्न रह गए. पुलिस और डोमेस्टिक वोइलेंस के डर के चलते देसी बाप भी अपने बच्चों को छिपते छिपाते ही कभी कभार मारते होंगे और यहाँ हमारे दरवाजे पर यह क्रूरता...सिंथिया और सपना (हमारी पत्नी) ने हेलन को संभाला और हमने जॉन को...जॉन का गुस्सा अभी भी बरक़रार था. मैंने जॉन को समझाया कि क्या करते हो? बच्ची है हो जाता है... जॉन ने कार की तरफ इशारा करते हुए कहा देखो यह क्या किया हैं इस दुष्ट (रास्कल) ने... हम सभी ने नुक्सान का जायजा लेने को कार पर अपनी नज़र दौडाई...कार पर बड़े बड़े शब्दों में हेलन ने लिखा था "आई लव यू डैडी" (I Love you Daddy )....जॉन का गुस्सा आँखों से अश्रुधार बनकर फूट पड़ा और उसने हेलन की तरफ देखा और रोती सहमी सी हेलन ने बस इतना कहा "डैडी आपने कहा था यह कार मेरी हैं" (Daddy , you said that its my car) <br />
<br />
इस घटना के तुरंत बाद ही जॉन अपने घर निकल पड़ा और मैं व्याकुल ह्रदय लिए यहीं सोचता रहा कि गलती किसकी है....Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-14882227402154264202010-02-01T00:00:00.004-05:002010-02-01T10:28:07.958-05:00बोले तो...आज अपुन का डबल हैप्पी बर्डडे हैएक लम्बे अंतराल के बाद लिखने बैठा हूँ... आज एक वर्ष पूर्व १ फरवरी के ही दिन से अपनी व्यक्तिगत ३६वीं सूर्य परिक्रमा के प्रारंभ के साथ मैंने चिठ्ठाकारिता की शुरुआत की भी थी. आज जब चिठ्ठा-जगत में लिखते-पढ़ते (लिखते कम, पढ़ते ज्यादा) भूमिरथ पर बैठकर कर सूर्यदेव की यह परिक्रमा पूर्ण हो रही हैं...तो अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि यूनानी देव जानौस (JANUS) की तरह आगे और पीछे दोनों देखा जाये....कहते हैं न वही वर्तमान का बोध सार्थकता प्रदान करता हैं जो इतिहास से सीखे और भविष्य के लिए आशावान हो....<br />
<br />
वैसे भी हम भारतियों को इतिहास में जीने और भविष्य के सपने देखने ही अच्छे लगते है...यदि "रंग दे बसंती" के डीजे के शब्दों को उधार लूं तो "एक टांग इतिहास में और एक टांग भविष्य में है इसीलिए तो हम ...." खैर, जाने दीजिये हम ऐसे वैसे शब्दों का इस्तेमाल करके अपनी साहित्यकार वाली उम्मीद क्यों छोड़े, अब हर कोई तो "रियलिस्टिक लिटरेचर" से सफलता पूर्वक साहित्यकार तो नहीं बन सकता. वो अलग बात हैं कि कुछ नुक्कड़ नाटक पढ़कर/मंचन कर हमने भी कभी रियलिस्टिक साहित्यकार बनने की संभावना तलाशी थी. वैसे हमारे भी चिठ्ठाकारी के बचपने में (वैसे अभी भी कौन से प्रौढ़ हो गए) चिठ्ठाकारिता में साहित्य की गंभीरता और लेखन के लिए बहस चल निकाली थी. भारतीय संसद में महिला आरक्षण की तरह वह बहस अभी भी जारी है...हम तो मन की कहने निकले थे पर जब देखा कि "भईया इ साहित्यकारों वाली लाइन लग रही है तो हमहू लग गए...." आज नहीं तो कल जब कहीं चिठ्ठाकारों को साहित्यकारों का दर्जा मिला तो हम भी प्रथम श्रेणी के नहीं तो जनरल क्लास वाले साहित्यकार तो गिन ही लिए जायेंगे...जैसे कि प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक सभी मास्टर सा'ब शिक्षाविद हो जाते हैं...<br />
<br />
एक और बात तो हमे चिठ्ठाकारी करते करते पता चली वो थी - हमारे लोकतंत्र की तरह इस सार्वभौमिक मंच में भी बिना बहस कोई मुद्दा ही नहीं चल सकता...गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के समान यह सच तो पहले से विद्यमान है किन्तु अब हम लिख दिए हैं तो शायद न्यूटन की तरह हम भी महान हो जाए...बस यूरेका यूरेका कह कर दौड़ना बाकी है...हमारी संस्कृति में बहस का विशेष स्थान है...जन-मन में बहस यूँ हावी है कि नुक्कड़ के चाय के दुकान से लाकर काफी-हाउस तक की संस्कृति में ज्ञानवान सिद्ध होने के लिए बहस करनी पड़ती है. और तो और कई बार ट्रेन के डिब्बे से लाकर साँझ की चौपाल तक लोग ज्ञानी-श्रेष्ठ की उपाधि हेतु बहस कर जाते है...चाहे मुद्दों में उनकी आस्था हो न हो, हाँ विषय को अपने दर्पण से निहार कर अपनी परिभाषा के साथ लोग आंकड़ों के साथ यूँ बहस करते है कि लगता है ब्रिटैनिका के संपादक मंडल में स्थान पाने का साक्षात्कार दे रहे हों. (हमने तो कई ज्ञानियों को एक बहस से दूसरी बहस में अपनी ही बात का विरोध करते हुए पाया है..खैर यह हम अल्प-बुद्धि तो अधिकतर मौन ही रह जातें हैं....)कई बार तो चिठ्ठाकारिता के मंच पर नर-नारी, साहित्यासहित्य, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, आस्था और वैज्ञानिकता जैसे मुद्दों पर ऐसे बहस होती है कि लगता है अगले कल्प में देवासुर संग्राम से पहले हमारे चिठ्ठाजगत से कुछ कैंसलटेंट तो माँगा ही लिए जायेंगे. मुद्दों को बहस से सुलझाने की हमारी प्रक्रिया में आस्था (और स्वयं को ज्ञानत्व प्रदान करने की भी) इस बात से परिलक्षित होती हैं कि कई बार यह बहस होती हैं कि बहस किस बात पर होनी चाहिए....<br />
<br />
एक और बात जो बीते वर्ष सताती रही वो थी टिप्पणियों की बरसात की कामना...हम मन की कहने जग से निकले पर कब हाट पर नाचते बन्दर की तरह तालियों के मोहताज हो गए पता ही नहीं चला. हर लेख लिखकर हमे लगा कि बस टिप्पणियाँ चेरापूंजी की बरसात के तरह शायद रुकेंगी ही नहीं किन्तु हालात तो सहारा की मरुभूमि से भी बदतर हो गए. किसी मेलोड्रामा से भरी पिक्चर के चोट खाए हीरो की तरह कभी-कभी हमे भी और चिठ्ठों पर टिप्पणियों के महासागर देखकर मंदिरों में जाकर घंटे बजा कर "बहुत खुश होगे तुम..." वाले डायलाग बोलकर ईश्वर से गिला-शिकवा करने का मन हुआ पर फिर लगा कि भगवान् से पंगा क्यों लेना, किसी एकांत में गाना गाकर काम चला लेते हैं. फिर लगा कि चलो हम भी स्वान्तः सुखाय वाली श्रेणी में लिखने वाले बन जाते हैं.. (सच में कुछ दिनों तक डायरी में भी लिखना शुरू किया किन्तु मन न माना ) आखिर खट्टे अंगूरों के पकने और मीठा होने की उम्मीद तो हमेशा रहती हैं. बड़े बूढों ने कहा ही हैं कि उम्मीद पर दुनिया कायम है...<br />
<br />
खैर, इसी कशमकश में हम जिन ज्ञानी-जनों ने हमे टिप्पणियाँ दी उनको भी आभार व्यक्त करना भूल गए... इस क्रम में कई वरिष्ठ चिठ्ठाकारों और सहयोगियों से एकलव्य की भांति सीखने की भी कोशिश की..आज इस अवसर पर उन सभी को ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ...उन सभी वरिष्टों का जिन्होंने टिप्पणियों से, त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण से और आशीष देकर न केवल उत्साहवर्धन किया बल्कि मार्गदर्शन भी उन सभी को आज शत-शत नमन और उनसे इसी प्रकार मार्गदर्शन और स्नेहाकांक्षा की अपेक्षा है...यह आशा सिर्फ इसी चिठ्ठे के लिए नहीं वरन अन्य दोनों "<a href="http://jeevankepadchinha.blogspot.com/">जीवन के पदचिन्ह</a>" (काव्य संग्रह) और <a href="http://saryupareen.blogspot.com/">सरयूपारीण</a> (शोध ) के लिए भी है...और सभी प्रबुद्ध-जन जिन्होंने अपना आशीष बनाकर रखा है उनसे अनुरोध है कि आप मेरी त्रुटियों को क्षमा करते हुए उचित मार्गदर्शन प्रदान करेंगे. <br />
<br />
मुझे आजतक यह नहीं समझ में आया हम जन्मदिन क्यों उत्साहपूर्वक मानते हैं? इस विषम जगत में एक वर्ष सफलता पूर्वक जीने के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए एक वर्ष कम हो जाने के लिए...कौन जाने पर रुदन भरी इस दुनिया में रुदाली बनकर जिए तो क्या जिए - इसी फलसफे पर चलकर हम हर मौके पर ख़ुशी तलाश ही लेते...तो अपनी सालगिरह क्यों अपवाद हो.... और आने वाले समय को सिर्फ आशावादी दृष्टि से देखते हैं अतः आज केवल आने वाले समय के लिए जहाँ व्यक्तिगत रूप से आशावान हूँ [इस वर्ष भारत-यात्रा और जल्द ही हिंदी संस्था भाषिणी और एक व्यक्तिगत व्यवसाय प्रारंभ करने का स्वप्न है जिसके चलते पिछले कुछ महीने चिठ्ठों में विराम था] वहीं अपने तीनो चिठ्ठों को लेकर भी आशा है कि ऐसे मनभावन पोस्ट लिख सकूँगा जिन्हें पाठक गण टिप्पणियों से भर देंगे. हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है....Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-53613547187037891512009-10-09T18:00:00.011-04:002009-10-09T18:00:02.530-04:00करवा-चौथ: एक आपबीतीकुछ भारतीय चलचित्रों और कुछ उत्तर भारतीय परम्पराओं की धरोहर के नाते हमारी वर्तमान पीढी अपनी तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के परिवेश में भी अपनी जड़ों से जुड़े होने की चाह से मुक्त नहीं हो पाती. करवा-चौथ भी एक ऐसा ही दिन है जिस दिन कितने भी प्रगतिशील विचारों के लोग बड़े प्रेम से अपने जीवन साथी के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शन के लिए निर्जलीय उपवास रखते हैं....वर्ष का एकमात्र दिन जब हम जैसे बड़े से बड़े पत्नी-भीरु पति भी अपने भाग्य पर इठलाते हैं. हमारी पत्नी जी ने भी यह व्रत हमारे जन्म-जन्मान्तर के साथ हेतु वर्षों से सिद्ध किया है और यह वर्ष भी अपवाद नहीं था. <div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">हर श्रमशील श्रद्धावान पति की तरह हम भी चन्द्र देव की प्रतीक्षा में बार बार छत पर जाकर बादलों में सिमटा आकाश निहार रहे थे. पता नहीं क्यों अपना भारत हो या अमेरिका, हर चंद्राधारित पर्व पर चन्द्रदेव मानो ठिठुर कर बादलों की चादर ओढ़कर कर कहीं बैठ जाते हैं. जितनी बार हम अपने दांपत्य जीवन में करवा-चौथ के लिए छत पर चढ़े होंगे उतना तो हम अपने पहले प्रेम से मिलने के लिए छत पर न गए होंगे. उधर हमारी भूखी-प्यासी देवी जी चन्द्रदेव का गुस्सा हम पर निकाल रही थी...(अरे माना हमको अब इतने वर्षों में इसकी आदत पड़ गई हैं पर भइया यह तो सर्वविदित सत्य है कि भूखी-शेरनी घायल-शेरनी से भी अधिक घातक होती है..). अपने वर्षों से घिसे घिसाए किन्तु प्रभावी वाक्यों का भी प्रयोग किया जैसे "तुम्हे चाँद की क्या ज़रुरत, दर्पण निहार लो", या फिर "ठहरो अपने आमुक मित्र (जोकि बालों के मामले में हमारी अंग्रेजी की तरह स्ट्रोंग है) को बुला लेते हैं - तुमको चाँद दिख जायेगा". किन्तु "भूखे भजन न हो गोपाला" वाली तर्ज पर "भूखे क्रोध न मिटे गोपाला" वाले हालत हो रहे थे...<br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">तभी एक जोरदार वक्र-वाक्यास्त्र (सहज भाषा में प्यारा सा ताना) आया - "दिनभर कंप्यूटर पर टिप-टिपाते रहते हो ज़रा इन्टरनेट पर देखकर चंदोदय का समय नहीं पता कर सकते!! पत्नी का ख्याल हो तो न...तुम्हारे लिए सुबह से एक बूँद पानी भी न मिला..." . सुखी दांपत्य जीवन का एक सीधा-साधा सा सिद्धांत है - जिस तरह पत्नी के पूछने पर भी आप उसे मोटी नहीं कह सकते, उसकी खरीदारी पर सवाल नहीं कर सकते उसी प्रकार आप पति को भी उसके आलस्य और नौकरी के लिए ताना नहीं कस सकते, उसकी क्रिकेट (और हमारे केस में चिठ्ठेकारी और कुछ अभिनेत्रियां भी) के प्रेम और समर्पण पर प्रश्न नहीं कर सकते. अपने इस अधिकार क्षेत्र का हनन हमे सहन नहीं हुआ. इस ताने के आते ही हमारा भी आत्म-गौरव जाग उठा और तन-बदन में आग लग गई....बस फिर क्या था एक समर्पित पति की तरह हमने तुंरत ही इन्टरनेट से अपने शहर के लिए चंद्रोदय के समय को निकाल कर पत्नी को बताया. उस समय चंद्रोदय को बीते हुए २० मिनट से अधिक हो चुका था....<br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">हमने समझाया कि "चाँद निकल गया है, बादलों से दिख नहीं रहा हैं... तुम व्रत खोल लो" ...परन्तु स्वभाव अनुसार हमारी पत्नी जी बिना अपने कष्टों को चरम पर ले जाए किसी भी व्रत को कैसे खोल सकती थी - मानो अधिक देर प्यासा रहने से प्रभु इस जन्म-जन्मान्तर के आंकडों में एक-दो वर्ष और जोड़ देंगे - उन्होंने ठान ही लिया कि बिना चन्द्र-दर्शन के वे जल नहीं ग्रहण करेंगी और यदि न दिखा तो १२ बजे तक प्रतीक्षा करेंगी... अब बताइए कि घर में जब छप्पन भोग बने हो तो मन को १२ बजे तक धीर देना किनता कष्टकारी होगा. अतिश्योक्ति के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर विदेश में देसी पक्का खाना वो भी मटर और गोभी की कचौड़ियों के साथ छप्पन भोग ही लगता है.<br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">कचौड़ियों की लालसा के दमन या अपनी भूखी-प्यासी पत्नी के हालत (या हठ) की खीज से उत्पन्न अपनी हताशा को समेटे हम भी अपनी चिर-प्रेयसी टीवी देवी का दामन थामकर सोफे के आगोश में समां गए . टीवी पर भी करवाचौथ व्रत की ही खबरें आ रही थी..सुषमा स्वराज ने चुनाव प्रचार छोड़कर व्रत किया, आधुनिक जमात के पतियों ने (हम तो पुरातन ठहरे) पत्नियों के साथ निराजल व्रत रखा, और कहीं-कहीं प्रगतिशील प्रेमियों और मंगेतरों ने भी अपने संभावित जीवन-साथी की दीर्घायु के लिए निराजल उपवास किया. समाचारों के गिरते स्तर पर हमे पहले कभी इतना क्रोध न आया होगा जितना उस पल उन समाचारों को सुनकर आया. इतने भीषण समाचार कहीं हमारी भूखी शेरनी के कर्ण-स्पर्श कर जाते तो हम पता नहीं अपनी पूजा के दिन कितने प्रवचनों से दुलारे जाते कि प्रेम और झड़प से भरे गोपी-कृष्ण प्रकरण भी छोटे लगने लगते, वक्रोक्ति अलंकार की परिभाषा ही बदलनी पडती ...