Friday, July 17, 2009

दीनानाथ

उम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढती हुई एक काया, जिसके बाल, शरीर और चहरे की झुरियां नून-रोटी की रोज-रोंज की जदोजहद की कहानी अपने आप बयाँ करते हैं। उसके चहरे पर के झूठी खुशामद करती हुई मुस्कान हमेशा कुछ यूँ चस्पा रहती कि उसकी आँखों की ज़ुबानी अपने फरेबीपन को ठीक से छुपा भी नहीं पाती। ऐसी ही एक झूठी मुस्कान के साथ उसकी मेरी मुलाकात हुई थी...


बात लगभग चार-पॉँच साल पहले की हैं, मैं अमेरिका से भारत गया हुआ था। मुझे सदैव ही यह बात सताती रही की मैंने चंद दिनों के प्रवास में जितना अमेरिकी भूमि का पर्यटन किया हैं उसका अंश मात्र भी भारत दर्शन नहीं किया हैं। अतः पिछली कई यात्राओं में मैं एक-दो सप्ताह भारत भ्रमण के लिए भी आरक्षित रखता हूँ। हाँ कुछ रिश्तेदारों से जल्दबाजी मैं मिलना पड़ता हैं पर फ़िर मैं माँ-बापू को साथ लेकर कुछ एकांत के परिवारिक क्षण भी बिता पता हूँ। इसी क्रम में मैं पिछली यात्रा में भरतपुर और साथ ही के दुर्ग क्षेत्र की यात्रा पर था। मेरे एक मौसेरे भाई जो आई पी एस हैं भी उसी क्षेत्र में थे - उन्होंने भी साथ घूमने का निर्णय लिया। वहीं जब उनके साथ गेस्ट हाउस पहुँचा तब दीनानाथ से मुलाकात हुई। एक पुलिस का सिपाही जिसे इलाके के क्षेत्राधिकारी ने हमारे भाई साहब और उनके साथ पहुँची हम रिश्तेदारों की सेवा के लिए भेजा था। उसी झूठी मुस्कान के साथ भाई-साहब को उसने सलाम बजाया और फिर धीरे- से सब घरवालों को शिष्टाचारवश नमस्ते करने के उपरांत उसने समान की और नज़र दौडाई और अपने साथी से साथ सारा सामान उठाकर हम सबके कमरे में ले गया।

अगले दिन सुबह से ही वो हमें सारा इलाका घुमाने ले गया। सरकारी गाड़ियों और किराये के टैक्सी में हमारा काफिला चला। बीच में भी भाई साहब से पता चला कि दीनानाथ पंडित हैं और इसी गुण के कारण क्षेत्राधिकारी ने विशेष रूप से हमारे (ब्राह्मण) भाई के लिए चयन किया हैं... (जातिवादी भूत ऊप्र से राजस्थान तक पीछा नहीं छोड़ता)। तीन दिनों की यात्रा के दौरान पानी से खाने तक सभी चीजों में दीनानाथ हमारा ख्याल रखे हुए था... सबसे ज्यादा तो मुझे और मेरी पत्नी को आराम था क्योंकि हमारी ३ वर्षीया पुत्री को वो हर जगह घूमा रहा था... वो यदि थक जाए तो हमारे लाख मन करने पर भी उसे गोदी में उठा लेता था॥ अमेरिका में रहते हुए ऐसी मानवीय सेवा और सुविधा के हम तो आदी नही रह गए थें.... उस पर गोदी के लिए तो सोचना भी असंभव था... स्ट्रोलर के आलावा गोदी वो भी पुरे पुरे दिन के लिए तो पिता होकर भी मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात थी पर दीनानाथ ने पूरी तन्मयता से हमारी बेटी को तीन दिनों तक तनिक भी थकान के अंदेशे से गोदी के सवारी कराई...इन्ही दिनों बातचीत से पता चला कि उसकी सेवानिवृति को एक वर्ष हैं और गाँव में तीन बेटिया हैं ... एक अभी भी विवाह के लिए बैठी हैं, उम्र अधिक हो गई हैं.... कुछ ऊपर की कमाई और वेतन से मिलकर जैसे तैसे काम चल जाता । तीनो दिन हमसे ज्यादा दौड़ भाग दीनानाथ ने ही की होगी।

