Friday, October 9, 2009

करवा-चौथ: एक आपबीती

कुछ भारतीय चलचित्रों और कुछ उत्तर भारतीय परम्पराओं की धरोहर के नाते हमारी वर्तमान पीढी अपनी तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के परिवेश में भी अपनी जड़ों से जुड़े होने की चाह से मुक्त नहीं हो पाती. करवा-चौथ भी एक ऐसा ही दिन है जिस दिन कितने भी प्रगतिशील विचारों के लोग बड़े प्रेम से अपने जीवन साथी के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शन के लिए निर्जलीय उपवास रखते  हैं....वर्ष का एकमात्र  दिन जब हम जैसे बड़े से बड़े पत्नी-भीरु पति भी अपने भाग्य पर इठलाते हैं. हमारी पत्नी जी ने भी यह व्रत हमारे जन्म-जन्मान्तर के साथ हेतु वर्षों से सिद्ध किया है और यह वर्ष भी अपवाद नहीं था.

हर श्रमशील श्रद्धावान पति की तरह हम भी चन्द्र देव की प्रतीक्षा में बार बार छत पर जाकर बादलों में सिमटा आकाश निहार रहे थे. पता नहीं क्यों  अपना भारत हो या अमेरिका, हर चंद्राधारित पर्व पर चन्द्रदेव मानो ठिठुर कर बादलों की चादर ओढ़कर कर कहीं बैठ जाते हैं. जितनी बार हम अपने दांपत्य जीवन में करवा-चौथ के लिए छत पर चढ़े होंगे उतना तो हम अपने पहले प्रेम से मिलने के लिए छत पर न गए होंगे. उधर हमारी  भूखी-प्यासी देवी जी चन्द्रदेव का गुस्सा हम पर निकाल रही थी...(अरे माना हमको अब इतने वर्षों में इसकी आदत पड़ गई हैं पर भइया यह तो सर्वविदित सत्य है कि भूखी-शेरनी घायल-शेरनी से भी अधिक घातक होती है..). अपने वर्षों से घिसे घिसाए किन्तु प्रभावी वाक्यों का भी प्रयोग किया जैसे "तुम्हे चाँद की क्या ज़रुरत, दर्पण निहार लो", या फिर "ठहरो अपने आमुक मित्र (जोकि बालों के मामले में हमारी अंग्रेजी की तरह स्ट्रोंग है) को बुला लेते हैं - तुमको चाँद दिख जायेगा". किन्तु "भूखे भजन न हो गोपाला" वाली तर्ज पर "भूखे क्रोध न मिटे गोपाला" वाले हालत हो रहे थे...

तभी एक जोरदार वक्र-वाक्यास्त्र (सहज भाषा में प्यारा सा ताना) आया - "दिनभर कंप्यूटर पर टिप-टिपाते रहते हो  ज़रा इन्टरनेट पर देखकर चंदोदय का समय नहीं पता कर सकते!! पत्नी का ख्याल हो तो न...तुम्हारे  लिए  सुबह से एक बूँद पानी भी न मिला..." . सुखी दांपत्य जीवन का एक सीधा-साधा सा सिद्धांत है - जिस तरह पत्नी के पूछने पर भी आप उसे मोटी नहीं कह सकते, उसकी खरीदारी पर सवाल नहीं कर सकते उसी प्रकार आप पति को भी उसके आलस्य और नौकरी के लिए ताना नहीं कस सकते, उसकी क्रिकेट (और हमारे केस में चिठ्ठेकारी और कुछ अभिनेत्रियां भी) के प्रेम और समर्पण पर प्रश्न नहीं कर सकते. अपने इस अधिकार क्षेत्र का हनन हमे सहन नहीं हुआ.  इस ताने के आते ही हमारा भी आत्म-गौरव जाग उठा और तन-बदन में आग लग गई....बस फिर क्या था एक समर्पित पति की तरह हमने तुंरत ही इन्टरनेट से अपने शहर के लिए चंद्रोदय के समय को निकाल कर पत्नी को बताया. उस समय चंद्रोदय को बीते हुए २० मिनट से अधिक हो चुका था....