अपनी इसी बैचैनी में हम कब वैचारिक सागर में गोते लगाने लगे पता ही नहीं चला...<br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">मन ने हमेशा की तरह कुचाल भरनी शुरू की तो सारा ध्यान करवा-चौथ पर ही लग गया. करवा-चौथ यानि अपने इंडिया का वैलेंटाइन डे...भारत में अधिकतर (आज भी) प्रेम शादियों का अनुगामी होता है...(कई बार तो बच्चे प्रेम से पहले आ जाते हैं ). अतः हमारे इस वैलेंटाइन डे को लोगों ने वैवाहिक संस्कार ज्यादा मान लिया हैं...किन्तु हमारे रिवाजों में तो कुवारीं कन्याओं, प्रेमिकाओं और संभावित वधुओं को भी इस उत्सव को अपने भावी जीवन साथी के लिए मानाने की सुविधा है. अब आजकल तो प्रगतिशील और जीवन-साथी से हर पग पर कदम मिलाकर चलने वाले पुरुष भी अपने प्रेम और निष्ठा के लिए इस पर्व को निर्जलीय रूप में ही अपना रहें हैं...व्यक्तिगत रूप से मुझे कभी भी प्रेम प्रदर्शन के लिए इस पर्व का निर्जलीय उपवास का रूप समझ में नहीं आया. मैंने कई बार अपनी पत्नी को भी इसके लिए मना किया है...जब हमारे शास्त्र वैसे ही कम से कम सात जन्मो के साथ देकर पति-पत्नी को सह-अस्तित्व का प्रायोगिक-अवसर प्रदान करते है फिर उसे काहे जन्म-जन्मान्तर तक खीचना जबकि कपाल क्रिया की कृपा से पिछला जन्म का भी साथ याद नहीं रहता. साथ चाहिए ही तो सच्चे मन से हर दिन प्रभु से मांगो- उसका उपवास (या फिर निर्जलीय रूप) काहे यह सब टंटा करना...अच्छा पानी पीकर ही भगवान् की उपासना करके साथ मांग लो...पर श्रद्धा देवी के चरणों पर तर्क देवों शीश सदैव ही नतमस्तक रहते हैं...खैर, मूल विचार - भारतीय वैलेंटाइन डे -करवा चौथ की बात करते हैं...मेरे विचार से इसकी पूर्ण मार्केटिंग संभावना (पोटेंशियल) किसी ने तलाशा ही नहीं...वरना प्रेम-पिपासु इस जगत में इस पर्व का अन्तराष्ट्रीयकरण करके अपने-अपने जीवन साथी के प्रति निष्ठा प्रदर्शन की एक स्वस्थ परंपरा की नींव डाली जा सकती है (हाँ निर्जलीय उपवास जैसे मसलों पर थोडी छूट देनी पड़ेगी). ऐसा अन्तराष्ट्रीयकरण न जाने कितने अन्य पर्व जैसे रक्षा-बंधन के साथ भी ऐसे ही किया जा सकता है....<br />
</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">अभी अपने विचारों में हम भारतीय परचम को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फहरा ही रहा थे कि पत्नी की जोरदार आवाज़ ने हमारी विचार तंद्रा को खंडित किया...दूर छत से पत्नी की आवाज़ आ रही थी - "आज पूजा होनी हैं तो तुम भी भगवान् की तरह पत्थर हो गए हो...चाँद कितना ऊपर चढ़ आया है...तुम तो कह रहे थे कि निकला ही नहीं है. ठीक से देखा ही नहीं था या फिर....".बड़े अनमने मन से हम उठकर छत की तरफ कैमरा सम्हालते हुए लपके...मन दुविधाग्रस्त था कि चाँद की इस धोखाधडी पर कुपित हों या फिर उसके आगमन पर छप्पन-भोग मिलने की ख़ुशी जताएं.....<br />
</div>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-45041662326335783852009-10-04T10:00:00.000-04:002009-10-04T10:00:01.736-04:00क्या हमने गाँधीवादी तरीकों का दुरूपयोग किया हैं?<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस माह के प्रारंभ के साथ ही सारा राष्ट्र गाँधीमय हो जाता है...अब तो बापू के जन्मतिथि को वैश्विक स्तर पर "अहिंसा दिवस" घोषित करके संयुक्त राष्ट्र ने भी गाँधी-सिद्धांतों का अनुमोदन कर दिया है. और रही सही कसर इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ओबामा जी ने अमेरिकी सामाजिक परिवर्तन की सोच की जंडे गाँधी के विचारों से बताकर अपनी सच्ची स्वीकारोक्ति से इस अनुमोदन को बढावा ही दिया. इसमें कोई शक नहीं हैं कि गाँधी जी ने अपने साधारण तरीकों और असाधारण इच्छाशक्ति से इस देश और विश्व की विचारधारा को बदल दिया है...यह वैचारिक परिवर्तन इस देश को किस दिशा में ले गया इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु इन परिवर्तनों ने इस राष्ट्र की आत्मा तक को प्रभावित किया इसमें कोई शक नहीं है. यदि अहिंसा के प्रवर्तक रहे हमारे आदि ऋषियों से लेकर, बुद्ध और महावीर के ज्ञान को वैश्विक स्तर पर किसी ने प्रचारित किया हैं - ऐसे लोगों की सूची में गाँधी जी सर्वोपरि होंगे इसमें कोई संदेह नहीं है. गाँधी जी ने अहिंसा को एक वैचरिक सिद्धांत से अस्त्र के रूप में परिवर्तित करा था. और साथ ही सत्याग्रह, अनशन, असहयोग और हड़ताल जैसे यंत्रों को जन्म दिया था.<br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हमारे देश में जहाँ विचारधारा के ऊपर व्यक्तिगत छवि सदैव अधिक हावी रहती है. (चाहे स्वतंत्रता पूर्व की कांग्रेस हो या वर्तमान के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल इस सत्य को हर कहीं देखा जा सकता है.) गाँधी वादी विचारधरा के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ....सिद्धांतो के ऊपर गाँधी जी हावी हो गए....पैसे से लेकर नेतागिरी की पोशाकों तक, पार्कों से लेकर राज्यमार्गों तक, संसद की दीवारों से लेकर जन रैलियों के भाषण तक सब कुछ गांधीमय हो गया . नेताओं ने गाँधी के समान खादी धारण कर के ग्राम-स्वराज्य को भूला दिया, गाँधी के चेहरों वाले मुद्रा (नोटों ) के भाव बढ़ाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वागत कर ग्रामीण उत्थान को अनदेखा कर दिया...गाँधी के सत्यवादी रूप की ठेकेदारी लेने वालों की चुनावी योग्यता उनके अपराधिक मामले तय करने लगे...जन-लोकतंत्र की भाषणों में दुहाई देने वालों को उनकी बाहुबली और मत लूटने या क्रय शक्ति के आधार पर ढूँढा जाने लगा, सर्व-कल्याण और हरिजन उत्थान के विषय में सोचने के लिए नेता उनकी जातीय गणित के आधार पर तय होने लगे...हमारे देश में गाँधी तो रहे पर एक मुखौटे की तरह. उनकी आत्मा और उनके सिद्धांत तो, गोडसे की गोली से पहले, भारतीय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा की बलि चढ़ गए.....<br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अपने व्यतिगत क्षोभ को मैं और भी अधिक बढा हुआ पता हूँ जब मैं गाँधीवादी हथियारों जैसे हड़ताल, अनशन, असहयोग का सार्वजानिक दुरूपयोग देखता हूँ...किसी भी सरकारी महकमों में यूनियन (चाहे मजदूर यूनियन हो या अधिकारीयों की संस्था) अपनी बातें जबरन मनवाने के लिए इनका गलत इस्तेमाल करते हुए मिल जायेंगे...अभी हाल में पायलट ने सामूहिक छुट्टी लेकर अपने असहयोग अभियान से एक विमान कंपनी को पंगु बना दिया था... कभी-कभी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल/अनशन , नर्सों की हड़ताल, वार्ड-बोयस की अप्रत्याशित हड़ताल पूरे के पूरे शहर को पंगु कर देती है...लोग अब बदली हुई परिस्थिति को समझना ही नहीं चाहते...गाँधी जी ने जब इन हथियारों का प्रयोग किया था तब भी जन कल्याण के भाव को कभी नाकारा नहीं था...(वो तो चौरी-चौरा कांड में भी शत्रु के अहित से भी दुखी हुए थे). उस समय देश में के शत्रु सरकार थी तो यह हथियार उस व्यवस्था को पंगु बनाने के लिए प्रयुक्त हुए थे किन्तु वर्तमान में जन-कल्याण को नज़र-अंदाज़ करके अपनी ही सरकार को पंगु बनाना कहाँ तक उचित हैं यह प्रश्न सभी को हड़ताल से पूर्व स्वयं से करना चाहिए . इस विषय में इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में ही एक विश्वविद्यालय की छात्रा को <a href="http://news.outlookindia.com/item.aspx?660488">फटकार लगाई थी</a> कि तुम गाँधी नहीं हो और गाँधीवादी तरीकों का प्रयोग विद्यालय और शिक्षा व्यवस्था को पंगु बनाने के लिए नहीं कर सकते. सोचने की बात है कि हमारे राष्ट्र की सर्वोच्च न्यायिक संस्था को ऐसा क्यों कहना पड़ा? मेरी समझ में तो दो ही विकल्प आते हैं-<br />
</div><ol><li><br />
<div style="text-align: justify;"> वर्तमान में गाँधीवादी तरीकों ने अपनी प्रासंगिता खो दी है. <br />
</div><br />
</li>
<li><br />
<div style="text-align: justify;">हमने गाँधीवादी तरीकों का इतना दुरूपयोग कर लिया हैं कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था भी कहती हैं - "बस बहुत हुआ"<br />
</div><br />
</li>
</ol><div style="text-align: justify;">गाँधीवादी सिद्धांत तो गाँधी से जन्मे नहीं हैं...वो तो युगों से हमारी परंपरा में विद्यमान हैं...अहिंसा महावीर और बुद्ध के मनन और वाल्मीकि की करुणा में बहती एक अविरल धारा के रूप में हमारी संस्कृति का अविभाज्य अंग रही हैं. गाँधी तो चन्द्र के समान उस ज्ञान की रोशनी में बस चमक गए (सारे चकोर चन्द्र पर मोहित हैं...सूर्य को कोई पूछता भी नहीं :) ) . अतः अहिंसा एक शाश्वत सत्य की तरह अपनी प्रासंगिता नहीं खो सकती है (हाँ! स्थान और काल के आधार पर उसकी उचित व्याख्या करनी होगी). मुझे तो केवल दूसरा कारण ही नज़र आता हैं और उसका मूल हमारी व्यतिगत छवि को सिद्धांतों से ऊपर रखने की आदत हैं....क्योंकि हम गाँधी के विचारों और सिद्धांतों को नहीं गाँधी को जीवित रखने के प्रयासों में जुटे हैं इसीलिए हम गाँधीवादी तरीकों के दुरूपयोग को बढ़ावा दिए जा रहे हैं....<br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">और हम भूलते हैं कि गाँधी को जिन्दा रखने के इस जूनून में हम हर पल, हर क्षण उन्हें मारते जा रहे हैं....<br />
</div>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-33698088504860416952009-09-27T00:00:00.003-04:002009-09-27T08:03:27.587-04:00क्या आपके साथ भी ऐसा होता है...<div style="text-align: justify;">कई दिनों से लिखने का प्रयास कर रहा हूँ परन्तु पता नहीं क्यों कोई भी लेख पूरा नहीं कर पा रहा हूँ... ऐसा भी नहीं कि विषय नहीं मिल रहा. विषयों की विवधता भी कम नहीं हैं, किन्तु जब भी कुछ शुरू करता हूँ अधलिखा लेख छोड़ कर उठ जाता हूँ, विचार पूर्णता और संतुष्टि के मापदंडों पर खरे उतरने के पहले ही दम-तोड़ते नज़र आते हैं.... किनते ही विषय पर पोस्ट आधी-अधूरी पड़ी हैं. कितनी ही कहानियों के पात्र अपने चरित्र का विस्तार पाने के लिए मेरी राह देख रहे हैं, कितने ही संस्मरण स्मृति-पटल और चिठ्ठे के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते हुए मुक्ति की आकांक्षा पाले हैं...<br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">शुरू-शुरू में तो आलस्य वश, फिर बच्चों की छुट्टियों के समाप्त होने के नाम पर, कई आत्म-निर्मित बहानों की ओट में लिखना टालता रहा. हाँ, इस काल में ले देकर कुछ कविताओं का सृजन हुआ पर सार्थक एवं गंभीर विषयों से दूरी बनी रही...कभी कभी मन को बहुत समझा कर लिखा भी तो लेख प्लूटो के समान ही विषय रुपी सूर्य से कई कोसों दूर की परिक्रमा करता लगा....कुछ समझ न आने के कारण कुछ दिन शहर के बाहर भी घूमकर आया किन्तु कार्य, परिवार और सामाजिक निर्वहन के बीच 'स्वान्तः सुखाय' वाला लेखन कहीं भटक गया है....स्वयं को आल्हादित करने वाली बात नहीं बन पा रही <br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">आजकल तो हालत ऐसे चल रहे हैं कि कभी-कभी तो अध्धयन करने से कतरा जाता हूँ... अपनी बारहवीं कक्षा के दिन याद आ जातें हैं जब मेरी निद्रा और पिताजी के पद-चापों में एक दूसरे को परास्त करने की प्रतिस्पर्धा सदैव बनी रहती. अभी हाल में कई रात उस काल के समान किताबों की चिलमन ओढ़कर निद्रा-सुख भी लिया. हाँ! पिताजी कुपित होने को आसपास नहीं थे (वो तो अपनी लखनऊ की प्रारंभिक ठण्ड का आनंद ले रहे होंगे) , तो भी पत्नी ने उनकी कमी कदापि भी खलने नहीं दी. किताबें छानने के भागीरथी प्रयासों से बचने के लिए ऑडियो पुस्तकों की शरण भी की किन्तु कई बार कानो और मस्तिष्क की दूरी मानो नक्षत्रों सी हो गई. ऐसा लगा कि कुछ प्रकाश वर्षों के बाद ही मष्तिष्क को पता चलेगा कि क्या सुना...वैसे तो इस प्रकार की दूरी भार्या-संवाद और भारतीय चलचित्रों के दौरान बनाना तो एक कला हैं किन्तु उस कला की पुनरावृति ऑडियो पुस्तकों के श्रवण के दौरान होना आश्चर्यजनक ही था....<br />
<br />