खैर जैसे-तैसे जब हम चौथे दिन प्रातः जाने को हुए तो मैंने अपनी पत्नी को कहा कि दीनानाथ ने इतने दिनों तक हमारी सेवा की हैं (और साथ ही मुझे लगा कि वह गरीब भी हैं) तो कुछ बख्शीस दे देना ....चलने से पूर्व जब भाई साहब अपनी सरकारी गाड़ी पर चढ़ने को हुए तो दीनानाथ ने झपट कर उनका चरण-स्पर्श किया...भाई-साहब ने भी किसी राजा महराजा की तरह अभय मुद्रा बनते हुए आशीष दे डाला...उसके बाद जब वो हमारी गाड़ी की तरफ़ बढे तो हमारी पत्नी से ५०० के २ नोटों को मोड़ कर उन्हें देना चाहा। दीनानाथ ने इनकार करते हुए कहा क्या कर रहीं हैं मैडम....हम तो आपके बच्चों की तरह हैं आर्शीवाद दीजिये...इतना कहते हुए उन्होंने मेरे और मेरे पत्नी के चरण छू लिए .... हम दोनों ही हतप्रद, किंकर्तव्यविमूढ खड़े उनका मुख देखते रह गए.....मन ने क्रंदन किया ये क्या हैं ये तो हमारे पिता की उम्र के हैं...हम इनके बच्चे हुए पर यहाँ तो यह स्वं को हमारे बच्चो की तरह कह रहें हैं और हमारे चरण स्पर्श कर रहें हैं ....क्या यह सामंती व्यवस्था के अवशेष हैं जो आज भी उस पुलिस विभाग में चले आ रहे हैं जिसको यह सुनिश्चित करना हैं कि सामंती शोषण न हो....बड़ी मुश्किल से हमने अपने रुतबे की दुहाई देते हुए और यह विश्वास दिलाते हुए कि भाई-साहब को कुछ पता नहीं चलेगा - उनको वो पैसे पकडाये।

किन्तु उस घटना और दीनानाथ ने मेरे मानस पटल पर कभी भी क्षीण न पड़ने वाली छाप छोड़ डाली हैं...आज भी उस घटना का बोध न केवल मेरे रोंगटे खड़े कर देता हैं बल्कि मन को क्षोभ से भी भर देता हैं...

Friday, July 10, 2009

हिंदू भावनाओ का तिरस्कार क्यों करती हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ

अभी हाल में ही स्पेन में बर्गर किंग ने माँ लक्ष्मी के साथ अपने गौ-मांस युक्त बर्गर 'Texican Whopper' का प्रचार शुरू किया (देखें)। इस बर्गर को माँ लक्ष्मी के साथ दिखाकर टैग लाइन थी - पवित्र स्नैक। हिंदू के व्यापक विरोध के बाद ये प्रचार सामग्री आनन-फानन हटा ली गयी पर मेरी समझ में ये नहीं आता की बर्गर किंग जैसी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में व्यापक पैठ रखने वाली कंपनी -दुनिया के लगभग १५ प्रतिशत जनसँख्या की उपेक्षा कैसे कर सकती हैं। क्या यह हिंदू सहिष्णुता का परिणाम हैं? अक्सर ही इस तरह की अनदेखी क्यों होती हैं चाहे वो मक डॉनल्डस के फ्रेंच फ्राईस हो या बर्गर किंग की प्रचार सामग्री ....अभी हाल में कुछ जूतों पर हिंदू देवी-देवताओ की तस्वीरें छाप दी गई थीं तो कुछ दिनों पूर्व लन्दन में एक जूता बनानेवाली कंपनी ने अपने मॉडल का नामकरण 'विष्णु' और कृष्ण कर दिया था...

धार्मिक सहिष्णुता का मतलब निरंतर धार्मिक अवमानना या अपमान तो नहीं होना चाहिए। मैं जनता हूँ कि बहुत से प्रबुद्ध पाठक हिंदू उग्रवाद की बात करेंगे ("क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ") किंतु मेरी समझ से एक तरफा उग्रवाद और उन्माद से यह सिलसिला बंद नहीं होने वाला हैं.... हिंदू भावनाओ के प्रति पश्चिमी जगत, विशेष कर कारपोरेट जगत की संवेदनशीलता किस प्रकार जागृत की जा सकती हैं, यह हमारे समाज के सामने एक बड़ी चुनौती हैं....

