Friday, April 24, 2009

रसीदी

आज घर की सफाई के दौरान जब सारी सर्दियों भर की रद्दी उठा कर बेसमेंट में रखने गया तो अनायास ही उसका ख्याल आ गया। गर्मी के आगमन के साथ ही बाहर पसरी पड़ी बर्फ ने अपने पाँव सुकड़ने शुरू कर दिए थे अतः नयी नवेली कोमल धूप का आनंद लेने जबतक मैं चाय की प्याली के साथ बालकनी पर आकर बैठा मैं पुरी तरह से स्मृतियों के गलियारों ने विचारने लगा था ....

"रद्दी वाला" चिल्लाते हुए वो हमारे मुहल्ले में आता था। बरेली का एक छोटा सा मोहल्ला - बजरिया पूरनमल...चहवाई और कुहाडापीर के बीच फ़सा सा इलाका। शायद वो और भी मुहल्लों में जाता होगा पर इस मुहल्ले में रहने वाले उसके नियमित ग्राहक थे...यूँ तो और भी रद्दी और कबाडीवाले आते थे आर वो अपनी मासूमियत, मृत्भाषी व्यवहार और कम उम्र की वजह से ज्यादा पसंद किया जाता था...उम्र में तो मुझसे भी छोटा रहा होगा १२-१३ बरस का....अपना ठेला धकेलते हुए "रद्दी वाला" चिल्लाते हुए घर-घर जाता था।


आज की तरह उस दिन भी ऐसी ही धूप का छत पर आनंद ले रहा था जब माँ ने नीचे से आवाज लगी कि रद्दी बेचनी हैं, रसीदी को रोको... रसीदी, हाँ रसीदी ही तो नाम था उसका। पता नही कि उसके माँ-बाप ने दिया था या रद्दी का काम करते-करते उसका नाम किसी ने रसीदी रख दिया था। मैंने छत से ही आवाज लगाई -"ओये रसीदी, रसीदी...अबे रुक...घर की रद्दी बेचनी हैं...." उसने नज़र उठाकर देखा और ठेले को हमारी गली में मोड़ दिया।


हम भी नीचे आकर घर भर की रद्दी एकत्रित करने लगे...रद्दी बेचते हुए हम माँ का हाथ बिना पूछे-कहे ही बटाने आ जाया करते थे क्योंकि रद्दी के बीच कितने खजाने मिलते थे, आपको क्या बताएं...और फिर यह चिंता भी रहती थी कि हमारे किसी पुराने खजाने को रद्दी समझकर ने बेच दिया जाए। इतने में रसीदी भी अपना तराजू और बाट लेकर आ गाया। बाट क्या थे आधे तो ईंट पत्थर ही थे पर किसी को रसीदी की इमानदारी पर शक नहीं था। वरना, बाट तो क्या, बाकी कबाडी वालों के तो तराजू भी पलटवा-पलटवा कर हम देखते थे (चुम्बक से लेकर डंडी मरने तक के खतरे जो रहते थे)। रसीदी की लोकप्रियता में उसकी ईमानदारी की शायद बड़ी भूमिका थी।


हम अख़बारों, पत्रिकायों और पुरानी कॉपी-किताबों के बंडल ला-लाकर रखने लगे। भारत में उस समय अखबार ज्ञान बाटने के अतिरिक्त कॉपी-किताबों के कवर, अलमारियों ने नीचे बिछाने से लेकर डिस्पोसबल प्लेट तक जाने कितने काम आते थे पर अब इस ऑनलाइन न्यूज़ के ज़माने में क्या होता हैं पता नहीं...खैर सारी रद्दी इकठ्ठी करने के बाद हम हर पत्रिका को उलट-पलट कर खजाना ढूँढने में व्यस्त हो गए। माँ ने रसीदी से रद्दी का दाम पूछा तो उसने अंग्रेजी अखबार के इतने और हिन्दी अखबार के इतने, मग्जीन के इतने बताने शुरू किए। जी हाँ उस समय हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों के रद्दी दाम भी अलग होते थे पर भाषा से ज्यादा अखबारी कागज़ के कारण ऐसा होता था।