बड़ा जतन करके जो कुछ कविताएँ और ग़ज़लों को लिखा तो उन्हें भी दोहराने का प्रयास नहीं किया . सभी वर्तनियों की त्रुटियों से यूँ भरी थी कि मानो किसी माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेर की पहली रिलीज़ हो...माना कि एक पाठ दुहराने की हमारी आदत पुरानी हैं किन्तु आजकल न जाने कहाँ नदारद हो गई हैं. . इश्क के मामले में तो कई सौ बार दिल लगाया तब जाकर दिल-लगाना सीखा...मधुबाला से लेकर रेखा, डिम्पल और सोनम कपूर तक का सफ़र न जाने किनती मोहल्ले, कॉलोनियों, स्कूल कालेजों से होता हुआ हमारी पत्नी पर आकर रुका, पता नहीं... वो बात अलग है कि अब भी पत्नी को विश्वास दिलाना कठिन हो जाता हैं. "आई लव यू" जैसे सार्वभौमिक शब्दों की पुनरावृति , लगभग दस वर्षों की तपस्या और दो बच्चों की गवाही भी इस मामले में प्रभावहीन हो जाती है. किन्तु इससे आप यह अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि हर बात दुहरा कर पक्का कर लेना मेरी (प्राचीन?) स्वभावगत विशेषताओं में शुमार था. पर वर्तमान में वो तो नेताओं पर हमारे विश्वास की तरह लोप ही हो गई हैं. ऐसा मैं यूँ ही नहीं कह रहा हूँ आप साक्ष्य के तौर आप मेरे "<a href="http://jeevankepadchinha.blogspot.com/2009/09/blog-post_22.html">जीवन के पदचिन्ह</a>" चिठ्ठे की नवीन रचना देख सकते हैं, जो इसी विषय-वस्तु पर हैं और त्रुटियों से भरी थी. (भला हो आदरणीय <a href="http://www.blogger.com/profile/02231261732951391013">अरविन्द मिश्रा</a> जी का जो उन्होंने मेरा ध्यानाकर्षण इस ओर करके मुझे अपनी त्रुटियों को सुधारने का अवसर प्रदान किया )<br />
<br />
ऐसा ही हाल <a href="http://saryupareen.blogspot.com/">सरयूपारीण</a> वाले चिठ्ठे का हैं...कई निबंध भारतीय रक्षा बेडों में पड़े मिग विमानों की तरह चंद उद्धरण रुपी कलपुर्जों के अभाव में जंग खा रहे हैं...वहां तो निबंध पूरा किये हुए इंतना समय हो गया है कि कभी-कभी भय लगता है कि मेरे आदरणीय पाठक और मार्गदर्शक यह न समझ ले कि अपने चंद्रयान की तरह लम्बा-चौड़ा अभियान काट-छाँट कर अपने उद्देश्य पूर्ति से पूर्व ही समाप्त हो गया . अभी तो वहाँ विषय के धरातल की सतह को परखा ही था -ख़ुशी ख़ुशी जल ढूँढने की घोषणा के पहले ही लेखन का खरमास आ गया. मैं अपने सभी साथियों को यह आश्वस्त करूंगा कि शीघ्र ही वहाँ मैं इस लेखन का ग्रहण समाप्त करूंगा. ईश्वर बस इतना समरथ प्रदान करें कि यह आश्वासन भारत के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की तरह बनकर न रह जाए. वैसे तो सरकार की भांति हम पंचवर्षीय योजना बनाकर हर बार एक ही प्रयोजन तो (बार-बार) प्रयोग नहीं कर सकते. अतः अब सार्वजानिक रूप से कहने के बाद तो संभवतः अपना वादा निभाने की कोशिश करनी ही पड़ेगी वरना आज से दस-ग्यारह वर्ष बाद कोई सुश्री पाठकों में से कोई भी डॉ. संथानम की तरह आकर कहेगा कि मेरे वादे भी पोखरण-२ की तरह फुस्सी निकल गए....<br />
<br />
जैसे हमारे गाँव देहात में कभी-कभी बुरे ग्रहों के दुष्चक्र से निकालने के लिए वृक्ष, गोरु, स्वान किसी से भी बालक या बालिका का विवाह संपन्न करा दिया जाता हैं...वैसे ही सोचता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने भी आलस्य रुपी दुष्चक्र को तोड़कर बाहर निकलूँ. अपने विचार रखकर अब भयभीत भी हूँ कि अपने आलस्य को ग्रहों के कारण बताने से चिठ्ठाजगत में चल रहे जोरदार बवंडर में न आ जाऊं. कृपया मेरे डिस्क्लेमर को यूँ समझा जाए कि मेरी ग्रहों में सिर्फ इतनी ही आस्था हैं कि मैं अपनी विज्ञान वेधशाला का निर्माण अपने पंडित की सलाह के बिना नहीं करा सकता...अंत में इस विश्वास के साथ कि जिस प्रकार कांग्रेस के युवा नेतृत्व ने पिछले चुनावी समर में नैया पार लगाई थी उसी प्रकार मेरी यह पोस्ट भी इस महा-आलस्य के भंवर से नेरी नैया पार लगायेगी. और साथ ही मेरी भविष्य में आने वाली पोस्टों को आप लोग चाँद-फिजा के फ़साने की तरह अल्पावधि में न भुलाकर लैला-मजनूँ के प्रेम कहानी की तरह याद रखेंगे...<br />
<br />
आलस्य-आच्छादित <br />
अप्रवासी <br />
<br />
<br />
</div>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-72321673999657942212009-09-02T13:00:00.001-04:002009-09-02T22:11:35.276-04:00क्या दुनिया हिंदू हुई जाती हैं?इस बार के "न्यूज़ वीक" के संस्करण में लिसा मिलर का एक लेख "<a href="http://www.newsweek.com/id/212155">वी आर आल हिंदू नॉव ("We Are All Hindus Now </a>") प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अमेरिका में बढती सामाजिक विवधता के कारण आने वाली सामाजिक सोच और बहु-पंथ स्वीकारता के विषय में चर्चा हैं...और साथ ही इस स्वीकारता को ही हिंदुत्व की भावना माना है ।<br /><br />अमेरिका, जो मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता का समर्थक संविधान रखता हैं, में ईसाई बहुसंख्यक हैं। यह राष्ट्र की नीतियों से लेकर कानून पर भी अपेक्षित प्रभाव रखते हैं जिसके उदाहरण विवाह से लेकर गर्भपात सम्बन्धी कानूनों में स्पष्ट दिखते हैं। किंतु कई सम्प्रदायों से मिलन से वैचारिक सहिष्णुता का नया अध्याय लिखा जा रहा है। ऋग्वेद के "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" सिद्धांत के अनुरूप अब अधिकांशतः अमेरिका ईश्वर प्राप्ति के कई मार्गों में विश्वास करने लगे हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर कई पश्चिमी और पूरबी विचारधाराओं के मिलन से जीवन चक्र और कर्मों की गति, पुनर्जन्म में भी विश्वास बढ़ा है। इन भारतीय विचारों के सभी धर्म के अमेरिकी नागरिकों में बढती <span class="">स्वीकारिता </span>को लिखिका ने हिंदू विचारों का अनुमोदन माना हैं।<br /><br />हिंदू धर्म को सदैव कट्टर और आदिम दृष्टि से देखने वालों के लिए यह एक अच्छा सबक हैं । <strong>"वसुधैव कुटुम्बकं" के उपासक धर्म के सहिष्णुता के मंत्र से अब विश्व सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ रहा हैं।</strong> हर नवीन ज्ञान के लिए पश्चिम के अनुमोदन का मुख देखने वाले जन भी अब हिंदुत्व को इसी प्रकाश में देखकर कुछ सीखेंगे इसी उम्मीद के साथ ....<br />सगर्व ,<br />अप्रवासीSudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-50507845995611407982009-08-30T10:00:00.000-04:002009-08-30T10:00:02.357-04:00नस्लभेदी माइक्रोसॉफ्ट ?भारत में जातिप्रथा उन्मूलन को लेकर हमेशा ही विवाद बने रहते हैं। और इसमे कोई अतिशयोक्ति भी नहीं हैं <span class="">कि </span>कागजी उन्मूलन के बावजूद चुनावी <span class="">गणित </span>से लेकर सहज ग्रामीण जीवन में इसके लक्षण दिख ही जाते हैं। किंतु अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मूल रूप से नस्ल भेदी आचरण कम ही <span class="">दिखता </span>हैं....और कम से कम बहुराष्ट्रीय कंपनियों से तो ऐसी आशा कम ही की जाती हैं (<span class="">हाँ- </span><a href="http://apravasiuvach.blogspot.com/2009/07/blog-post_10.html">हिंदू-भावनाओं की बात अलग हैं</a> ) किंतु कभी-कभी जाने -अनजाने कुछ ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं (जो कि इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों की त्रुटिवश भी हो सकता हैं) जो इनकी छवि को धूमिल करने के लिए काफी होती हैं।<br /><br /><br /><br />अभी हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट ने अपनी पोलिश वेबसाइट पर एक श्याम <span class="">वर्णी </span>व्यक्ति की तस्वीर को पोलैंड के लिए एक गोरे व्यक्ति की तस्वीर से बदल दिया था (<span class=""><a href="http://www.cnn.com/2009/TECH/08/26/microsoft.ad.gaffe/index.html">देखें</a>) । </span>संभवतः यह पौलैंड के लोगों की मान्यताओं के अनुसार ही किया गया होगा। इसे टारगेट मार्केटिंग और मार्केट सेगमेंटेशन के दृष्टि से उचित मान कर शायद अंजाम दिया गया होगा। इसके फलस्वरूप हर जगह माइक्रोसॉफ्ट की जबरजस्त भर्त्सना <span class="">हुई। </span>इसके रहस्योद्घाटन के बाद आनन -फानन इसका सुधार भी हो <span class="">गया। </span>माइक्रोसॉफ्ट ने ट्विट्टर पर अपनी गलती स्वीकार करते हुए माफ़ी भी मांग ली। किंतु इस घटना से जो नुक्सान होना था वो तो हो ही गया।<br /><br /><br /><br />इस घटना से दो बातें उभरकर आती हैं -<br />१) इस प्रकार से नैतिक मूल्यों और मापदंडों को ताक पर रखकर मार्केट सेगमेंटेशन और टारगेट मार्केटिंग कितनी उचित हैं<br />२) क्या युरोपिय राष्ट्रों में अभी भी श्याम-वर्णीय लोग प्रचार साधनों में भी स्वीकार नहीं हैं ?<br />यह दोनों ही बातें मानवीय और नैतिक दोनों ही आधारों पर क्षोभ का विषय हैं । इनकी जितनी भी निंदा /भर्त्सना की जाए कम हैं । हमारे भारतीय <span class="">समाज </span>पर ऊँगली उठाने से पहले <span class="">पश्चिमी </span>जगत को अपने अन्दर व्याप्त इस तरह के रंग-भेद से ख़ुद भी छुटकारा पाना <span class="">होगा। (</span>पर यह घटना हमारी जातिभेद की के प्रति जिम्मेदारियों को समाप्त नहीं करती और हमे जातिगत भेदभावों के उन्मूलन के लिए कार्यरत रहना ही होगा )Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-89980741228941715162009-08-29T00:00:00.000-04:002009-08-29T00:00:00.484-04:00महापुरुषों की आलोचना और हम<p>आज सायंकाल मैं राजशेखर व्यास लिखित पुस्तक "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!"पढ़ रहा था। इस पुस्तक में भी नेताजी सुभाष चाँद बोस और पंडित नेहरू के रिश्तों पर चर्चा के दौरान कुछ पंक्तिया ऐसी मिली जिसमे महापुरुषों के सम्बन्ध में हमारी भारतीय मानसिकता का विश्लेषण किया गया। यह पंक्तिया वर्तमान सन्दर्भ में जिन्ना, पंडित नेहरू और सरदार पटेल के विभाजन सम्बन्धी विवाद में भी सटीक बैठती हैं। मैं समझता हूँ कि हम सभी को स्थापित मापदंडों से निकलकर राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर विभाजन का विश्लेषण करना होगा। विभाजन एक सच्चाई हैं जिससे नकारा नहीं जा सकता किंतु उसके कारकों के अध्धयन से राष्ट्र को भविष्य के लिए यथोचित सीख मिलेगी। वर्तमान सन्दर्भ में "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!" से राजशेखर व्यास के निम्न विचार पढिये और बतायें कि क्या आप इसे सहमत हैं या नहीं...</p><p><em>"...प्रायः हम अपने महापुरुषों की पुण्य-तिथियों और जन्म-दिवसों पर उनकी गुण-गाथा और यश-गान ही गाया करतें हैं, उनकी आलोचना या कमजोरी को सच्चाई और ईमानदारी से कहने और सहने का नैतिक साहस भी हम में नहीं हैं । क्या हम यह समझते हैं की हमारे महापुरूष इतने कच्चे हैं कि वे आलोचनाओं से ढह जाएँगें? दुसरे उनकी आलोचनाओं को उनके प्रशंसक, अनुयायी अपनी व्यक्तिगत आलोचना मान लेते हैं तथा उसे अपने अहम् और सम्मान का प्रश्न बना लेते हैं। एक प्रवृति और दखी गई है, जब भी कोई आलोचक, विद्रोही, प्रचलित परम्परा, मान्यता, विश्वास और सिद्धांतों को तोड़ने का साहस या प्रयत्न करता है तो उसे भी घमंडी या अहंकारी समझा जाता है। प्रायः यह भी देखा गया है कि महापुरुषों के समर्थक इतने अंध श्रद्धावान या कट्टर होते हैं कि उनके खिलाफ सच्चाई का एक शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करते। संभवतः वे यह समझते हैं कि अगर उनके प्रेरक का ही व्यक्तित्व ढह गया या स्वयं ही कमजोर, अक्षम या ग़लत साबित हो गया तो उनका स्वयं का अस्तित्व भी तब कहाँ जाएगा , और अपने अस्तित्व ढहने जी कल्पना मात्र से ही हम लोग इतने आतंकित रहते हैं कि सच्चाई कहने -सुनने का साहस भी खो बैठते हैं। "</em></p>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-18392939127180040862009-08-23T18:00:00.003-04:002009-08-23T21:57:18.402-04:00भाजपा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता<div align="justify"><span class=""></span>विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडम्बना ही हैं <span class="">कि </span>सारे के सारे <span class="">मुख्या-</span>धारा के राट्रीय राजनैतिक दल लोकतान्त्रिक दलगत ढांचे में विश्वास नहीं करते हैं। हमारी कांग्रेस जहाँ राजवंश <span class="">मोह </span>से च्युत नहीं हो <span class="">पाती, </span>वहीं <span class="">बासपा </span>बहन जी से <span class="">बाहर </span>नहीं सोच सकती हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में भी गिने चुने चेहरे ही हैं। भाजपा - "अ पार्टी विद डिफरेंस" से कम से कम ऐसी अपेक्षा थी कि वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी अभिव्यक्ति को दलगत <span class="">राजनीति </span>की परिधियों से बाहर रखेगी । किंतु पिछले कुछ वषों में पार्टी सोच की एक पूर्व-निर्धारित लीक से हटकर नहीं सोच पा रही हैं। हिंदुत्व और राष्ट्रीयता के मुद्दों में अपनी स्थिति भी स्पष्ट रूप से नहीं रख पा रही हैं। जहाँ संघ से अपेक्षित रूप से <span class="">जुडा </span>रहकर कर अतिवादी हिन्दू विचारधारा का समर्थन भी करना चाहती हैं वहीं