हमने समझाया कि "चाँद निकल गया है, बादलों से दिख नहीं रहा हैं... तुम व्रत खोल लो" ...परन्तु स्वभाव अनुसार हमारी पत्नी जी बिना अपने कष्टों को चरम पर ले जाए किसी भी व्रत को कैसे खोल  सकती थी - मानो अधिक देर प्यासा रहने से प्रभु इस जन्म-जन्मान्तर के आंकडों में एक-दो वर्ष और जोड़ देंगे - उन्होंने ठान ही  लिया कि बिना चन्द्र-दर्शन  के वे जल नहीं ग्रहण करेंगी और यदि न दिखा तो १२ बजे तक प्रतीक्षा करेंगी...  अब बताइए कि घर  में जब छप्पन भोग बने हो तो मन को १२ बजे तक धीर देना किनता कष्टकारी होगा. अतिश्योक्ति के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर विदेश में देसी पक्का खाना वो भी मटर और गोभी की कचौड़ियों के साथ छप्पन भोग ही लगता है.

कचौड़ियों की लालसा के दमन या अपनी भूखी-प्यासी पत्नी के हालत (या हठ)  की खीज से उत्पन्न अपनी हताशा को  समेटे हम भी अपनी चिर-प्रेयसी टीवी देवी का  दामन थामकर सोफे के  आगोश में समां गए . टीवी पर भी करवाचौथ व्रत की ही खबरें आ रही थी..सुषमा स्वराज ने चुनाव प्रचार छोड़कर व्रत किया, आधुनिक जमात के पतियों ने (हम तो पुरातन ठहरे)  पत्नियों  के  साथ निराजल व्रत रखा, और कहीं-कहीं प्रगतिशील प्रेमियों और मंगेतरों ने भी अपने संभावित जीवन-साथी की दीर्घायु के लिए निराजल उपवास किया. समाचारों के गिरते स्तर पर हमे पहले कभी इतना क्रोध न आया होगा जितना उस पल उन समाचारों को सुनकर आया. इतने भीषण समाचार कहीं हमारी भूखी शेरनी के कर्ण-स्पर्श कर जाते तो हम पता नहीं अपनी पूजा के दिन कितने प्रवचनों से दुलारे जाते कि प्रेम और झड़प से भरे गोपी-कृष्ण प्रकरण भी  छोटे लगने लगते, वक्रोक्ति अलंकार की परिभाषा ही बदलनी पडती ...अपनी इसी बैचैनी में हम कब वैचारिक सागर में गोते लगाने लगे पता ही नहीं चला...

मन ने हमेशा की तरह कुचाल भरनी शुरू की तो सारा ध्यान करवा-चौथ पर ही लग गया. करवा-चौथ यानि अपने इंडिया का वैलेंटाइन डे...भारत में अधिकतर (आज भी) प्रेम शादियों का अनुगामी होता है...(कई बार तो बच्चे प्रेम से पहले आ जाते हैं ). अतः हमारे इस वैलेंटाइन डे को लोगों ने वैवाहिक संस्कार ज्यादा मान लिया हैं...किन्तु हमारे रिवाजों में तो कुवारीं कन्याओं, प्रेमिकाओं और संभावित वधुओं को भी इस उत्सव को अपने भावी जीवन साथी के लिए मानाने की सुविधा है. अब आजकल तो प्रगतिशील और जीवन-साथी से हर पग पर कदम मिलाकर चलने वाले पुरुष भी अपने प्रेम और निष्ठा के लिए इस पर्व को निर्जलीय रूप में ही अपना रहें हैं...व्यक्तिगत रूप से  मुझे कभी भी प्रेम प्रदर्शन के लिए इस पर्व का निर्जलीय उपवास का रूप समझ में नहीं आया. मैंने कई बार अपनी पत्नी को भी इसके लिए मना किया है...जब हमारे शास्त्र वैसे ही कम से कम सात जन्मो के साथ देकर पति-पत्नी को सह-अस्तित्व का प्रायोगिक-अवसर प्रदान करते है फिर उसे काहे जन्म-जन्मान्तर तक खीचना जबकि कपाल क्रिया की कृपा से पिछला जन्म का भी साथ याद नहीं रहता.  साथ चाहिए ही तो सच्चे मन से हर दिन प्रभु से मांगो- उसका उपवास (या फिर निर्जलीय रूप) काहे यह सब टंटा करना...अच्छा पानी पीकर ही भगवान् की उपासना करके साथ मांग लो...पर श्रद्धा देवी के चरणों पर तर्क देवों शीश सदैव ही नतमस्तक रहते हैं...खैर, मूल विचार - भारतीय वैलेंटाइन डे -करवा चौथ की बात करते हैं...मेरे विचार से इसकी पूर्ण मार्केटिंग संभावना (पोटेंशियल) किसी ने तलाशा ही नहीं...वरना प्रेम-पिपासु इस जगत में इस पर्व का अन्तराष्ट्रीयकरण करके अपने-अपने  जीवन साथी के प्रति निष्ठा प्रदर्शन की एक स्वस्थ परंपरा की नींव डाली जा सकती है (हाँ निर्जलीय उपवास जैसे मसलों पर थोडी छूट देनी पड़ेगी). ऐसा अन्तराष्ट्रीयकरण न जाने कितने अन्य पर्व जैसे रक्षा-बंधन के साथ भी ऐसे ही किया जा सकता है....