Wednesday, July 8, 2009

ज़रदारी की स्वीकारोक्ति: पाकिस्तान का भस्मासुर

आज 'टाइम ऑफ़ इंडिया' की वेबसाइट पर यह ख़बर ("Pak created and nurtured terrorists: Zardari") पढ़ते-पढ़ते मैं ठिठक गया। न तो इस ख़बर में कोई नई बात, न ही कुछ नवीन जानकारी। फ़िर भी जिस बात ने मुझे चौकाया वो थी पाक राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकारोक्ति। उनके अनुसार क्षणिक लाभ के लिए किए गए पकिस्तान के इस प्रयास की विफलता....सर्वविदित हैं कि यह क्षणिक लाभ तो भारत के अहित के आलावा कुछ भी नहीं हैं...

पकिस्तान ने जो कट्टरपंथियों की जमात तैयार की हैं वो न तो पाकिस्तान कि ही सगी हैं न भारत की। एक पूरी पीढी के ज्ञान-चक्षु बंद करके हो नेत्रहीनों की तालिबानी सेना तैयार की हैं उनसे अब सही दिशा में जाने की उम्मीद भी बेकार हैं। जरदारी के शब्दों में - वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की घटना से पूर्व यह वर्ग पाकिस्तानी समाज के सम्मानित नायक थे किंतु तत्पश्चात ये सिर्फ़ खलनायक रह गए...और आज का इनका बढ़ा हुआ स्वरुप पाकिस्तानी तंत्र की विफलता नहीं हैं क्योंकि उसीने तो वर्षों इस व्यवस्था को पला और पनपने दिया हैं.... हाय रे! भोलापन... सत्य से साक्षत्कार - भस्मासुर ने सर पर हाथ रखने की इच्छा प्रकट की तब ही पता चला हम ने क्या कर डाला...

काँटों के बेल को सालों पनपाया कि पडोसी के दरवाजे पर छोड़ आयेंगे आज घर के ही लोंगों को कांटे चुभ रहे हैं तब समझ में आया कि क्या कर डाला। कश्मीर की आजादी के नाम पार पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस तक कितने मदरसे समाज-विरोधी विष उगल रहे हैं (देखें) , जिस प्रकार अभी भी प्रतिदिन सीमा पार घुसपेठ के प्रयास होते हैं, जिस प्रकार दाऊद को संरक्षण प्राप्त हैं उससे तो लगता नहीं कि पाक ने अभी भी कुछ सबक लिया हैं। फ़िर भी यदि इस स्वीकारोक्ति को एक अच्छी पहल माना जा सकता हैं (या अपरिपक्व राजनेता की निशानी - जो ज़रदारी के लिए उचित नहीं हैं)

Sunday, July 5, 2009

ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी... की चौपाई अप्रवासी की दृष्टि से

अभी कुछ दिनों पूर्व 'बालसुब्रमण्यम जी' के चिठ्ठे को पढ़ रहा था। उन्होंने तुलसीदास के हिन्दी भक्तिकाल को योगदान के विषय में लिखा हैं। तुलसीदास मेरे भी प्रिय रचनाकारों में से हैं। तुलसी राम चरित मानस के साथ ही हम बड़े हुयें हैं। मुझे अपने दादाजी याद आते हैं जिनके पास हर विषय के लिए एक तुलसी की चौपाई या दोहा हुआ करता था। उनके ही सानिध्य और अपने पिता जी के अनुकरण से हर शनिवार सुंदरकांड पढने की भी आदत हो गई हैं। वैसे भी घर पर कुछ भी शुभ हो तुलसी की रामायण तो रखी ही जाती हैं। तुलसी के प्रति मेरा आकर्षण न केवल उनकी सहज भाषा के कारण हैं बल्कि बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड की कई चौपाईयों में जिंदगी का फलसफा मिलता हैं जोकि जितना भक्तिकाल काल में प्रासंगिक था उतना ही आज के वातावरण में....


तुलसी के आलोचक अक्सर उनके नारी विरोधी वर्णन के कारण उन्हें आरोपित करते रहें हैं। इस प्रसंग में मुख्यतः सुन्दरकाण्ड की यह चौपाई उद्दारित की जाती हैं "ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।"। वे तुलसी जिन्हें सारे जग में अपने प्रभु का रूप दीखता हैं - निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोधा , जिनकी रचना में हर पात्र मर्यादा में इतना रचा-बसा हैं कि पर-स्त्री का मान माता के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं...रावण जैसा रक्ष-संस्कृति का प्रणेता भी अपनी भार्या के बिना सीता से मिलने नहीं जाता हैं, अपनी बंदिनी सीता को काल-कोठरी की जगह अशोक (जहाँ शोक ही न व्याप्त हो) वाटिका में रखता हैं। उसका मत नारी को मार-पीट के योग्य मान ही नहीं सकता। इसी प्रकार जहाँ शबरी का झूठा भी बिना भेदभाव के प्रभु प्रेम से खाते हैं, निषाद को मित्रवत गले लगाते हैं वहां शूद्रों को भी मारने पीटने के योग्य कैसे माना जा सकता हैं?