थोडी देर में हमे अहसास हुआ कि रसीदी भी हर अखबार की तह खोल-खोलकर देख रहा हैं। धोबी के जेब झाड़-झाड़ कर देखने से तो हम परिचित थे किंतु रद्दी वाला अखबार खाद-झाड़ कर देखे बड़ा अटपटा लगा। जिस तरह हम अपना खजाना ढूंढ रहे थे उसी तरह उसे अख़बारों को पलटता देख वो हमे नकलची-बन्दर से कम न लगा...ऐसा लगा की वो हमारी विद्वता को चुनौती दे रहा हो। उमने डपटकर पूछा - "अबे रसीदी क्या कर रहा हैं..मेरी नक़ल उतारता हैं? रसीदी ने बड़े आश्चर्य से मेरी तरह देखा और कहा -"नहीं भइया जी हम काहे आपकी निकल उतारेंगे?" फ़िर हलकी सी खिसयानी हँसी के साथ बोला "हीं... हीं... हीं... मजाक कर रहे हैं न..." मैंने कहा "नहीं बे, तो अखबार में क्या ढूंढ रहा हैं पलट पलट कर....." हमारे प्रश्न के उत्तर देने से पहले उसने गंभीरता का एक ऐसा आवरण ओढ लिया की मानों हमे किसी वैदिक मीमांसा का भेद पूछ लिया हो। बड़ी गंभीरता से साथ उसने कहना शुरू किया - "भइया जी, हम देख रहे हैं की अख़बारों के बीच कोई फालतू के कागज़ तो नहीं घुसा-घुसा कर रहें हैं, लोग-बाग़ अख़बारों में कागज़ के टुकडे डाल देते हैं..." मैंने क्रोध से डांटते हुए कहा की "साले हमे चोर समझता हैं..." इस पर वो थोड़ा झेपते हुए बोला की "नहीं भइया पर जब (रद्दी की) गड्डी में और कागज़ होते हैं तो हम तो ज्यादा पैसा दे जाते हैं पर सेठ हमे बेकार रद्दी कहकर पैसा काट लेता हैं और बेईमान कहकर मारता भी हैं। उसने कल भी हमको इसी कारण पीटा"। उसकी बात सुन कर हम से कुछ कहा नहीं गया। हमने उसके अख़बारों का तह दर तह परीक्षण करने दिया लेकिन फ़िर हमारा मन उदिग्न हो उठा की इस तरह से इतने छोटे बच्चे के साथ कौन इस तरह की हरकत कर सकता हैं।

आजभी उस घटना को सोचता हूँ तो रसीदी का वही मासूम चेहरा और पिटाई वाली बात याद आ जाती हैं....

Thursday, April 9, 2009

प्रधनमंत्री पद के लिए खुली बहस: किनती आवश्यक

अभी हाल में ही आडवाणी जी ने मनमोहन सिंह जी को टीवी पर खुली बहस के लिए चुनौती दी थी। वैसे तो इस बहस पर कांग्रेस की तरफ़ से आशानुरूप कोई जवाब नहीं आया। हाँ, दिग्विजय सिंह जी ने इसे सस्ती लोकप्रियता का टोटका करार दिया (देखें) और दूसरी ओर मल्लिका साराभाई ने आडवाणी जी को ही बहस की ललकार लगाई (देखें) ।

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस में राष्ट्रपति पद हेतु और कनाडा में प्रधानमंत्री पद हेतु इस तरह की बहस की प्रथा हैं। इस तरह की बहस जहाँ सभी प्रतिद्वंदियों को एक मंच पर एक-दुसरे सम्मुख लाकर आमने-सामने विचार रखने, तर्क-वितर्क करने का मौका प्रदान करतें हैं, वहीं जनता को भी अपने नेतृत्व को परखने का अवसर प्रदान करते हैं।