दूसरी <span class="">ओर </span>सर्व-लुभावन पार्टी भी दिखना चाहती हैं। इस प्रकार विचारधारा के दो छोरों के बीच दल <span class="">की </span><span class="">डावाडोल स्थिति ने दल के नेतृत्व से जुड़े लोगों के लिए भी <span class="">असमंजस </span>और दिशाहीनता ही प्रदान की है। एक लंबे अरसे से दल के ध्वजारोही रहे कल्याण,उमा <span class="">भारती </span>आदि इसी वैचरिक द्वंद के चलते पार्टी से बाहर निकाल दिए गए । ऐसा प्रतीत होता <span class="">हैं </span>कि दल की सोच के स्थापित मापदंडों से बाहर सोचना संघ और भाजपा <span class="">के </span>वर्तमान नेतृत्व के <span class="">साह्य </span>नहीं हैं। </span></div><p align="justify"><br /></p><div align="justify"><span class=""></span></div><div align="justify"><span class="">इसी क्रम में नवीनतम कड़ी हैं जसवंत <span class="">सिंह। </span>उन्हें जिन्ना पर अपने विचारों को प्रकट किया <span class="">नहीं </span>कि जिस दल के वे संस्थापक सदस्यों में से थे उसी ने उनको बाहर का रास्ता दिखा <span class="">दिया। </span>दल ने पहले ही स्वयं <span class="">को,</span> उनके <span class="">जिन्ना </span>सम्बन्धी <span class="">विचारों </span>को उनके व्यतिगत विचार बता कर , उनके कथन से दूर कर लिए था। फ़िर दल के चिंतन बैठक के पूर्व बिना किसी चेतावनी के, बिना उनका पक्ष सुने निष्काषित करना मात्र तानाशाही का प्रतीक हैं। दलगत लोकतंत्र के मूक एवं निर्मम वध हैं। </span><span class="">हाल में ही हुई चुनावों में दल की पराजय के वास्तविक कारकों के निर्धारण और विश्लेषण के स्थान पर ऐसा अनुचित कदम नहीं उठाते। जसवंत सिंह ने कई बार दल के लिए विषम स्थितियां खड़ी की हैं और संभवतः दल उनसे इसी कारण निजात पाना चाहता हो । उनके ऊपर <span class="">भ्रष्टाचार, </span><span class="">अफीम, </span>चुनावी <span class="">नोट-</span>वोट <span class="">कांड, </span>पुत्र <span class="">मोह </span>और कंधार जैसे कई विवादस्पद आरोप रहे हैं। किंतु उसके बावजूद उनका इस प्रकार से दल-निष्कासन किसी भी प्रकार उचित नहीं हैं। </span></div><div align="justify"></div><p align="justify">अडवाणी जी ने भी जिन्ना की मजार पर जाकर मत्था टेका ही था। संघ ने नाराजगी तो दिखाई थी पर आसानी से इस आधार पर क्षमादान भी दे दिया था कि वो अडवाणी जी का व्यक्तिगत मत हैं। अडवाणी जी ने भी जिन्ना के भाषणों और अन्य विचारों और पत्रों के आधार पर अपने व्यक्तव्य को सत्य स्थापित करने का प्रयास किया था। आज जब जसवंत सिंह ने भी वही बात की तो इतना शोर क्यों हैं? मुझे तो राम चरित मानस का वो प्रसंग याद आता हैं जब मंदोदरी और विभीषण दोनों ने ही राम को सीता ससम्मान लौटने का अनुरोध किया था। रावन ने जहाँ मंदोदरी को हंसकर गले लगा कर समझाया वहीं बिचारे विभीषण को भरी सभा में पदाघात और राज-निष्कासन का दंड मिला। ऐसा ही कुछ जसवंत के साथ भी हुआ। यूँ तो इन्टरनेट पर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के सर्वे में अधिकांशतः लोगो ने भाजपा को आडवाणी और जसवंत के लिए दोहरे मापदंडो के लिए कठगरे में खड़ा किया हैं। किंतु इन सबसे इतर जिस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ हैं वो दुखद हैं। आज ही जसवंत सिंह ने अटल जी से मुलाकात की हैं और सुधीन्द्र कुलकर्णी के सैद्धांतिक कारणों से त्यागपत्र के बाद भाजपा में उत्पन्न होने वाली नवीन परिस्थितियाँ वास्तव में भारतीय राजनैतिक पटल पर महत्वपूर्ण हो सकती हैं। </p><span class=""></span>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-50091310167737658112009-08-22T13:00:00.002-04:002009-08-22T13:00:01.862-04:00इस छोटे से बालक से कौन डरेगा<p>अप्रवासी जीवन की सबसे बड़ी असमंजस भरी बात होती हैं <span class="">कि "</span>साम दाम दंड <span class="">भेद"</span> किसी भी जुगत से अपने <span class="">बच्चों </span>को अपने व्याप्त देसी<span class="">पन </span>की घुट्टी कैसे परोसी <span class="">जाए। </span>इसी ध्येय से प्रेरित होकर हम अक्सर ही बच्चों को कुछ न कुछ भारतीय परोसते रहते हैं.... फ़िर चाहे वो भारतीय किस्से हों या चलचित्र हो... अक्सर इस भारतीयता के उन्माद में हम यह भी भूल जाते हैं कि जो हम परोस रहें हैं वो बच्चे ग्रहण भी कर रहे हैं या वे अपनी ही समझ से कुछ और सीख रहे हैं....</p><p>हमारे एक मित्र हैं (नाम नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मेरे मित्रगण जो इस चिठ्ठे को नियमित पढ़ते हैं उनको भी जानते हैं) जिनके दो पुत्र हैं दोनों में लगभग २ साल का अन्तंर हैं। कुछ सप्ताह पूर्व मैं उनके घर गया तो पाया कि दो बच्चों के बावजूद घर में जबरजस्त शान्ति हैं। इस अभूतपूर्व शान्ति से घर का सारा माहौल भी असहज सा लग रहा था। थोडी देर की औपचारिकता के पश्चात् मुझसे भी नहीं रहा गया, तो मैंने पूछ ही लिया की बच्चे इतने शांत क्यों हैं (इस प्रकार का परिवारिक मसलों का अतिक्रमण देसी भाई ही कर सकते हैं) । इस पर हमारे मित्र महोदय बोले - "यार! पूछो मत इन बच्चों ने नाक में दम कर रखा <span class="">हैं। </span>दोनों को 'टाइम <span class="">आउट' </span>दिया <span class="">हैं। </span>अब यहाँ बच्चों को अनुशासित करने के लिए मार तो सकते <span class="">नहीं, </span>तो टाइम आउट से काम चलाना पड़ता हैं" । मेरे अनुभव में अमेरिका में देसी बच्चों के लिए टाइम आउट ही सबसे ज्यादा प्रयुक्त सजा <span class="">हैं </span>जिसमे बच्चों को थोडी देर का एकांत दे दिया जाता हैं। किंतु यह सजा भी कुछ समय के बाद अपना असर खो देती हैं - हमारी बिटिया तो टाइम आउट मिलने पर ज्यादा खुश होती <span class="">है (</span> -चलो कुछ क्षण डांट-डपट से पिंड तो <span class="">छूटा) </span>हमारे ज़माने तो बापू के थप्पड़ के डर से ही पता नही क्या-क्या हो जाता था । </p><p>हमने भी आगंतुक की भूमिका निभाते हुए कहा - "क्या यार, इतने तो सीधे -साधे बच्चे हैं। इनको काहे को हड़का के रखा हैं। हुआ क्या?"। इस पर उन्होंने हमे बताना शुरू किया - "इन शैतानो को मैं दिखाने के लिए "<span class="">बाल-</span><span class="">गणेशा" </span>की सीडी लाया था।" हमारे मन ने उसी क्षण एक जोर का झटका धीरे से <span class="">खाया - </span>भइया इ आधुनिकता की मिसाल कौनो न कौनो रूप में सामने आ ही जाती हैं - योग का योगा, गणेश का <span class="">गणेशा!! </span>अरे भइया भगवान् का नाम तो नहीं <span class="">बिगाडो!!</span> पर मन को हमने भी औपचारिकता के आँचल में ढककर मौन का सहारा लिया। उन्होंने अपना कथन जरी रखा - "मैंने सोचा भक्ति भावः से भरी पिक्चर हैं..कार्टून के <span class="">साथ...कम से कम दोनों कुछ तो जानेगे अपने देवी-देवताओं के बारे में, अपने कल्चर के बारे में....कुछ समझ तो बनेगी हमारी पौराणिक कहानियों की.....इन दोनों ने भी बड़ा मन लगाकर कर पुरी पिक्चर देखी!!" मैंने हामी भरकर उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस कथांकन में अभी भी उनके साथ हूँ। उन्होंने कहानी को आगे विस्तार दिया..."भइया हमने सोचा था कि पिक्चर देखकर कुछ गणेशा के बारे में सीखेंगे पर ई दोनों असुरों से सीख लिए..." उनकी आंखों और वाणी में क्रोध और वेदना के मिले जुले भावः स्पष्ट उभर आए। हमारे ह्रदय में भी इस रहस्य और उसके आसुरी पक्ष को जानने की उत्कंठा भी तीव्र हो गई। हमने फिर निशब्द हामी भरी और उन्होंने आगे कहा - "पिक्चर देखने के बाद , शाम को यह दोनों सब-डिविजन (मुहल्ले) के बाकी बच्चों के साथ खेलने लगे ...तुमको तो पता हैं छोटा वाला बड़े वाले का चेला हैं...सो सारे बड़े वाले के दोस्तों ने मिलकर खेल-खेल में बाल-गणेशा का मंचन शुरू कर दिया । छोटा वाला गणेशा बना और बाकी सभी राक्षस... पिक्चर के एक सीन में बाल-गणेशा सारे राक्षसों को ललकारता हैं। उसपर सारे राक्षस बाल गणेशा को यह कह कर नकार देते हैं - "इस छोटे से बालक से कौन डरेगा" किंतु राक्षसों को गणेशा को हल्के लेना काफी भारी पड़ता हैं और गणेश उन सभी का काम-तमाम कर देता हैं। हमारे बड़े साहबजादे ने भी अपने दोस्तों के साथ राक्षस दल का नेतृत्व किया लेकिन हराने के लिए तैयार नहीं थे...इनके सारे दोस्तों ने मिलकर कर छोटे वाले को इतना पीट दिया कि उसका हाथ ही टूट गया...चेहरा भी सूज गया हैं - अब बताओ इन दुष्टों को सजा न दूँ तो क्या करुँ?"</span></p><p>उनकी कहानी सुनकर हमसे उनसे उस वक्त कुछ भी कहते न बना । थोडी देर बाद जब हम उनके घर से निकले तो बस यही सोचते हुए कि आजकल के बच्चे - बाप से बाप !!</p>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-70126258714618859482009-08-14T18:57:00.007-04:002009-08-15T01:09:25.961-04:00स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं<p align="center"><span style="color:#ff6600;"><strong><span class=""></span>वंदे मातरम्। वंदे मातरम्।।<br /><br />नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे<br />त्वया हुन्दुभुमे सुखं वर्धितोहम<br /></strong></span><span style="color:#ff6600;"><strong>महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे<br />पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते</strong></span></p><p align="center"><strong><span style="color:#ff6600;"></span></strong></p><p align="center"><strong><span style="color:#ffffff;">आज राष्ट्र उत्थान की कामना के साथ और<br /></span></strong><strong><span style="color:#ffffff;">स्वतंत्रता पथ न्यौछावर अमर शहीदों की स्मृति के साथ<br />अपने भेदभावों को बिसराकर </span></strong><strong><span style="color:#ffffff;">आओ <span class="">प्रण </span>करें </span><span style="color:#ffffff;"><span class="">कि<br /></span>इस वैश्विक विस्तार के युग में, हम जहाँ भी हो, जैसे भी हों ,<br />भारत के आदर्शों को कभी नहीं भुलायेंगे ।</span><span style="color:#006600;"><br /></span></strong><strong><span style="color:#33ff33;">ईश्वर हम सबको इतना सामर्थ्य प्रदान करे कि<br /></span></strong><strong><span style="color:#009900;"><span style="color:#33ff33;">राष्ट्र गरिमा और राष्ट्र रक्षा के लिए<br />हम अपना सर्वस्व भी बलिदान करने से कभी पीछे न </span><span class=""><span style="color:#33ff33;">हटे।</span> </span></span></strong></p><p align="center"><strong><span style="color:#009900;"></span></strong></p><p align="center"><strong><span style="color:#33ff33;">सभी श्रद्धेय जन और राष्ट्र-प्रेमी भारतवासियों को स्वतंत्रता-दिवस की हार्दिक बधाई।</span></strong><span style="color:#33ff33;"> </span></p>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-40043707096213685422009-08-12T11:00:00.001-04:002009-08-30T12:48:34.842-04:00विदेशी बाबाओं और तांत्रिकों का खेलआज थोडी देर पहले <a href="http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/4879246.cms">यह ख़बर </a>पढ़ी कि ब्रिटेन में बसने वाले तांत्रिक, ओझाओं और बाबाओं की अब खैर नहीं और उनके विरूद्व कड़ी कार्यवाही की जायेगी। मन ने हर्ष से किसी उच्छृंखल मृग की तरह कुचालें भरनी शुरू कर दी कि चलिए भारतीयता और पुरातन शास्त्र के ज्ञानी होने के दंभ भरने वाले इन पोंगा पंडितों की ठगी की दूकान तो बंद होगी और और हमारे पुरातान ज्ञान को कुलषित करने इन व्यवसायियों से वैश्विक समाज को मुक्ति मिलेगी। किंतु स्वार्थी मन ने तुरंत ही मानस पटल पर उछलती हर्ष तरंगों में व्यवधान ड़ाल दिया कि अगर यह बाबा लोग नहीं रहेंगे तो जी टीवी, स्टार प्लस आदि चैनलों पर आने वाले धारावाहिकों को प्रायोजित कौन करेगा? इनके आभाव में तो सारा तारतम्य ही बिगड़ जाएगा, हमारी पत्नी और माता जी फ़ोन पर किस विषय पर वार्ता करेंगी, तमाम मित्र-मण्डली के मिलने पर यदि सारी सखियाँ धारावाहिक की कहानियों से विहीन होंगी तो फ़िर तो सिर्फ़ शौपिंग जैसे खर्चीले विषयों पर चर्चा करेंगी या हम पतियों के विषय में...दोनों ही खतरनाक हैं .... इन सभी बाबाओं (चाहे वे अजमेरी बाबा हों या फ़िर पंडित महाराज) के आस्तित्व से समाज में, परिवार में एक व्यवस्था बनी हुई हैं... जिसके मिटने से कई दुविधाग्रस्त स्थितियां आ जाएँगी। सामाजिक कल्याण और पारिवारिक शान्ति के बीच के चयन की स्थिति आम-तौर पर तो सहज ही होती हैं (भाई, परिवार रहा तो समाज रहेगा ) किंतु मन के ऊँट ने कई करवटें बदल कर समाज कल्याण का रुख किया....