अभी अपने विचारों में हम भारतीय परचम को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फहरा ही रहा थे कि पत्नी की जोरदार आवाज़ ने हमारी विचार तंद्रा को खंडित किया...दूर छत से पत्नी की आवाज़ आ रही थी - "आज पूजा होनी हैं तो तुम भी भगवान् की तरह पत्थर हो गए हो...चाँद कितना ऊपर चढ़ आया है...तुम तो कह रहे थे कि निकला ही नहीं है. ठीक से देखा ही नहीं था या फिर....".बड़े अनमने मन से हम उठकर छत की तरफ कैमरा सम्हालते हुए लपके...मन दुविधाग्रस्त था कि चाँद की इस धोखाधडी पर कुपित हों या फिर उसके आगमन पर छप्पन-भोग मिलने की ख़ुशी जताएं.....

Sunday, October 4, 2009

क्या हमने गाँधीवादी तरीकों का दुरूपयोग किया हैं?


इस माह के प्रारंभ के साथ ही सारा राष्ट्र गाँधीमय हो जाता है...अब तो बापू के जन्मतिथि को वैश्विक स्तर पर "अहिंसा दिवस" घोषित करके संयुक्त राष्ट्र ने भी गाँधी-सिद्धांतों का अनुमोदन कर दिया है. और रही सही कसर इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ओबामा जी ने अमेरिकी सामाजिक  परिवर्तन की सोच की जंडे गाँधी  के विचारों से बताकर अपनी सच्ची स्वीकारोक्ति से इस अनुमोदन को बढावा ही दिया. इसमें कोई शक नहीं हैं कि गाँधी जी ने अपने साधारण तरीकों और असाधारण इच्छाशक्ति से इस देश और विश्व की विचारधारा को बदल दिया है...यह वैचारिक परिवर्तन इस देश को किस दिशा में ले गया इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु इन परिवर्तनों ने इस राष्ट्र की आत्मा तक को प्रभावित किया इसमें कोई शक नहीं है. यदि अहिंसा के प्रवर्तक रहे हमारे आदि ऋषियों से लेकर, बुद्ध और महावीर के ज्ञान को वैश्विक स्तर पर किसी ने प्रचारित  किया  हैं - ऐसे  लोगों की सूची में गाँधी जी सर्वोपरि होंगे इसमें कोई संदेह नहीं है. गाँधी जी  ने अहिंसा को  एक वैचरिक सिद्धांत से अस्त्र के रूप में परिवर्तित करा था. और साथ ही सत्याग्रह, अनशन, असहयोग और हड़ताल जैसे  यंत्रों को  जन्म  दिया  था.

हमारे  देश  में जहाँ विचारधारा के ऊपर व्यक्तिगत छवि सदैव अधिक हावी रहती है.  (चाहे स्वतंत्रता पूर्व की कांग्रेस हो या वर्तमान के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल इस सत्य को हर कहीं देखा जा सकता है.)   गाँधी वादी विचारधरा  के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ....सिद्धांतो के  ऊपर गाँधी जी हावी हो गए....पैसे से लेकर नेतागिरी की पोशाकों तक, पार्कों से लेकर राज्यमार्गों तक, संसद की दीवारों से लेकर जन रैलियों के भाषण तक सब कुछ गांधीमय हो गया . नेताओं  ने गाँधी के समान खादी धारण कर के ग्राम-स्वराज्य को भूला दिया, गाँधी के चेहरों वाले मुद्रा (नोटों ) के भाव बढ़ाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वागत कर ग्रामीण उत्थान को अनदेखा कर दिया...गाँधी के सत्यवादी रूप की ठेकेदारी लेने वालों की चुनावी योग्यता उनके अपराधिक मामले तय करने लगे...जन-लोकतंत्र की भाषणों में दुहाई देने वालों को उनकी बाहुबली और मत लूटने या क्रय शक्ति के आधार पर ढूँढा जाने लगा, सर्व-कल्याण और हरिजन उत्थान के विषय में सोचने  के लिए नेता उनकी जातीय गणित के आधार पर तय होने लगे...हमारे देश में गाँधी तो रहे पर एक मुखौटे की तरह. उनकी आत्मा और उनके सिद्धांत तो, गोडसे की गोली से पहले, भारतीय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा की बलि चढ़ गए.....