किसी भी लोकतंत्र में संवाद अत्यन्त आवश्यक हैं। यह संवाद विभिन्न दलों में (अंदरूनी एवं बाह्य), जनता और दलों के बीच निरवरोध चलाना चाहिए। शायद इसीलिए अधिकतर लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रिकारिता और सूचना के अधिकार की सुविधा प्रदान की गई हैं - जिससे एक स्वस्थ संवाद मतदाताओं को उचित जानकारी देकर जागरूक नागरिक बना सकें। (यहाँ ये भी आवश्यक हैं कि इस प्रकार के संवाद अथवा जानकारी सुलभ और सस्ते साधनों से उपलब्ध हो।)

भारतीय लोकतंत्र जहाँ पर बहुदलीय प्रथा हैं और दल किसी रेडियोधर्मी पदार्थ की तरह नित्य ही विघटित होते रहते हो, वहां दलों के बीच का अन्तर समझ पाना अत्यन्त जटिल हो जाता हैं। एक ही विचारधारा से उत्पन्न दल पुर्णतः विपरीत चरित्र के साथ जनता के समक्ष उतरते हैं , जैसे लोहियावादी समाजवाद से उत्पन्न मुलायम की सपा और लालू की राजद...कांग्रेस ने ही ऐसे नेताओ की फौज तैयार की हैं जो कांग्रसी-जन्म कर कांग्रेस-विरोधी हो गए और एक नए दल की प्रणेता बन गए हैं, ऐसे ही भाजपा से जन्म लेकर कितने ही राष्ट्रवादी/हिंदूवादी दल रक्तबीज की तरह उपजे हैं कहना मुश्किल हैं...व्यक्तिगत स्वार्थ, अपने अहम् , अपनी उपेक्षा और वैचारिक मतभेदों से बहुदलीय व्यवस्था में ऐसे दलों का जन्म भी अपेक्षित हैं किंतु भारत की विविधता से उत्पन्न प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद इस समस्या को और सघन कर देते हैं।

दलों के बीच अन्तर करने के लिए उनके चुनाव घोषणा-पत्र के अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं होता। भारत में अधिकांश मतदाता अपने पहले से ही तय मापदंडो के कारण इन घोषणापत्रों का संज्ञान भी नहीं लेते, यह मापदंड कुछ भी हो सकते हैं - जातिगत समीकरण, नेतृत्व में अंध-आस्था (न की दल और विचारधारा में), राजनैतिक और तत्कालीन मुद्दों से उदासीनता और मुख्य रूप से अनपढ़ मतदाता। ऐसे में, सभी दल उन्मुक्त रूप से रैलियों, चुनाव-सभाओं और यात्राओं में समर्थकों के श्रवण-सुख के आधार पर मन-लुहावन भाषण देते रहते - चाहे ये भाषण, वादे विरोधाभाषी ही क्यों न हो। चुनाव के दौरान आग भड़काऊ विषय जोकि दल की विचारधारा से विमुख हो क्यों न हो उपयोग किए जातें हैं।

इन परिस्थितियों में टीवी पर खुली बहस से न केवल मतदाताओं को अपने नेताओ के मुद्दे-दर-मुद्दे विचार और प्रस्तावित नीतियों का ज्ञान प्राप्त होगा बल्कि साथ ही प्रतिद्वंदी नेतृत्व के विचार भी जानने को मिलेंगे। यह भी पता चलेगा की क्या वे नीतिगत अन्तर हैं जो एक दल को दुसरे से, एक नेता को दुसरे से इतर करते हैं। मुझे विश्वास हैं की कई विषयों पर भाजपा और कांग्रेस शायद एक से दिखे और कई मुद्दों पर नेता अपने मतदाताओं के पूर्वाग्रहों से हटकर खड़े मिलेंगे। इस तरह की बहस में भाजपा और कांग्रेस ही नहीं जो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो को आना चाहिए और आतंरिक विषयों से लेकर अन्तराष्ट्रीय संबंधों तक पर चर्चा होनी चाहिए...