<br /><span class=""></span><br /><span class="">सच, इस तरह की दुकाने सिर्फ़ भय और भविष्य के दिवास्वप्न पर ही पलती हैं। कई बार व्यक्ति हताशा और असफलताओं के ऐसे दुष्चक्र में फंसा होता हैं कि डूबते को तिनके का सहारा वाली आस के साथ इन महानुभावों के जंजाल में फंस जाता हैं। भारत में ही कितने कांड अक्सर ही सुनने को मिल जातें हैं। लोग जलती चिता नहीं छोड़कर आते हैं, लाशें कब्र से खोद कर निकल लेते हैं, बच्चों को चुरा के नरबलि जैसी घृणित कृत्यों की कितनी कहानियाँ मिल जाती हैं। हमारे भी एक सहयोगी ने इन बाबाओं के चक्कर में कई हजार डॉलर फूँक डाले थे। उनकी कहानी भी फोर्ड से नौकरी जाने से हुई। कहते हैं कि बुरा वक्त हर तरफ से घेरकर आता हैं... उस बिचारे के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, उसकी कार का एक्सीडेंट हुआ, फ़िर उनकी पत्नी का गर्भपात भी हो गया। उनको लगा कि किसी ने गाँव से भूत प्रेत हांक दिया हैं (क्योंकि दुर्भाग्य से वे नौकरी जाने से पहले भारत में अपने गाँव होकर आए थे)। उनके इस विचार की पुष्टि उनके गाँव में रहने वाले वृद्ध पिताजी ने भी यह कह कर दी कि हाँ हमारे पट्टीदार (रिश्तेदार) ऐसा कर सकते हैं। फ़िर क्या <span class="">था, जी टीवी पर आने वाले एक बाबा की शरण में वे जा </span>पहुंचे और बाबा ने १४ दिनों में स्थिति सुधार का गारंटी वाला वादा करके पूजा शुरू कर दी (और उनसे अच्छे खासे पैसे भी वसूले। इन बाबा का धाम तो ब्रिटेन में था, सो उन्होंने आनन-फानन पैसा भिजवाया। १ माह बाद भी जब हमारे मित्र की नौकरी नहीं लगी, तो उन्होंने बाबा से फ़िर दूरभाषीय आशीष लिया। बाबा ने बताया कि यह कोई साधारण भूत नहीं हैं , कोई बलशाली जिन्न हैं और बाबा को १४ दिन की और तपस्या करनी पड़ेगी....समाधान वही कि पैसा भेजो और २१ ब्राह्मण को भोजन कराओ, सफ़ेद वास्तुओं का अपने वजन के हिसाब से दान करो इत्यादि। बाबा ने कई दिनों तक हमाए बंधू को इन्ही टोने-टोटकों से व्यस्त रखा। अब यह इकोनोमी तो बाबा के जिन्न से भी बड़ी चीज निकली, सीधी होती ही नहीं थी तो नौकरी कहाँ से लगती... इसके चलते तो कई और जिन्न पनप गए होंगे... तो हमारे मित्र की भी नौकरी नहीं लगी। कई हजार की चपत के बाद हमारे बंधू अपनी अंध-विश्वास की निद्रा से जागें तो उन्हें अहसास हुआ कि कोई और नहीं बाबा रुपी जिन्न ही उनके पल्ले पड़ गया हैं। अब मुक्ति के उपाय से ज्यादा उन्हें अपने स्थिति सुधार की गारंटी पर खर्च किए पैसे याद आए। उन्होंने फ़िर बाबा का नम्बर खडकाया कि बाबा कुछ हो नहीं रहा हैं अब आप पैसे वापस करो। बाबा ने किसी स्टोर के मिंजर की तर्ज पर एक फ्री पूजा ऑफर थमा दिया। एक माह बाद जब फ्री पूजा से भी बात नहीं बनी तो हमारे मित्र ने बाबा को फ़िर गारंटी याद दिलाने के लिए फ़ोन किया। अब बाबा भी जान चुके थे कि यह चेला हाथ से निकल चुका, अब यह गाय दुधारू नहीं रही, सो बाबा अन्य कामो में व्यस्त होगए । हमारे मित्र कई दिनों तक बाबा को पकड़ने के लिए दूरभाष कंपनियों के लाभांश बढाते रहे। फ़िर एक दिन जब उनकी बची-खुची खुमारी भी उतर चुकी थी तब उन्होंने तैस में आकर गारंटी वाले पैसे बाबा के फ़ोन का जबाब देने वाले चेले से ही मांग डाले। उसके बाद तो बाबा का रूप ही बदल गया। हमारे मित्र के अगले काल पर बाबा ने उससे बात की और यह धमका डाला कि मेरे पास तेरे वाले जिन्न से भी बड़े जिन्न हैं... तेरी जो एक बच्ची बची हैं में उसको भी छीन लूँगा....उसके बाद से हमारे मित्र एकदम शांत हो गए... अभी हाल में ही भारत लौट भी गए....<br /><br />पर आप ही बताएं ऐसे बाबा को चुंगल में कितने लोग फंसे होंगे। ऐसे बाबाओं की दूकान बंद होने में ही भलाई हैं।</span>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-54125147497133678432009-07-17T13:00:00.000-04:002009-07-17T13:00:02.192-04:00दीनानाथउम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढती हुई एक <span class="">काया, </span>जिसके <span class="">बाल, </span>शरीर और चहरे की झुरियां नून-<span class="">रोटी </span>की रोज-<span class="">रोंज </span>की जदोजहद की कहानी अपने आप <span class="">बयाँ </span>करते हैं। उसके चहरे पर के <span class="">झूठी </span>खुशामद करती हुई मुस्कान हमेशा कुछ यूँ चस्पा रहती <span class="">कि </span>उसकी आँखों की ज़ुबानी अपने <span class="">फरेबीपन </span>को ठीक से छुपा भी नहीं पाती। ऐसी ही एक झूठी मुस्कान के साथ उसकी मेरी मुलाकात हुई <span class="">थी...</span><br /><br /><span class=""></span><span class=""></span><br />बात लगभग <span class="">चार-पॉँच</span> साल पहले की <span class="">हैं, </span>मैं अमेरिका से भारत गया हुआ <span class="">था। </span>मुझे सदैव ही यह बात सताती रही की मैंने चंद दिनों के प्रवास में जितना अमेरिकी <span class="">भूमि </span>का पर्यटन किया हैं उसका अंश <span class="">मात्र </span>भी भारत दर्शन नहीं किया हैं। अतः पिछली कई यात्राओं में मैं एक-दो सप्ताह भारत भ्रमण के लिए भी आरक्षित रखता हूँ। हाँ कुछ रिश्तेदारों से जल्दबाजी मैं मिलना पड़ता हैं पर फ़िर मैं माँ-बापू को साथ लेकर कुछ एकांत के परिवारिक <span class="">क्षण </span>भी बिता पता हूँ। इसी क्रम में मैं पिछली यात्रा में भरतपुर और साथ ही के दुर्ग क्षेत्र की यात्रा पर था। मेरे एक मौसेरे भाई <span class="">जो </span><span class="">आई </span>पी एस हैं भी उसी क्षेत्र में थे - उन्होंने भी साथ घूमने का निर्णय <span class="">लिया। </span>वहीं जब उनके साथ गेस्ट हाउस पहुँचा तब दीनानाथ से मुलाकात हुई। एक पुलिस का सिपाही जिसे इलाके के क्षेत्राधिकारी ने हमारे भाई साहब और उनके साथ पहुँची हम रिश्तेदारों की सेवा के लिए भेजा था। उसी झूठी मुस्कान के साथ भाई-साहब को उसने सलाम बजाया और फिर <span class="">धीरे- </span>से सब घरवालों को शिष्टाचारवश नमस्ते करने के उपरांत उसने समान की और नज़र दौडाई <span class="">और अपने </span>साथी से साथ सारा सामान उठाकर हम सबके कमरे में ले गया।<br /><br />अगले दिन सुबह से ही वो हमें सारा इलाका घुमाने ले गया। सरकारी गाड़ियों और किराये के टैक्सी में हमारा काफिला चला। बीच में भी भाई साहब से पता चला कि दीनानाथ पंडित हैं और इसी गुण के कारण क्षेत्राधिकारी ने विशेष रूप से हमारे (ब्राह्मण) भाई के लिए चयन किया हैं... (जातिवादी भूत ऊप्र से राजस्थान तक पीछा नहीं छोड़ता)। तीन दिनों की यात्रा के दौरान पानी से खाने तक सभी चीजों में दीनानाथ हमारा ख्याल रखे हुए था... सबसे ज्यादा तो मुझे और मेरी पत्नी को आराम था क्योंकि हमारी ३ वर्षीया पुत्री को वो हर जगह घूमा रहा था... वो यदि थक जाए तो हमारे लाख मन करने पर भी उसे गोदी में उठा लेता था॥ अमेरिका में रहते हुए ऐसी मानवीय सेवा और सुविधा के हम तो आदी नही रह गए थें.... उस पर गोदी के लिए तो सोचना भी असंभव था... स्ट्रोलर के आलावा गोदी वो भी पुरे पुरे दिन के लिए तो पिता होकर भी मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात थी पर दीनानाथ ने पूरी तन्मयता से हमारी बेटी को तीन दिनों तक तनिक भी थकान के अंदेशे से गोदी के सवारी कराई...इन्ही दिनों बातचीत से पता चला कि उसकी सेवानिवृति को एक वर्ष हैं और गाँव में तीन बेटिया हैं ... एक अभी भी विवाह के लिए बैठी हैं, उम्र अधिक हो गई हैं.... कुछ ऊपर की कमाई और वेतन से मिलकर जैसे तैसे काम चल जाता । तीनो दिन हमसे ज्यादा दौड़ भाग दीनानाथ ने ही की होगी।<br /><br />खैर जैसे-तैसे जब हम चौथे दिन प्रातः जाने को हुए तो मैंने अपनी पत्नी को कहा कि दीनानाथ ने इतने दिनों तक हमारी सेवा की हैं (और साथ ही मुझे लगा कि वह गरीब भी हैं) तो कुछ बख्शीस दे देना ....चलने से पूर्व जब भाई साहब अपनी सरकारी गाड़ी पर चढ़ने को हुए तो दीनानाथ ने झपट कर उनका चरण-स्पर्श किया...भाई-साहब ने भी किसी राजा महराजा की तरह अभय मुद्रा बनते हुए आशीष दे डाला...उसके बाद जब वो हमारी गाड़ी की तरफ़ बढे तो हमारी पत्नी से ५०० के २ नोटों को मोड़ कर उन्हें देना चाहा। दीनानाथ ने इनकार करते हुए कहा क्या कर रहीं हैं मैडम....हम तो आपके बच्चों की तरह हैं आर्शीवाद दीजिये...इतना कहते हुए उन्होंने मेरे और मेरे पत्नी के चरण छू लिए .... हम दोनों ही हतप्रद, किंकर्तव्यविमूढ खड़े उनका मुख देखते रह गए.....मन ने क्रंदन किया ये क्या हैं ये तो हमारे पिता की उम्र के हैं...हम इनके बच्चे हुए पर यहाँ तो यह स्वं को हमारे बच्चो की तरह कह रहें हैं और हमारे चरण स्पर्श कर रहें हैं ....क्या यह सामंती व्यवस्था के अवशेष हैं जो आज भी उस पुलिस विभाग में चले आ रहे हैं जिसको यह सुनिश्चित करना हैं कि सामंती शोषण न हो....बड़ी मुश्किल से हमने अपने रुतबे की दुहाई देते हुए और यह विश्वास दिलाते हुए कि भाई-साहब को कुछ पता नहीं चलेगा - उनको वो पैसे पकडाये।<br /><br />किन्तु उस घटना और दीनानाथ ने मेरे मानस पटल पर कभी भी क्षीण न पड़ने वाली छाप छोड़ डाली हैं...आज भी उस घटना का बोध न केवल मेरे रोंगटे खड़े कर देता हैं बल्कि मन को क्षोभ से भी भर देता हैं...Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-64987313334233714832009-07-10T02:00:00.000-04:002009-08-30T12:48:34.842-04:00हिंदू भावनाओ का तिरस्कार क्यों करती हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँअभी हाल में ही स्पेन में बर्गर किंग ने माँ लक्ष्मी के साथ अपने गौ-मांस युक्त <span class="">बर्गर 'Texican Whopper' </span>का प्रचार शुरू किया (<a href="http://www.telegraph.co.uk/news/worldnews/asia/india/5786561/Burger-King-apology-to-Hindus-for-advert.html">देखें</a>)। इस बर्गर को माँ लक्ष्मी के साथ दिखाकर टैग लाइन थी - पवित्र स्नैक। हिंदू के व्यापक विरोध के बाद ये प्रचार सामग्री आनन-फानन हटा ली गयी पर मेरी समझ में ये नहीं आता की बर्गर किंग जैसी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में व्यापक पैठ रखने वाली कंपनी -दुनिया के लगभग १५ प्रतिशत जनसँख्या की उपेक्षा कैसे कर सकती हैं। क्या यह हिंदू सहिष्णुता का परिणाम हैं? अक्सर ही इस तरह की अनदेखी क्यों होती हैं चाहे वो मक डॉनल्डस के फ्रेंच फ्राईस हो या बर्गर किंग की प्रचार सामग्री ....अभी हाल में कुछ <a href="http://www.hindunet.org/anti_defamation/shoes/press_release.htm">जूतों पर हिंदू देवी-देवताओ की तस्वीरें छाप</a> दी गई थीं तो कुछ दिनों पूर्व लन्दन में एक <a href="http://www.indiarightsonline.com/Sabrang/relipolcom7.nsf/5e7647d942f529c9e5256c3100376e2e/4ba781f3dbf0a47c65256ccd003ed20c/$FILE/bac31044.pdf">जूता बनानेवाली कंपनी ने अपने मॉडल का नामकरण 'विष्णु' और कृष्ण </a>कर दिया था...<br /><span class=""></span><br /><span class="">धार्मिक सहिष्णुता का मतलब निरंतर धार्मिक अवमानना या अपमान तो नहीं होना चाहिए। मैं जनता हूँ कि बहुत से प्रबुद्ध पाठक हिंदू उग्रवाद की बात करेंगे ("क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ") किंतु मेरी समझ से एक तरफा उग्रवाद और उन्माद से यह सिलसिला बंद नहीं होने वाला हैं.... हिंदू भावनाओ के प्रति पश्चिमी जगत, विशेष कर कारपोरेट जगत की संवेदनशीलता किस प्रकार जागृत की जा सकती हैं, यह हमारे समाज के सामने एक बड़ी चुनौती हैं....</span>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-82756871679749202062009-07-08T09:48:00.005-04:002009-08-30T12:48:34.843-04:00ज़रदारी की स्वीकारोक्ति: पाकिस्तान का भस्मासुरआज 'टाइम ऑफ़ इंडिया' की वेबसाइट पर यह ख़बर ("<a onclick="pageTracker._trackEvent('toiheadline', 'select', 'Head1_Main');" href="http://timesofindia.indiatimes.com/Pak-created-and-nurtured-terrorists-Zardari/articleshow/4752953.cms">Pak created and nurtured terrorists: Zardari</a>") पढ़ते-पढ़ते मैं ठिठक गया। न तो इस ख़बर में कोई नई बात, न ही कुछ नवीन जानकारी। फ़िर भी जिस बात ने मुझे चौकाया वो थी पाक राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकारोक्ति। उनके अनुसार क्षणिक लाभ के लिए किए गए पकिस्तान के इस प्रयास की विफलता....सर्वविदित हैं कि यह क्षणिक लाभ तो भारत के अहित के आलावा कुछ भी नहीं हैं...<br /><br />पकिस्तान ने जो कट्टरपंथियों की जमात तैयार की हैं वो न तो पाकिस्तान कि ही सगी हैं न भारत की। एक पूरी पीढी के ज्ञान-चक्षु बंद करके हो नेत्रहीनों की तालिबानी सेना तैयार की हैं उनसे अब सही दिशा में जाने की उम्मीद भी बेकार हैं। जरदारी के शब्दों में - वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की घटना से पूर्व यह वर्ग पाकिस्तानी समाज के सम्मानित नायक थे किंतु तत्पश्चात ये सिर्फ़ खलनायक रह गए...