अधिकांशतः तुलसी प्रेमी इस चौपाई के आधार पर तुलसी को नारी-विरोधी नहीं मानते. कुछ तो इस चौपाई को तुलसी कृत मानते ही नहीं...बालसुब्रमण्यम जी ने भी इस चौपाई को प्रक्षिप्त माना हैं। इस निबंध को पढने के बाद मैंने कई अन्य चिठ्ठों पर भी इस चौपाई का विश्लेषण देखा और पाया कि विभिन्न बुद्धिजीवी इस चौपाई के विषय में विविध मत रखते हैं किंतु कोई भी इस चौपाई से तुलसी की महत्ता को कम नहीं आंकता। बालसुब्रमण्यम जी के अतिरिक्त फ़ुरसतिया जी भी इस चौपाई को स्वं सागर के द्वारा कथित वचन मान राम और तुलसी को इस व्यक्तव के आरोप से मुक्त करते हैं (देखें)। इसी प्रकार रंजना सिंह जी कई प्रकरणों में नारी उत्थान और शूद्र प्रेम के उदाहरण के स्थान पर आलोचकों द्वारा केवल एक चौपाई पर तुलसी को नारी विरोधी मानने पर आपत्ति रखती हैं। साथ ही उन्होंने तुलसी के "ताड़ना" शब्द को 'नियंत्रण' के स्थान पर उपयुक्त बताया हैं (देखें)। इसी प्रकार एक अन्य वरिष्ठ चिठ्ठाकार "लक्ष्मीनारायण गुप्त" सागर के वचनों का राम के मूक समर्थन के कारण राम और तुलसी को नारी विरोधी आरोप से मुक्त तो नहीं करते किंतु वाल्मीकि रामायण के अंश देकर ये अवश्य कहते हैं कि अन्य रचनाओ में नारी विरोधी होने के उद्धरण नही हैं। इस प्रकार एक अन्य चिठ्ठे में ऋषभ जी के अनुसार तुलसी जी केवल तीन श्रणियों के बारे में लिखते हैं जैसा कि ढोल , गँवार-सूद्र ,पसु-नारी और ताड़ना का अर्थ डांटने डपटने से हैं। इन सभी ज्ञानवान सहयोगियों के मत का सम्मान करते हुए मैं इस विषय में अपने विचार भी रखना चाहूँगा।


वैसे तो ताड़ना शब्द के अर्थ "मरना" के अतिरिक्त नियंत्रण और डांटना से तो परिभाषित हैं किंतु इस अर्थो के अतिरिक्त ताड़ना का एक और अर्थ हैं -वो हैं पूर्व-अनुमानित करना। भारतीय साहित्य संग्रह की वेब साईट (पुस्तक डॉट ओआरजी ) पर ताड़ना शब्द के कई अर्थों में से एक हैं - "स। [सं.तर्कण या ताड़न] कुछ दूरी पर लोगों की आँखे बचाकर या लुक-छिपकर किये जाते हुए काम को अपने कौशल या बुद्धि-बल से जान ये देख लेना।" जिस सन्दर्भ और घटना जिस में यह उक्ति प्रयुक्त हुई हैं उसमे यह ही अर्थ सटीक बैठता हैं। सागर राम को उनके ईश्वरीय रूप की दुहाई देते हुए कहता हैं कि हे प्रभु आप की ही प्रेरणा से रचित आकाश, वायु, अग्नि, जल और धरती सभी जड़ता के (अवगुण) से ग्रसित हैं। इस विषय में सभी ग्रन्थ भी उनकी जड़ता से बारे में कहते हैं। अतः आप मेरी इस जड़ता को क्षमा करें। इस विषय पर वाल्मीकि भी कुछ ऐसा ही वर्णित करते हैं - "पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव। स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शास्वतं मार्गमाश्रिताः।।तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोहमप्लवः। विकारस्तु भवेद् गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम्।" हे राघव ! धरती, आकाश, वायु, जल और अग्नि अपने शास्वत स्वभाव के आश्रित रहते हैं (अपनी जड़ता को कभी नहीं छोड़ते) ।