देखने-सुनने का प्रभाव भी केवल पठान के प्रभाव से ज्यादा होता हैं... साथ ही टीवी पर खुली बहस सारे राष्ट्र को व्यापक रूप से, सबसे अल्प मूल्य पर सामान संदेश प्रेषित करेगी।

Saturday, April 4, 2009

मत क्रय : लोकतंत्र की एक और पराजय

लोकतंत्र की अपनी श्रेष्ठताओं के बीच कई त्रुटियां भी हैं। जैसेकि संख्या-बल की महत्ता अक्सर ही नैतिक आदर्शों को हाशिये पर धकेल देती हैं। संख्या-बल के ही कारण भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद और (धार्मिक) आस्थावाद के अवसादों से ग्रस्त हैं। इसी संख्या-बल पर अधिपत्य जमाने के लिए राजनीति का न केवल अपराधीकरण हुआ बल्कि उसका व्यवसायी-करण भी हुआ हैं। जाति के समीकरण बैठते हुए अक्सर बाहुबलियों और मफिआओं अथवा धनाढ्यों को चुनाव-क्षेत्र से प्रतिनिधित्व मिल जाता हैं। इस सच को लगभग १४ लोकसभाओं तक हम भुगतते भी रहे। किंतु १५ लोकसभा के चयन की प्रक्रिया के शुरुआत के साथ ही लगभग तीन ऐसी घटनाएँ सामने आई जो हमारी चयन प्रक्रिया के बाजारू रूप को उजागर करती हैं। हमारी अधोपतन की ओर अग्रसर नैतिकता भी परिलक्षित होती हैं। यह घटनाएँ हैं - नेताजी (मुलायम), गोविंदा और अंत में जसवंत सिंह द्वारा खुलेआम धन वितरण की।

ऐसे तो भारतीय चुनावों में धन वितरण की घटना कुछ नवीन नहीं हैं। और शायद हमारी संवेदनशीलता भी इतनी कम ही गई हैं कि हम में से अधिकांश लोगों ने इन्हे आम घटना मान कर अनदेखा भी कर दिया हो। सम्भवतः दो कारणों से यह महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं:
१> मीडिया के विस्तार के कारण इन घटनाओ का प्रभाव वैश्विक होता हैं और यह भारतीय लोकतंत्र की छवि को धूमिल करतें हैं। पहले ऐसे घपले केवल चुनाव क्षेत्र और आयोग के बीच रह जाते थे आज यह वैश्विक रूप से बहस के मुद्दे हो जाते हैं ( यह अन्य राष्ट्रों के लिए भी सत्य हैं - जैसा ओबामा की रिक्त सीट को लेकर अमेरिका में हुआ)
२> सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के हाल में किए सर्वेक्षण में लगभग सारे भारत में यह मत क्रय के चलन की स्वीकारोक्ति उभर कर आई। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू जैसे शिक्षित राज्य इस सूची में सबसे ऊपर हैं। शहरी क्षेत्र ग्रामीण इलाकों से ऊपर हैं।

मुलायम और गोविंदा जी ने तो होली के उपहार कह कर उस धन के वितरण के आरोप से पिंड छुडा लिया जबकि जसवंत जी ने परोपकार और दयालुता का आसरा लिया। इस चुनावी माहौल में और संदिग्ध परिस्थितिओ में दिए गए उपहारों को हमारा निष्पक्षीय चुनाव आयोग अपने राजनैतिक चश्मे से कैसे देखेगा यह तो जग जाहिर हैं...हाल ही में एक बाहुबली के चुनावी अभियान से लौटे मित्र ने बताया की वहां भी शक्ति और धन का खुलम-खुल्ला प्रयोग हो रहा हैं... दैनिक मजदूरों को यह कह कर धन दिया जाता हैं की मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो और यह लो पैसा चुनाव वाले दिन मत देने आने के कारण होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिए ...

यह चलन तो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। और प्रबुद्ध नागरिकों के लिए भी ... यदि यह चिंतनशील नागरिक अपने सुविधाग्रस्त जीवन से निकल कर मत प्रयोग के लिए नहीं जायेंगे तो संख्याबल हासिल करने के लिए जाति, धरम और भाषा के अतिरिक्त शक्ति और धन का नंगा खेल यूं ही अनवरत चलता रहेगा....
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