और आज का इनका बढ़ा हुआ स्वरुप पाकिस्तानी तंत्र की विफलता नहीं हैं क्योंकि उसीने तो वर्षों इस व्यवस्था को पला और पनपने दिया हैं.... हाय रे! भोलापन... सत्य से साक्षत्कार - भस्मासुर ने सर पर हाथ रखने की इच्छा प्रकट की तब ही पता चला हम ने क्या कर डाला... <br /><span class=""></span><span class=""></span><br />काँटों के बेल को सालों पनपाया कि पडोसी के दरवाजे पर छोड़ आयेंगे आज घर के ही लोंगों को कांटे चुभ रहे हैं तब समझ में आया कि क्या कर डाला। कश्मीर की आजादी के नाम पार पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस तक कितने मदरसे समाज-विरोधी विष उगल रहे हैं (<span class=""><a href="http://voiceofdharma.org/books/cpak/ch3.html">देखें</a>) , </span>जिस प्रकार अभी भी प्रतिदिन सीमा पार घुसपेठ के प्रयास होते हैं, जिस प्रकार दाऊद को संरक्षण प्राप्त हैं उससे तो लगता नहीं कि पाक ने अभी भी कुछ सबक लिया हैं। फ़िर भी यदि इस स्वीकारोक्ति को एक अच्छी पहल माना जा सकता हैं (या अपरिपक्व राजनेता की निशानी - जो ज़रदारी के लिए उचित नहीं हैं)<br /><a href="http://voiceofdharma।org/books/cpak/"></a>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-16490216777540782592009-07-05T01:00:00.002-04:002009-07-05T01:32:40.367-04:00ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी... की चौपाई अप्रवासी की दृष्टि सेअभी कुछ दिनों पूर्व '<a href="http://www.blogger.com/profile/09013592588359905805" rel="nofollow">बालसुब्रमण्यम</a><span class=""> जी' के</span> चिठ्ठे को पढ़ रहा था। उन्होंने तुलसीदास के हिन्दी <a href="http://jaihindi.blogspot.com/search/label/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8">भक्तिकाल को योगदान </a>के विषय में लिखा हैं। तुलसीदास मेरे भी प्रिय रचनाकारों में से हैं। तुलसी राम चरित मानस के साथ ही हम बड़े हुयें हैं। मुझे अपने दादाजी याद आते हैं जिनके पास हर विषय के लिए एक तुलसी की चौपाई या दोहा हुआ करता था। उनके ही सानिध्य और अपने पिता जी के अनुकरण से हर शनिवार सुंदरकांड पढने की भी आदत हो गई हैं। वैसे भी घर पर कुछ भी शुभ हो तुलसी की रामायण तो रखी ही जाती हैं। <span class="">तुलसी के प्रति मेरा आकर्षण न</span> केवल उनकी सहज भाषा के <span class="">कारण </span>हैं बल्कि बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड की कई चौपाईयों में जिंदगी का फलसफा मिलता हैं जोकि जितना भक्तिकाल काल में प्रासंगिक था उतना ही आज के वातावरण में....<br /><br /><br /><p>तुलसी के आलोचक अक्सर उनके नारी विरोधी वर्णन के कारण उन्हें आरोपित करते रहें हैं। इस प्रसंग में <span class="">मुख्यतः </span>सुन्दरकाण्ड की यह चौपाई <span class="">उद्दारित </span>की <span class="">जाती </span>हैं "ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।"। वे तुलसी जिन्हें सारे जग में अपने प्रभु का रूप दीखता हैं - निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोधा , जिनकी रचना में हर पात्र मर्यादा में इतना रचा-बसा हैं कि पर-स्त्री का मान माता के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं...रावण जैसा रक्ष-संस्कृति का प्रणेता भी अपनी भार्या के बिना सीता से मिलने नहीं जाता हैं, अपनी बंदिनी सीता को काल-कोठरी की जगह अशोक (जहाँ शोक ही न व्याप्त हो) वाटिका में रखता हैं। उसका मत नारी को मार-पीट के योग्य मान ही नहीं सकता। इसी प्रकार जहाँ शबरी का झूठा भी बिना भेदभाव के प्रभु प्रेम से खाते हैं, निषाद को मित्रवत गले लगाते हैं वहां शूद्रों को भी मारने पीटने के योग्य कैसे माना जा सकता हैं?</p><br /><p>अधिकांशतः तुलसी प्रेमी इस चौपाई के आधार पर तुलसी को नारी-विरोधी नहीं मानते. कुछ तो इस चौपाई को तुलसी कृत मानते ही नहीं...बालसुब्रमण्यम जी ने भी इस चौपाई को प्रक्षिप्त माना हैं। इस निबंध को पढने के बाद मैंने कई अन्य चिठ्ठों पर भी इस चौपाई का विश्लेषण देखा और पाया कि विभिन्न बुद्धिजीवी इस चौपाई के विषय में विविध मत रखते हैं किंतु कोई भी इस चौपाई से तुलसी की महत्ता को कम नहीं आंकता। बालसुब्रमण्यम जी के अतिरिक्त <a href="http://hindini.com/fursatiya/?cat=9">फ़ुरसतिया </a>जी भी इस चौपाई को स्वं सागर के द्वारा कथित वचन मान राम और तुलसी को इस व्यक्तव के आरोप से मुक्त करते हैं (<a href="http://hindini.com/fursatiya/?p=63">देखें</a>)। इसी प्रकार <a href="http://www.blogger.com/profile/01215091193936901460">रंजना सिंह </a>जी कई प्रकरणों में नारी उत्थान और शूद्र प्रेम के उदाहरण के स्थान पर आलोचकों द्वारा केवल एक चौपाई पर तुलसी को नारी विरोधी मानने पर आपत्ति रखती हैं। साथ ही उन्होंने तुलसी के "ताड़ना" शब्द को 'नियंत्रण' के स्थान पर उपयुक्त बताया हैं (<a href="http://samvednasansaar.blogspot.com/2008/07/blog-post.html">देखें</a>)। इसी प्रकार एक अन्य वरिष्ठ चिठ्ठाकार "<a href="http://www.blogger.com/profile/01605651550165016319">लक्ष्मीनारायण गुप्त</a>" सागर के वचनों का राम के मूक समर्थन के कारण राम और तुलसी को नारी विरोधी आरोप से मुक्त तो नहीं करते किंतु वाल्मीकि रामायण के अंश देकर ये अवश्य कहते हैं कि अन्य रचनाओ में नारी विरोधी होने के उद्धरण नही हैं। इस प्रकार एक अन्य <a href="http://sandarshan.blogspot.com/2008/10/2008_21.html">चिठ्ठे</a> में ऋषभ जी के अनुसार तुलसी जी केवल तीन श्रणियों के बारे में लिखते हैं जैसा कि ढोल , गँवार-सूद्र ,पसु-नारी और ताड़ना का अर्थ डांटने डपटने से हैं। इन सभी ज्ञानवान सहयोगियों के मत का सम्मान करते हुए मैं इस विषय में अपने विचार भी रखना चाहूँगा। </p><br /><p>वैसे तो ताड़ना शब्द के अर्थ "मरना" के अतिरिक्त नियंत्रण और डांटना से तो परिभाषित हैं किंतु इस अर्थो के अतिरिक्त ताड़ना का एक और अर्थ हैं -वो हैं पूर्व-अनुमानित करना। भारतीय साहित्य संग्रह की वेब साईट (पुस्तक डॉट ओआरजी ) पर ताड़ना शब्द के <a href="http://pustak.org:4300/bs/home.php?mean=38447">कई अर्थों </a>में से एक हैं - "स। [सं.तर्कण या ताड़न] कुछ दूरी पर लोगों की आँखे बचाकर या लुक-छिपकर किये जाते हुए काम को अपने कौशल या बुद्धि-बल से जान ये देख लेना।" जिस सन्दर्भ और घटना जिस में यह उक्ति प्रयुक्त हुई हैं उसमे यह ही अर्थ सटीक बैठता हैं। सागर राम को उनके ईश्वरीय रूप की दुहाई देते हुए कहता हैं कि हे प्रभु आप की ही प्रेरणा से रचित आकाश, वायु, अग्नि, जल और धरती सभी जड़ता के (अवगुण) से ग्रसित हैं। इस विषय में सभी ग्रन्थ भी उनकी जड़ता से बारे में कहते हैं। अतः आप मेरी इस जड़ता को क्षमा करें। इस विषय पर वाल्मीकि भी कुछ ऐसा ही वर्णित करते हैं - "पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव। स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शास्वतं मार्गमाश्रिताः।।तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोहमप्लवः। विकारस्तु भवेद् गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम्।" हे राघव ! धरती, आकाश, वायु, जल और अग्नि अपने शास्वत स्वभाव के आश्रित रहते हैं (अपनी जड़ता को कभी नहीं छोड़ते) । </p><br /><p>तुलसी रचना में, तदुपरांत सागर उलाहना देता हैं कि हे प्रभु आप मुझपर शक्ति प्रयोग कर जो सीख देना चाहते हैं वो तो उचित हैं (क्योकि आप सर्वशक्तिवान प्रभु हो) किंतु मैंने तो जड़वत रहकर आपकी ही मर्यादा निभाई हैं। हे प्रभु आपको भी मेरी जड़वत अवस्था ठीक उसी प्रकार पहले ही जान जानी (ताडनी) चाहिए जिस प्रकार भद्र पुरूष वाद्य-यन्त्र (ढोल), असभ्य (गंवार ), नीच (शूद्र), पशु और नारी को देखकर अपने आचरण को पूर्वानुमानित कर लेते हैं। </p><p>जिस प्रकार किसी भी वाद्य-यन्त्र से मिलने से पहले अर्थात उसको बजाने से पहले जाँच परखकर कर उसकी स्थिति भांप (ताड़) लेनी कहिये। इससे उसके साधक को उसे बजाने में उचित सहजता रहेगी। इसी प्रकार जब आप किसी असभ्य (गंवार या प्रचिलित रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ) व्यक्ति से मिलने से पहले उसके हाव-भाव और उसकी मनोदशा को ताड़ लेना चाहिए और उसके अनुसार उससे मिलना चाहिए जिससे एक-दुसरे के प्रति असहजता न हो। इसी क्रम में तुलसीदास कहते हैं किसी भी नीच (या व्यावारिक स्तर पर शूद्र) व्यक्ति से मिलने पर उसके आचरण को ताड़ने (भांपने) का प्रयास करना चाहिए - इस प्रकार के पूर्वानुमानित आचरण से आप उस व्यक्ति से सम्मुख स्वं को बचा पाएंगे (अन्यथा नीच का क्या भरोसा और वो अपने आचरण से कब आपका अपमान या तिरस्कार कर दे)। किसी भी पशु को देखकर उसके व्यवहार का पूर्वानुमान (ताड़ना) अत्यन्त आवश्यक हैं - क्या वो हिंसक, वन-निवासी पशु हैं या पालतू जीव हैं... क्या वो आक्रामक हो सकता हैं (जैसे सिंह) या स्नेहाकांक्षी पशु हो सकता हैं (जैसे श्वान या मृग)। इसके पश्चात तुलसी नारी का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि किसी भी नारी से मिलने से पहले भी उसके व्यवहार और आकांक्षा का पूर्वानुमान (ताड़ना) आवश्यक हैं - जैसे वो स्त्री आपसे क्या अपेक्षा रखती हैं, क्या आपको उससे एकांत में मिलना उचित हैं या नहीं इत्यादि... (विशेष रूप से जब आप यहाँ ताड़ने का अर्थ भांपने से लेते हैं तो ये चौपाई नारी के प्रति आदर्श आचरण का उदाहरण हो जाती हैं जोकि रामायण से चरित्र के अनुरूप हैं)। सागर प्रभु राम से उलाहना देते हुए कहता हैं कि जिस प्रकार इन पॉँच परिस्थितियों में पूर्वानुमान आवश्यक हैं उसी प्रकार आपको मेरी जड़वत प्रकृति (जोकि आपके द्वारा ही रचित हैं) का पूर्वानुमान होना चाहिए था। फ़िर भी हे प्रभु आप मुझपर क्रोध कर रहे हैं.... तदुपरांत सागर नल नील के बारे में वार्ता करता हैं। </p><p>सम्भव हैं कि बहुत से प्रबुद्ध जन मेरे मत से सहमत न हो या वे इस चौपाई को नए आयामों में देखें। किंतु वर्तमान मेरे रामायण से अल्प साक्षात्कार से जो मुझे सही लगा और जो रामायण की मर्यादा निष्ठ कथांकन और तुलसी की अन्य आध्यायों में नारी समर्पण और सर्व-वर्ग कल्याण की भावना के अनुरूप लगा उसे मैंने आपके सम्मुख रखने का प्रयास किया हैं। आप इस सन्दर्भ में अपने विचार अवश्य बताएं। </p>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-65292840697089060552009-06-05T01:00:00.000-04:002009-08-30T12:48:34.843-04:00जय हो: बैले और भरतनाट्यमग्रीष्म काल के आगमन के साथ ही यहाँ अमेरिका में विभिन्न विद्यालयों के सत्र समाप्ति की ओर हैं। इसी क्रम में हमारी पुत्री के नृत्य कक्षाओं का भी समापन गत सप्ताह हुआ। हमारी बिटिया रानी भी दो विभिन्न नृत्य विद्यालयों में पश्चात् और भारतीय नृत्य शैलियाँ सीख रहीं हैं। पश्चात शैलियों में जहाँ वो बैले, जैज़ और टैप सीखती हैं वहीं भारतीय नृत्य शैली में भरतनाट्यम के पाठ्यक्रम में दीक्षा प्राप्त कर रहीं हैं। यह नृत्यशालाएं अपने सत्रांत एक रंगारंग कार्यक्रम से करती हैं।<br /><span class=""></span><br />पिछला सप्ताहांत पुर्णतः इन्ही नृत्य कार्यक्रमों के नाम रहा। शनिवार को हमारी पुत्री के पश्चात् नृत्यशाला का कार्यक्रम था और रविवार को भरतनाट्यम का... इन कार्यक्रम में सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे बॉलीवुड और भारतीय प्रभाव देखकर हुआ।<br /><span class=""></span><br />शनिवार को हुए कार्यक्रम में आमतौर पर बैले, जैज़, हिप-हॉप और टैप के प्रदर्शन होता आया हैं। कम से कम पिछले तीन साल तो यह ही क्रम था। किंतु इस बार मैंने उन्हें बॉलीवुड डांस की नयी शैली के नाम से भारतीय फिल्मी गानों पर भी प्रदर्शन करते देखा। यह बात अलग थी के इसमे नृत्य करने वाले अधिकतर बच्चे भारतीय ही थे पर मैं एक दो विदेशी बच्चों को भी इन गानों पर नाचते हुए देखकर दंग था। इस कार्यक्रम के अन्य नृत्यों में भाग लेने वाले बच्चे तो अमेरिकी मूल के ही थे अतः अधिकतर दर्शक भी विदेशी ही थे पर मज़ा तो यह देखकर आया कि 'मौजा ही मौजा ' और 'देसी-गर्ल' पर वे भी सभी झूम रहे थे....और इस कार्यक्रम के सबसे मजेदार क्षण था जब 'जय हो' पर बैले हुआ। दर्शक भी जय हो का राग अलापते हुए दिखे....