तुलसी रचना में, तदुपरांत सागर उलाहना देता हैं कि हे प्रभु आप मुझपर शक्ति प्रयोग कर जो सीख देना चाहते हैं वो तो उचित हैं (क्योकि आप सर्वशक्तिवान प्रभु हो) किंतु मैंने तो जड़वत रहकर आपकी ही मर्यादा निभाई हैं। हे प्रभु आपको भी मेरी जड़वत अवस्था ठीक उसी प्रकार पहले ही जान जानी (ताडनी) चाहिए जिस प्रकार भद्र पुरूष वाद्य-यन्त्र (ढोल), असभ्य (गंवार ), नीच (शूद्र), पशु और नारी को देखकर अपने आचरण को पूर्वानुमानित कर लेते हैं।

जिस प्रकार किसी भी वाद्य-यन्त्र से मिलने से पहले अर्थात उसको बजाने से पहले जाँच परखकर कर उसकी स्थिति भांप (ताड़) लेनी कहिये। इससे उसके साधक को उसे बजाने में उचित सहजता रहेगी। इसी प्रकार जब आप किसी असभ्य (गंवार या प्रचिलित रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ) व्यक्ति से मिलने से पहले उसके हाव-भाव और उसकी मनोदशा को ताड़ लेना चाहिए और उसके अनुसार उससे मिलना चाहिए जिससे एक-दुसरे के प्रति असहजता न हो। इसी क्रम में तुलसीदास कहते हैं किसी भी नीच (या व्यावारिक स्तर पर शूद्र) व्यक्ति से मिलने पर उसके आचरण को ताड़ने (भांपने) का प्रयास करना चाहिए - इस प्रकार के पूर्वानुमानित आचरण से आप उस व्यक्ति से सम्मुख स्वं को बचा पाएंगे (अन्यथा नीच का क्या भरोसा और वो अपने आचरण से कब आपका अपमान या तिरस्कार कर दे)। किसी भी पशु को देखकर उसके व्यवहार का पूर्वानुमान (ताड़ना) अत्यन्त आवश्यक हैं - क्या वो हिंसक, वन-निवासी पशु हैं या पालतू जीव हैं... क्या वो आक्रामक हो सकता हैं (जैसे सिंह) या स्नेहाकांक्षी पशु हो सकता हैं (जैसे श्वान या मृग)। इसके पश्चात तुलसी नारी का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि किसी भी नारी से मिलने से पहले भी उसके व्यवहार और आकांक्षा का पूर्वानुमान (ताड़ना) आवश्यक हैं - जैसे वो स्त्री आपसे क्या अपेक्षा रखती हैं, क्या आपको उससे एकांत में मिलना उचित हैं या नहीं इत्यादि... (विशेष रूप से जब आप यहाँ ताड़ने का अर्थ भांपने से लेते हैं तो ये चौपाई नारी के प्रति आदर्श आचरण का उदाहरण हो जाती हैं जोकि रामायण से चरित्र के अनुरूप हैं)। सागर प्रभु राम से उलाहना देते हुए कहता हैं कि जिस प्रकार इन पॉँच परिस्थितियों में पूर्वानुमान आवश्यक हैं उसी प्रकार आपको मेरी जड़वत प्रकृति (जोकि आपके द्वारा ही रचित हैं) का पूर्वानुमान होना चाहिए था। फ़िर भी हे प्रभु आप मुझपर क्रोध कर रहे हैं.... तदुपरांत सागर नल नील के बारे में वार्ता करता हैं।

सम्भव हैं कि बहुत से प्रबुद्ध जन मेरे मत से सहमत न हो या वे इस चौपाई को नए आयामों में देखें। किंतु वर्तमान मेरे रामायण से अल्प साक्षात्कार से जो मुझे सही लगा और जो रामायण की मर्यादा निष्ठ कथांकन और तुलसी की अन्य आध्यायों में नारी समर्पण और सर्व-वर्ग कल्याण की भावना के अनुरूप लगा उसे मैंने आपके सम्मुख रखने का प्रयास किया हैं। आप इस सन्दर्भ में अपने विचार अवश्य बताएं।

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