Saturday, April 4, 2009

मत क्रय : लोकतंत्र की एक और पराजय

लोकतंत्र की अपनी श्रेष्ठताओं के बीच कई त्रुटियां भी हैं। जैसेकि संख्या-बल की महत्ता अक्सर ही नैतिक आदर्शों को हाशिये पर धकेल देती हैं। संख्या-बल के ही कारण भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद और (धार्मिक) आस्थावाद के अवसादों से ग्रस्त हैं। इसी संख्या-बल पर अधिपत्य जमाने के लिए राजनीति का न केवल अपराधीकरण हुआ बल्कि उसका व्यवसायी-करण भी हुआ हैं। जाति के समीकरण बैठते हुए अक्सर बाहुबलियों और मफिआओं अथवा धनाढ्यों को चुनाव-क्षेत्र से प्रतिनिधित्व मिल जाता हैं। इस सच को लगभग १४ लोकसभाओं तक हम भुगतते भी रहे। किंतु १५ लोकसभा के चयन की प्रक्रिया के शुरुआत के साथ ही लगभग तीन ऐसी घटनाएँ सामने आई जो हमारी चयन प्रक्रिया के बाजारू रूप को उजागर करती हैं। हमारी अधोपतन की ओर अग्रसर नैतिकता भी परिलक्षित होती हैं। यह घटनाएँ हैं - नेताजी (मुलायम), गोविंदा और अंत में जसवंत सिंह द्वारा खुलेआम धन वितरण की।

ऐसे तो भारतीय चुनावों में धन वितरण की घटना कुछ नवीन नहीं हैं। और शायद हमारी संवेदनशीलता भी इतनी कम ही गई हैं कि हम में से अधिकांश लोगों ने इन्हे आम घटना मान कर अनदेखा भी कर दिया हो। सम्भवतः दो कारणों से यह महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं:
१> मीडिया के विस्तार के कारण इन घटनाओ का प्रभाव वैश्विक होता हैं और यह भारतीय लोकतंत्र की छवि को धूमिल करतें हैं। पहले ऐसे घपले केवल चुनाव क्षेत्र और आयोग के बीच रह जाते थे आज यह वैश्विक रूप से बहस के मुद्दे हो जाते हैं ( यह अन्य राष्ट्रों के लिए भी सत्य हैं - जैसा ओबामा की रिक्त सीट को लेकर अमेरिका में हुआ)
२> सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के हाल में किए सर्वेक्षण में लगभग सारे भारत में यह मत क्रय के चलन की स्वीकारोक्ति उभर कर आई। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू जैसे शिक्षित राज्य इस सूची में सबसे ऊपर हैं। शहरी क्षेत्र ग्रामीण इलाकों से ऊपर हैं।

मुलायम और गोविंदा जी ने तो होली के उपहार कह कर उस धन के वितरण के आरोप से पिंड छुडा लिया जबकि जसवंत जी ने परोपकार और दयालुता का आसरा लिया। इस चुनावी माहौल में और संदिग्ध परिस्थितिओ में दिए गए उपहारों को हमारा निष्पक्षीय चुनाव आयोग अपने राजनैतिक चश्मे से कैसे देखेगा यह तो जग जाहिर हैं...हाल ही में एक बाहुबली के चुनावी अभियान से लौटे मित्र ने बताया की वहां भी शक्ति और धन का खुलम-खुल्ला प्रयोग हो रहा हैं... दैनिक मजदूरों को यह कह कर धन दिया जाता हैं की मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो और यह लो पैसा चुनाव वाले दिन मत देने आने के कारण होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिए ...

यह चलन तो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। और प्रबुद्ध नागरिकों के लिए भी ... यदि यह चिंतनशील नागरिक अपने सुविधाग्रस्त जीवन से निकल कर मत प्रयोग के लिए नहीं जायेंगे तो संख्याबल हासिल करने के लिए जाति, धरम और भाषा के अतिरिक्त शक्ति और धन का नंगा खेल यूं ही अनवरत चलता रहेगा....

1 comment:

not needed said...

सुधीर जी: सच कहूं तो मैं तो यही मानता था कि वोटरों में धन वितरण अन्पड, बाहुबली नेता ही करतें होंगे, लेकिन गोविंदा तथा जसवंत सिंह का किस्सा देख यह भ्रम टूटा है. आपने यह भी ठीक कहा कि आम पब्लिक कि संवदेना भी मर चुकी है क्या? सख्त कानूनी सजा , चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध एवं आम जागरूकता ही इस समस्या को कम कर सकतें हैं. कुल मिला कर लम्बी लडाई के लिए भारतीय लोगों को तैयार होना होगा जनतंत्र को पटरी पर लाने के लिए.

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