<br /><span class=""></span><br /><span class="">रविवार की शाम हमारी पुत्री के भरतनाट्यम का प्रदर्शन था। भरतनाट्यम का यह हमारा पहला साल था क्योकि हमारी बिटिया ने इसी साल से इसकी शुरुआत की हैं। श्रीमती चौला थक्कर का जो हमारी पुत्री की शिक्षिका हैं वैसे तो काफी प्रसिद्द हैं। उन्होंने अपने नंदाता नमक संस्थान से कई कार्यक्रमों को करके इस इलाके में नाम कमाया हैं। फ़िर भी जब मैं ऑडिटोरियम में प्रविष्ट हुआ तो केवल देसी जनता को देखने की उम्मीद कर रहा था परन्तु दर्शकों में अमेरिकी साथियों को देख बड़ी हर्षानुभूति हुई। यहाँ तक कि नृतक एवं नृतयांगानाओ में भी प्रचुर मात्र में अमेरिकी थे। कार्यक्रम कि शुरुआत तो आशानुरूप गणेश वंदना, कृष्ण राधा आदि धार्मिक और शास्त्रीय भरतनाट्यम के नृत्यों से हुई किंतु अंत में जाते-जाते कुछ फिल्मी गीतों पर भी भरतनाट्यम हुआ। अधिकतर फिल्मी गीत तो भक्ति भावः से ओत प्रोत थे जैसे एक राधा -एक मीरा, श्याम तेरी बंसी इत्यादी किंतु अन्तिम गीत था जय हो.... एक बार फ़िर पहले जय हो पर तेज गति से होता भरतनाट्यम देखकर मंत्रमुग्ध हुए और फ़िर अपने गैर-देसी दर्शको को उस गाने पर झूमते हुए देखकर....</span><br /><span class=""></span><br /><span class="">जय हो वैसे तो पहले-पहल मुझे रहमान के कई गीतों के मुकाबले कम पसंद था पर इन दो दिनों में इसका प्रभाव देखकर हमारी भी जुबान पर चढ़ गया हैं..... अब तो हम भी यह ही कह रहें हैं बॉलीवुड जय हो !! रहमान जय हो!!! और गुरुभाई गुलज़ार जय हो!!! </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">गुरुभाई गुलज़ार क्यों - यह चर्चा कभी और पर आज तो जय हो!!</span><br /><span class=""></span><br />आनंदित<br /><span class="">अप्रवासी </span>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-23608675539567049902009-05-17T03:00:00.000-04:002009-05-17T03:03:25.088-04:00क्या सिक्किम में पुनः चुनाव होने चाहिए<span class="">अभी-</span>अभी यह <a href="http://in.jagran.yahoo.com/election2009/?page=article&category=2&articleid=4665">ख़बर</a> पढ़ी <span class="">कि सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी [एसडीएफ] </span>ने सिक्किम की सभी विधानसभा सीटों और एकमात्र लोकसभा सीट पर बहुमत हासिल कर लिया हैं। सम्पूर्ण सिक्किम में एक भी अन्य दल एक भी सीट न पा सका। सम्पूर्ण सिक्किम विधानसभा विपक्ष विहीन हैं।<br /><br />लोकतंत्र को की जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन के रूप में परिभाषित किया जाता हैं उसमे जनता का हित का ध्यान रखने के लिए विपक्ष का बड़ा हाथ होता हैं। विपक्ष प्रजा के लिए एक परिक्षण और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था के रूप में कार्यरत होता हैं जो यह निश्चित करता हैं की एक दल, एक विचारधारा और एक व्यक्ति तानाशाह का रूप न ले सके- समाज के हितार्थ निर्णय लेने के लिए और वैचारिक भिन्नता के चलते उस निर्णय के सभी पक्षों को जांचने के लिए विपक्ष का होना अत्यन्त आवश्यक हैं। लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता, क्षेत्रीय मुद्दों और नेताओं का ज़मीन से जुडा होना यह सुनिश्चित करता हैं की एक सदन में कम से कम दो पक्ष तो हो। किंतु गणितीय आधार पर केवल एक दल के सत्ता में आने की क्षीण संभावना तो रहती हैं किंतु हर लोकतंत्र में ऐसा कभी न होगा सोच कर एक दलीय सत्ता के विषय में, मेरे ज्ञान ,संविधान प्रदत कोई व्यवस्था नहीं हैं। इस बार सिक्किम में यह चमत्कार हो गया हैं और चामलिंग चौथी बार सरकार बनाने जा रहें हैं...<br /><br />किंतु क्या एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विपक्ष के आवश्यकता को ध्यान में रख कर क्या सिक्किम में पुनः चुनाव होने चाहिए (अथवा राष्ट्रपति शासन होना चाहिए ) या जनादेश का पालन करते हुए विपक्ष विहीन शासन होना चाहिए। इस व्यवस्था में संविधान क्या कहता हैं? आपके विचार और राय जानना चाहूँगा...साथ ही यदि कोई पाठक इस विषय पर संविधान प्रद्दत व्यवस्था के विषय में जानते हो तो बताएं।Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-34206913770815693692009-04-24T13:30:00.001-04:002009-07-01T11:55:52.883-04:00रसीदीआज घर की सफाई के दौरान जब सारी सर्दियों भर की रद्दी उठा कर बेसमेंट में रखने गया तो अनायास ही उसका ख्याल आ गया। गर्मी के आगमन के साथ ही बाहर पसरी पड़ी बर्फ ने अपने पाँव सुकड़ने शुरू कर दिए थे अतः नयी नवेली कोमल धूप का आनंद लेने जबतक मैं चाय की प्याली के साथ बालकनी पर आकर बैठा मैं पुरी तरह से स्मृतियों के गलियारों ने विचारने लगा था ....<br /><br />"रद्दी <span class="">वाला" </span>चिल्लाते हुए वो हमारे मुहल्ले में आता था। बरेली का एक छोटा सा मोहल्ला - बजरिया <span class="">पूरनमल...</span><span class="">चहवाई </span>और कुहाडापीर के बीच <span class="">फ़सा </span>सा <span class="">इलाका। </span>शायद वो और भी मुहल्लों में जाता होगा पर इस मुहल्ले में रहने वाले उसके नियमित ग्राहक <span class="">थे...</span>यूँ तो और भी रद्दी और कबाडीवाले आते थे आर वो अपनी <span class="">मासूमियत, </span>मृत्भा<span class="">षी </span>व्यवहार और कम <span class="">उम्र </span>की वजह से ज्यादा पसंद किया जाता था...उम्र में तो मुझसे भी छोटा रहा होगा १२-१३ बरस <span class="">का....</span>अपना ठेला धकेलते हुए "रद्दी <span class="">वाला" </span>चिल्लाते हुए घर-घर जाता <span class="">था। </span><br /><br /><span class=""></span><span class=""></span><br /><span class="">आज की तरह उस</span> दिन भी ऐसी ही <span class="">धूप </span><span class="">का </span>छत पर आनंद ले रहा था जब माँ ने नीचे से आवाज लगी <span class="">कि </span>रद्दी बेचनी <span class="">हैं, </span>रसीदी को रोको... <span class="">रसीदी, </span>हाँ रसीदी ही तो नाम था उसका। पता नही कि उसके <span class="">माँ-</span>बाप ने दिया था या रद्दी का काम <span class="">करते-</span>करते उसका नाम किसी ने रसीदी रख दिया था। मैंने छत से ही आवाज <span class="">लगाई -"</span>ओये <span class="">रसीदी, </span><span class="">रसीदी...</span>अबे <span class="">रुक...</span>घर की रद्दी बेचनी <span class="">हैं...." </span>उसने नज़र उठाकर देखा और ठेले को हमारी गली में मोड़ दिया।<br /><br /><span class=""></span><br />हम भी नीचे आकर घर भर की रद्दी एकत्रित करने <span class="">लगे...</span>रद्दी बेचते हुए हम माँ का हाथ बिना पूछे-कहे ही <span class="">बटाने </span>आ जाया करते थे क्योंकि रद्दी के बीच कितने खजाने मिलते <span class="">थे, </span>आपको क्या <span class="">बताएं...</span>और फिर यह चिंता भी रहती थी कि हमारे किसी पुराने खजाने को रद्दी समझकर ने बेच <span class="">दिया </span><span class="">जाए। </span>इतने में रसीदी भी अपना तराजू और बाट लेकर आ <span class="">गाया। </span>बाट क्या थे आधे तो ईंट पत्थर ही थे पर किसी को रसीदी की इमानदारी पर शक नहीं <span class="">था। </span><span class="">वरना,</span> बाट तो <span class="">क्या,</span> बाकी कबाडी वालों के तो तराजू भी पलटवा-पलटवा कर हम देखते थे (चुम्बक से लेकर डंडी मरने तक के खतरे जो रहते थे)। रसीदी की लोकप्रियता में उसकी ईमानदारी की शायद बड़ी भूमिका थी।<br /><br /><br /><span class="">हम अख़बारों, पत्रिकायों और पुरानी कॉपी-किताबों के बंडल ला-लाकर रखने लगे। </span>भारत में उस समय अखबार ज्ञान बाटने के अतिरिक्त कॉपी-किताबों के <span class="">कवर, </span>अलमारियों ने नीचे बिछाने से लेकर डिस्पोसबल प्लेट तक जाने कितने काम आते थे पर अब इस ऑनलाइन न्यूज़ के ज़माने में क्या होता हैं पता <span class="">नहीं...</span>खैर सारी रद्दी इकठ्ठी करने के बाद हम हर पत्रिका को उलट-पलट कर खजाना ढूँढने में व्यस्त हो गए। माँ ने रसीदी से रद्दी का दाम पूछा तो उसने अंग्रेजी अखबार के इतने और हिन्दी अखबार के <span class="">इतने, </span>मग्जीन के इतने <span class="">बताने </span>शुरू <span class="">किए। </span>जी हाँ उस समय हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों के रद्दी दाम भी अलग होते थे पर भाषा से ज्यादा अखबारी कागज़ <span class="">के </span><span class="">कारण </span>ऐसा होता था।<br /><br /><span class=""></span><br />थोडी देर में हमे अहसास हुआ <span class="">कि </span>रसीदी भी हर अखबार<span class=""> की </span>तह खोल-खोलकर देख रहा हैं। धोबी के जेब झाड़-झाड़ कर देखने से तो हम परिचित थे किंतु रद्दी वाला अखबार खाद-झाड़ कर देखे बड़ा अटपटा <span class="">लगा। जिस तरह हम अपना खजाना ढूंढ रहे थे उसी तरह उसे अख़बारों को पलटता देख वो हमे नकलची-बन्दर से कम न लगा...ऐसा लगा की वो हमारी विद्वता को चुनौती दे रहा हो। उमने डपटकर पूछा - "अबे रसीदी क्या कर रहा हैं..मेरी नक़ल उतारता हैं? रसीदी ने बड़े आश्चर्य से मेरी तरह देखा और कहा -"नहीं भइया जी हम काहे आपकी निकल उतारेंगे?" फ़िर हलकी सी खिसयानी हँसी के साथ बोला "हीं... हीं... हीं... मजाक कर रहे हैं न..." मैंने कहा "नहीं बे, तो अखबार में क्या ढूंढ रहा हैं पलट पलट कर....." हमारे प्रश्न के उत्तर देने से पहले उसने गंभीरता का एक ऐसा आवरण ओढ लिया की मानों हमे किसी वैदिक मीमांसा का भेद पूछ लिया हो। बड़ी गंभीरता से साथ उसने कहना शुरू किया - "भइया जी, हम देख रहे हैं की अख़बारों के बीच कोई फालतू के कागज़ तो नहीं घुसा-घुसा कर रहें हैं, लोग-बाग़ अख़बारों में कागज़ के टुकडे डाल देते हैं..." मैंने क्रोध से डांटते हुए कहा की "साले हमे चोर समझता हैं..." इस पर वो थोड़ा झेपते हुए बोला की "नहीं भइया पर जब (रद्दी की) गड्डी में और कागज़ होते हैं तो हम तो ज्यादा पैसा दे जाते हैं पर सेठ हमे बेकार रद्दी कहकर पैसा काट लेता हैं और बेईमान कहकर मारता भी हैं। उसने कल भी हमको इसी कारण पीटा"। उसकी बात सुन कर हम से कुछ कहा नहीं गया। हमने उसके अख़बारों का तह दर तह परीक्षण करने दिया लेकिन फ़िर हमारा मन उदिग्न हो उठा की इस तरह से इतने छोटे बच्चे के साथ कौन इस तरह की हरकत कर सकता हैं।<br /><br />आजभी उस घटना को सोचता हूँ तो रसीदी का वही मासूम चेहरा और पिटाई वाली बात याद आ जाती हैं....</span>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-82327865026667912402009-04-09T10:34:00.006-04:002009-04-12T08:31:38.974-04:00प्रधनमंत्री पद के लिए खुली बहस: किनती आवश्यक<p>अभी हाल में ही आडवाणी जी ने मनमोहन सिंह जी को टीवी पर खुली बहस के लिए चुनौती दी थी। वैसे तो इस बहस पर कांग्रेस की तरफ़ से आशानुरूप कोई जवाब नहीं <span class="">आया। </span><span class="">हाँ, </span>दिग्विजय सिंह जी ने इसे सस्ती लोकप्रियता का टोटका करार दिया (<span class=""><a href="http://www.indianexpress.com/news/advanis-debate-idea-was-for-cheap-publicity-digvijay/444677/">देखें</a>)</span> और दूसरी ओर मल्लिका साराभाई ने आडवाणी जी को ही बहस की ललकार <span class="">लगाई (</span><span class=""><a href="http://timesofindia.indiatimes.com/India/I-invite-Advani-for-an-open-debate-Mallika-Sarabhai/articleshow/4367308.cms">देखें</a>) । </span></p><p>संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस में राष्ट्रपति पद हेतु और कनाडा में प्रधानमंत्री पद हेतु इस तरह की बहस की प्रथा हैं। इस तरह की बहस जहाँ सभी प्रतिद्वंदियों को एक मंच पर एक-दुसरे सम्मुख लाकर आमने-सामने विचार रखने, तर्क-वितर्क करने का मौका प्रदान करतें हैं, वहीं जनता को भी अपने नेतृत्व को परखने का अवसर प्रदान करते हैं। </p><p>किसी भी लोकतंत्र में संवाद अत्यन्त आवश्यक हैं। यह संवाद विभिन्न दलों में (अंदरूनी एवं बाह्य), जनता और दलों के बीच निरवरोध चलाना चाहिए। शायद इसीलिए अधिकतर लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रिकारिता और सूचना के अधिकार की सुविधा प्रदान की गई हैं - जिससे एक स्वस्थ संवाद मतदाताओं को उचित जानकारी देकर जागरूक नागरिक बना सकें। (यहाँ ये भी आवश्यक हैं कि इस प्रकार के संवाद अथवा जानकारी सुलभ और सस्ते साधनों से उपलब्ध हो।)</p><p>भारतीय लोकतंत्र जहाँ पर बहुदलीय प्रथा हैं और दल किसी रेडियोधर्मी पदार्थ की तरह नित्य ही विघटित होते रहते हो, वहां दलों के बीच का अन्तर समझ पाना अत्यन्त जटिल हो जाता हैं। एक ही विचारधारा से उत्पन्न दल पुर्णतः विपरीत चरित्र के साथ जनता के समक्ष उतरते हैं , जैसे लोहियावादी समाजवाद से उत्पन्न मुलायम की सपा और लालू की राजद...