अपने व्यतिगत क्षोभ  को मैं और भी अधिक बढा हुआ पता हूँ जब मैं गाँधीवादी हथियारों जैसे हड़ताल, अनशन, असहयोग का सार्वजानिक दुरूपयोग देखता हूँ...किसी भी सरकारी महकमों में यूनियन (चाहे मजदूर यूनियन हो या अधिकारीयों की संस्था) अपनी बातें जबरन मनवाने के लिए इनका गलत इस्तेमाल करते हुए मिल जायेंगे...अभी हाल में पायलट ने सामूहिक छुट्टी लेकर अपने असहयोग अभियान  से एक विमान कंपनी को पंगु बना दिया था... कभी-कभी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल/अनशन , नर्सों की  हड़ताल, वार्ड-बोयस की अप्रत्याशित   हड़ताल पूरे  के  पूरे शहर को पंगु कर देती है...लोग अब बदली हुई परिस्थिति को समझना ही नहीं चाहते...गाँधी जी ने जब इन हथियारों का प्रयोग किया था तब भी जन कल्याण के भाव को कभी नाकारा नहीं था...(वो तो चौरी-चौरा कांड में भी शत्रु के अहित से भी दुखी हुए थे). उस समय देश में के शत्रु सरकार थी तो यह हथियार उस व्यवस्था  को पंगु  बनाने के लिए  प्रयुक्त हुए  थे  किन्तु वर्तमान में जन-कल्याण को नज़र-अंदाज़ करके  अपनी ही सरकार को पंगु बनाना कहाँ तक उचित हैं यह प्रश्न सभी को हड़ताल से पूर्व स्वयं से करना चाहिए . इस विषय  में इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमारे  सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में ही  एक विश्वविद्यालय की छात्रा  को फटकार  लगाई थी कि तुम गाँधी नहीं हो और गाँधीवादी तरीकों का प्रयोग विद्यालय और शिक्षा व्यवस्था को  पंगु  बनाने के लिए नहीं कर सकते. सोचने की बात  है कि हमारे राष्ट्र की सर्वोच्च न्यायिक संस्था को ऐसा क्यों कहना पड़ा? मेरी  समझ में तो दो ही विकल्प आते हैं-

  1.  वर्तमान में गाँधीवादी तरीकों ने अपनी प्रासंगिता खो दी है.


  2. हमने गाँधीवादी तरीकों का इतना दुरूपयोग कर लिया हैं कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था भी कहती हैं - "बस बहुत हुआ"

गाँधीवादी सिद्धांत तो गाँधी से जन्मे नहीं हैं...वो तो युगों से हमारी परंपरा में विद्यमान हैं...अहिंसा महावीर और बुद्ध के मनन और वाल्मीकि की करुणा में बहती एक अविरल धारा के रूप में हमारी संस्कृति का अविभाज्य अंग रही हैं. गाँधी तो चन्द्र के समान उस ज्ञान की रोशनी में बस चमक गए (सारे चकोर चन्द्र पर मोहित हैं...सूर्य को कोई पूछता भी नहीं :) ) . अतः अहिंसा  एक शाश्वत सत्य की तरह अपनी प्रासंगिता नहीं खो सकती है  (हाँ! स्थान और काल के आधार पर उसकी उचित व्याख्या करनी होगी). मुझे तो केवल  दूसरा कारण ही नज़र आता हैं और उसका मूल हमारी व्यतिगत छवि को सिद्धांतों से ऊपर रखने की आदत हैं....क्योंकि हम गाँधी के विचारों और सिद्धांतों को नहीं गाँधी को जीवित रखने के प्रयासों में जुटे हैं इसीलिए हम गाँधीवादी तरीकों के  दुरूपयोग को बढ़ावा दिए जा रहे हैं....

और हम भूलते हैं कि गाँधी को जिन्दा रखने के इस जूनून में हम हर पल, हर क्षण उन्हें मारते जा रहे हैं....
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