कांग्रेस ने ही ऐसे नेताओ की फौज तैयार की हैं जो कांग्रसी-जन्म कर कांग्रेस-विरोधी हो गए और एक नए दल की प्रणेता बन गए हैं, ऐसे ही भाजपा से जन्म लेकर कितने ही राष्ट्रवादी/हिंदूवादी दल रक्तबीज की तरह उपजे हैं कहना मुश्किल हैं...व्यक्तिगत स्वार्थ, अपने अहम् , अपनी उपेक्षा और वैचारिक मतभेदों से बहुदलीय व्यवस्था में ऐसे दलों का जन्म भी अपेक्षित हैं किंतु भारत की विविधता से उत्पन्न प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद इस समस्या को और सघन कर देते हैं। </p><p>दलों के बीच अन्तर करने के लिए उनके चुनाव घोषणा-पत्र के अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं होता। भारत में अधिकांश मतदाता अपने पहले से ही तय मापदंडो के कारण इन घोषणापत्रों का संज्ञान भी नहीं लेते, यह मापदंड कुछ भी हो सकते हैं - जातिगत समीकरण, नेतृत्व में अंध-आस्था (न की दल और विचारधारा में), राजनैतिक और तत्कालीन मुद्दों से उदासीनता और मुख्य रूप से अनपढ़ मतदाता। ऐसे में, सभी दल उन्मुक्त रूप से रैलियों, चुनाव-सभाओं और यात्राओं में समर्थकों के श्रवण-सुख के आधार पर मन-लुहावन भाषण देते रहते - चाहे ये भाषण, वादे विरोधाभाषी ही क्यों न हो। चुनाव के दौरान आग भड़काऊ विषय जोकि दल की विचारधारा से विमुख हो क्यों न हो उपयोग किए जातें हैं। </p><p>इन परिस्थितियों में टीवी पर खुली बहस से न केवल मतदाताओं को अपने नेताओ के मुद्दे-दर-मुद्दे विचार और प्रस्तावित नीतियों का ज्ञान प्राप्त होगा बल्कि साथ ही प्रतिद्वंदी नेतृत्व के विचार भी जानने को मिलेंगे। यह भी पता चलेगा की क्या वे नीतिगत अन्तर हैं जो एक दल को दुसरे से, एक नेता को दुसरे से इतर करते हैं। मुझे विश्वास हैं की कई विषयों पर भाजपा और कांग्रेस शायद एक से दिखे और कई मुद्दों पर नेता अपने मतदाताओं के पूर्वाग्रहों से हटकर खड़े मिलेंगे। इस तरह की बहस में भाजपा और कांग्रेस ही नहीं जो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो को आना चाहिए और आतंरिक विषयों से लेकर अन्तराष्ट्रीय संबंधों तक पर चर्चा होनी चाहिए... </p><p>देखने-सुनने का प्रभाव भी केवल पठान के प्रभाव से ज्यादा होता हैं... साथ ही टीवी पर खुली बहस सारे राष्ट्र को व्यापक रूप से, सबसे अल्प मूल्य पर सामान संदेश प्रेषित करेगी। </p><p><span class=""></span></p><p></p>Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-90539726880488940972009-04-04T22:40:00.008-04:002009-04-05T09:42:20.461-04:00मत क्रय : लोकतंत्र की एक और पराजयलोकतंत्र की अपनी श्रेष्ठताओं के बीच कई त्रुटियां भी हैं। जैसेकि संख्या-बल की महत्ता अक्सर ही नैतिक आदर्शों को हाशिये पर धकेल देती हैं। संख्या-बल के ही कारण भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद और (धार्मिक) आस्थावाद के अवसादों से ग्रस्त हैं। इसी संख्या-बल पर अधिपत्य जमाने के लिए राजनीति का न केवल अपराधीकरण हुआ बल्कि उसका व्यवसायी-करण भी हुआ हैं। जाति के समीकरण बैठते हुए अक्सर बाहुबलियों और मफिआओं अथवा धनाढ्यों को चुनाव-क्षेत्र से प्रतिनिधित्व मिल जाता हैं। इस सच को लगभग १४ लोकसभाओं तक हम भुगतते भी रहे। किंतु १५ लोकसभा के चयन की प्रक्रिया के शुरुआत के साथ ही लगभग तीन ऐसी घटनाएँ सामने आई जो हमारी चयन प्रक्रिया के बाजारू रूप को उजागर करती हैं। हमारी अधोपतन की ओर अग्रसर नैतिकता भी परिलक्षित होती हैं। यह घटनाएँ हैं - नेताजी (मुलायम), गोविंदा और अंत में जसवंत सिंह द्वारा खुलेआम धन वितरण की।<br /><br />ऐसे तो भारतीय चुनावों में धन वितरण की घटना कुछ नवीन नहीं हैं। और शायद हमारी संवेदनशीलता भी इतनी कम ही गई हैं कि हम में से अधिकांश लोगों ने इन्हे आम घटना मान कर अनदेखा भी कर दिया हो। सम्भवतः दो कारणों से यह महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं:<br />१> मीडिया के विस्तार के कारण इन घटनाओ का प्रभाव वैश्विक होता हैं और यह भारतीय लोकतंत्र की छवि को धूमिल करतें हैं। पहले ऐसे घपले केवल चुनाव क्षेत्र और आयोग के बीच रह जाते थे आज यह वैश्विक रूप से बहस के मुद्दे हो जाते हैं ( यह अन्य राष्ट्रों के लिए भी सत्य हैं - जैसा ओबामा की रिक्त सीट को लेकर अमेरिका में हुआ)<br />२> सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के हाल में किए <a href="http://ibnlive.in.com/news/cash-for-votes-karnataka-tops-notorious-states-list/87521-37.html">सर्वेक्षण</a> में लगभग सारे भारत में यह मत क्रय के चलन की स्वीकारोक्ति उभर कर आई। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू जैसे शिक्षित राज्य इस सूची में सबसे ऊपर हैं। शहरी क्षेत्र ग्रामीण इलाकों से ऊपर हैं।<br /><br />मुलायम और गोविंदा जी ने तो होली के उपहार कह कर उस धन के वितरण के आरोप से पिंड छुडा लिया जबकि जसवंत जी ने परोपकार और दयालुता का आसरा लिया। इस चुनावी माहौल में और संदिग्ध परिस्थितिओ में दिए गए उपहारों को हमारा निष्पक्षीय चुनाव आयोग अपने राजनैतिक चश्मे से कैसे देखेगा यह तो जग जाहिर हैं...हाल ही में एक बाहुबली के चुनावी अभियान से लौटे मित्र ने बताया की वहां भी शक्ति और धन का खुलम-खुल्ला प्रयोग हो रहा हैं... दैनिक मजदूरों को यह कह कर धन दिया जाता हैं की मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो और यह लो पैसा चुनाव वाले दिन मत देने आने के कारण होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिए ...<br /><br />यह चलन तो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। और प्रबुद्ध नागरिकों के लिए भी ... यदि यह चिंतनशील नागरिक अपने सुविधाग्रस्त जीवन से निकल कर मत प्रयोग के लिए नहीं जायेंगे तो संख्याबल हासिल करने के लिए जाति, धरम और भाषा के अतिरिक्त शक्ति और धन का नंगा खेल यूं ही अनवरत चलता रहेगा....Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-25556290689367467272009-03-31T00:45:00.002-04:002009-04-05T03:23:24.619-04:00अपरिपक्वता की सज़ा...वरुण गाँधी पर रासुका? भारत के चुनावी माहौल में जहाँ वोटों के लिए क्या-क्या नहीं होता ...बाहुबली और माफिया बन्धुओ से भरी संसद में जहाँ आचार संघिता की बात भी मजाक लगती हो, जहाँ चुनाव के दौरान अथवा अन्यत्र भी भारत, भारत के सविधान को राजनैतिक लाभ हेतु नेता गरियाते मिल जायेंगे, जहाँ भारत माँ को गली देकर लोग संसद में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हो, जहाँ कम्युनिस्ट चीन से सहानभूति संसद के दरवाजे की चाभी हो । ऐसे देश में धर्म और जाति ही चुनावी गणित तय करती हो -आग उगलना चुनाव का हथियार होता हैं। लेकिन यह एक मर्यादा के तहत ही होना चाहिए।<br /><span class=""></span><span class=""></span><br />वरुण ने जो किया वो उचित नहीं था। उसकी भात्सना भी की जानी चाहिए । मैंने अपने पिछले चिठ्ठे में लिखा भी था की वरुण के सपनो के भारत की कल्पना भी पाप हैं। पर वरुण के भाषण उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता के साक्ष्य हैं। युवा जोश और वैचारिक दिशाहीनता ही ज्यादा उजागर करतें हैं उनके भाषण...उनके उद्दंड शब्दों के लिए उनकी जेल-यात्रा और चुनाव-आयोग की जांच ही पर्याप्त थी। मैं नहीं समझता था कि पीलीभीत की जनता इतनी रक्त-पिपासु हैं कि जरा से भड़काऊ भाषणों से दंगे कर बैठेगी... वो भी हिंदू जन-मानस...कम से कम राष्ट्र को गृह-युद्ध तक तो नहीं ले जा रहे थे उनके भाषण...(जब हमारे देश में भारत माँ को कुतिया कहने और वंदे मातरम के समर्थन में लोगों का स्वाभिमान नहीं जगता तो ये तो अत्यन्त ही तुच्छ बात थी)। ऐसे में वरुण पर रासुका लगना भी सर्वथा अनुचित हैं... वो भी बहनजी के हाथो जिनके मनुवादी विरोधी भाषण ज्यादा घातक होते थे ....<br /><br />वरुण पर रासुका केवल राजनैतिक हथियार एवं वोट एकत्रिक करने की कोशिश ज्यादा लगती हैं। वरुण के भाषणों की ही तरह उन पर लगी रासुका की घटना भी निंदनीय हैं और भारतीय लोकतंत्र का मखौल उड़ती हैं...Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-41352193086783572592009-03-29T00:11:00.004-04:002009-04-05T03:31:21.931-04:00यह तो मेरे ख्याबों का भारत नहीं...भारतीय लोकतंत्र का महासमर शुरू हो चुका हैं। जिस प्रकार होलिका दहन के पश्चात् होली शुरू हो जाती हैं उसी प्रकार चुनाव आयोग की घोषणा के बाद भारतीय लोकतंत्र में कीचड़ उछाल होली शुरू हो चुकी हैं... परन्तु भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करने के लिए वरुण गाँधी ने जो बयान दिया हैं उसने तो मेरे ह्रदय को ही उदिग्न कर दिया हैं...लखनऊ की सरज़मीन पर गंगा जमुनी तहजीब के बीच अपना शैशव का उदभव और यौवन की तरुणाई देखने वाले इस ह्रदय को एक आघात सा लगा। बरेली में माँ चुन्ना मियाँ के मन्दिर जाती थी (जोकि लक्ष्मी नारायण के मन्दिर के नाम से भी जाना जाता हैं) उस मन्दिर का निर्माण एक मुस्लिम ने कराया था...<br /><br />गाँधी के परिवारवाद से त्रस्त कांग्रेस ने मुझे कभी भी नहीं लुभाया (मेरे पिताजी एवं दादाजी के विचार मुझसे इतर हैं) जातिवाद के घृणित अवसाद से पीड़ित नेताजी और बहनजी का समाजवाद भी मुझे कभी आकर्षक नहीं लगा। इस कारण मेरे जैसे कई राष्ट्रवादियों के लिए भाजपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं हैं । जब वरुण गाँधी और मेनका ने भाजपा का दमन पकड़ा तो थोड़ा अटपटा तो लगा पर मन के किसी कोने ने उसका स्वागत भी किया। वरुण मुझे कतिपय युयुत्सु की तरह लगे जो परिवारवाद के मोह से ग्रस्त कौरवों को छोड़ कर पांडवों से आ मिले हो। पर अभी हाल में वरुण के दिए व्यक्तवों को देखा और सुना (<a href="http://www.in.com/videos/watchvideo-varun-gandhis-antimuslim-speech-2644997.html">http://www.in.com/videos/watchvideo-varun-gandhis-antimuslim-speech-2644997.html</a>) तो मन <span class="">त्राहिमाम्, त्राहिमाम् </span>कर उठा। राजनैतिक लाभ हेतु दाल में नमक जितनी बयानबाजी को तो सैदव से ही देखते आए इस मन को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ की कोई नेता ऐसा कर सकता हैं। इस चुनावी माहौल का ये तीसरा झटका कुछ ज्यादा ही ज़ोर से लगा (बहनजी का मनुवादी प्रेम और नेताजी का कल्याण प्रेम इस चुनाव के पहले दो झटके थे)। उनके इस व्यक्तव से मुझे संजय गाँधी याद आ गए। कहते भी हैं "माई गुन बछ्डू, पिता गुन घोड़। नाही ज्यादा ता थोड़े-थोड"....<br /><br />वरुण के इस बयान की जितनी भी आलोचना की जाए कम हैं। परदेश में लाखों मील की दूरी पर बैठे इस मन में ऐसे भारत की तस्वीर तो नहीं हैं। एक सशक्त शक्तिशाली गौरान्वित भारत की छवि के स्वप्न से साथ जीते इस अप्रवासी मन में वरुण के भारत की कामना भी पाप हैं।<br /><br />अधीर,<br />अप्रवासीSudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5120796008952470570.post-71672612469973536652009-03-21T23:45:00.002-04:002009-04-05T03:33:28.772-04:00मिथुन दा की अपील: एक सार्थक शुरुआतअभी-अभी कुछ देर पहले "डांस इंडिया डांस" की जनता चुनाव के लिए खुली पहली कड़ी देखी। यहाँ हमारे क्षेत्र में केबल पर केवल भारतीय चैनल के नाम पर जी टीवी आता हैं। पिछले कई रियलिटी शो में मैं देखता आया हूँ कि प्रतियोगियों के चयन में क्षेत्रवाद जमकर हावी रहता हैं। और लंबे समय से मैं यह महसूस करता आया था कि चैनल और उसमे मौजूद निर्णायक मंडल भी इस क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करते रहे हैं। जहाँ तक मुझे याद हैं कि "सा रे गा मा पा चैलेन्ज" का पहला २००५ में अखिल भारतीय वोटिंग से लेकर अभी हाल में संपन्न हुए "सा रे गा मा पा २००९" तक और साथ में चाहे वो "रॉक न रोल फॅमिली’ हो या कोई और जन-आदेश वाला कार्यक्रम क्षेत्रवाद के आधार पर अधिकाधिक वोट करा कर "टी आर पी" रेटिंग बढ़ने की कोशिश सदैव ही होती रहती हैं । इसके लिए निर्णायक मंडल हो या प्रतियोगी सभी क्षेत्रीय भाषा में अनुरोध करते हैं या स्वं को एक शहर, राज्य या क्षेत्र का प्रतिनिधि बताते हैं। ऐसे में आज मिथुन चक्रवर्ती जोकि डांस इंडिया डांस के महा गुरु हैं (मुख्य निर्णायक) ने सारे भारत से अपील की हैं कि क्षेत्रवाद को छोड़कर उचित और सही प्रतियोगी का चयन करें। वैस तो मैं कभी भी मिथुन का प्रशंसक नहीं रहा और न ही ये समझता हूँ कि इस अपील से जन मानस पर कुछ फर्क पड़ेगा (जब हम जन प्रतिनिधियों के चयन में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद से ऊपर नहीं उठ पाते तो यह तो प्रतियोगी हैं) फ़िर भी चलो यह एक सही दिशा में उठाया गया एक कदम हैं। मिथुन दा -साधुवाद।Sudhir (सुधीर)http://www.blogger.com/profile/13164970698292132764noreply@blogger.com6