मुनरो - कार उत्पादन के ब्रह्माण्ड के केंद्र बिंदु डेटरोइट के दक्षिण में छोटा सा शहर....इस शहर की जिन्दगी स्थानीय फोर्ड प्लांट से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है...वर्षों से यह प्लांट पीढ़ियों को पालता आ रहा था. इस शहर में फोर्ड के प्रति लोगों की आस्था कुछ इस तरह रची बसी थी जैसेकि चकोर का चंदा प्रेम...जब कि विदेशी कारों का बाज़ार सारे अमेरिका में बढ़ रहा था तब भी इस शहर में फोर्ड के आलावा कुछ नहीं बिकता था. यहाँ तक की डेटरोइट शहर में ही बनाने वाली जी.यम. (जनरल मोटर्स) और क्राइस्लर की भी कोई पूछ नहीं थी.....
मुनरो के इसी प्लांट में मेरा मित्र जॉन काम करता है. अभी हाल में ही जॉन की पत्नी "सिंथिया" भी इसी प्लांट में काम करती थी किन्तु लगातार हो रहे घाटे से उबरने के लिए जब फोर्ड ने इस प्लांट से दो शिफ्टों को बंद किया तो सिंथिया को घर बैठना पड़ा... सिंथिया के घर बैठने से अगर कोई खुश हुआ था - तो वो थी सिंथिया और जॉन की तीन वर्षीय पुत्री "हेलन". छोटी सी हेलन की आँखों की चमक ही माँ के साथ बिताये जाने वाले अधिक समय की खुशियाँ बता देती थी....
हेलन को क्या पता था कि माँ के घर पर रहने से इस मजदूर परिवार की आय काम और खर्चे बढ़ने लगे थे...अभी तक जहाँ एक ही प्लांट पर जाने से एक कार से काम चल जाता था, वहीं अब नौकरी तलाशती सिंथिया के कारण दो कारों की ज़रुरत आ पड़ी है... उसे तो बस स्कूल के बाद माँ के साथ बिताने वाले समय की चाह रहती थी...उसका बस चलता तो माँ को एक भी नौकरी नहीं ढूढने देती....
नई कार को लेकर जॉन और सिंथिया में कुछ तना-तनी भी चल रही थी. सिंथिया आपनी माँ के समझाने पर नई कार टयोटा खरीदना चाहती थी किन्तु जॉन को यह गवारा नहीं था. कई दिनों के शीत युद्ध के पश्चात पत्नीनिष्ठ पति की तरह जॉन ने भी टोयोटा के लिए हाँ कर दी. हेलन की तो ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था क्योंकि जॉन ने कहा की नई कार हेलेन की होगी. जब जॉन और सिंथिया नई कार खरीद रहे थे तो डीलर के वहाँ बिचारी हेलन ने सारा बोरियत भरा समय यह सोच कर ही बिताया की नई कार उसे मिलने वाली है....जॉन ने भी अपना वादा निभाते हुए नई नंबर-प्लेट हेलन के नाम की ही ली.
नई कार खरीदने की बधाई देने के लिए जब मैंने जॉन को फ़ोन किया तो जॉन ने मुझे बता की कैसे नई कार में फोर्ड के मुकाबले कुछ भी नया नहीं है किन्तु विदेशी होने के नाते उसे कितना अधिक पैसा देना पड़ा. इस समय जब उसकी माली-हालात अच्छे नहीं हैं ऐसे में व्यर्थ का गैर-ज़रूरी लोन उसे कितना दुःख पहुंचा रहा है. साथ ही प्लांट में सभी उससे नाराज़ हैं.. उसके यूनियन के दोस्त सब उसके सामने और पीठ पीछे इस नई कार के कारण कैसे ताने दे रहे हैं..कुल मिलाकर उसे ऊँची दुकान और फीका पकवान वाला अनुभव रहा. उसकी राम-कहानी सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैंने उसका मूड सुधारने के लिए कहा कि घर आ जाओ इस वीक-एंड पर तुम्हे कुछ लज्जत भरे देसी पकवान खिलते हैं....जॉन और सिंथिया दोनों को कढ़ी, पकोड़े, समोसे और परांठा बहुत पसंद हैं..मुझे विश्वास था कि वो इस दावत को मना नहीं करेगा... (हाँ उन दोनों को ५ साल पहले यह जानकार बड़ा आश्चर्य हुआ था कि हम बिना किसी मांसाहार के भोजन कैसे खाते हैं...वो अलग बात हैं कि अब उन्हें हमारे खाने की लत हो गई है)
आज दावत पर जब वो हमारे घर आये तो प्रारंभिक पकोड़ों के बाद अपनी अपनी वार्ता में लीन हो गए...मैं और जॉन जहाँ इकोनोमी से लेकर मौसमों के प्रभाव आदि की वार्ता में व्यस्त थे वहीं औरतों ने व्यंजन से लेकर शहर में आने वाली हर सेल का विवरण तैयार करना शुरू कर दिया. बाहर अच्छी धूप थी सो बच्चों ने घर के बाहर डेरा जमाया. बातों ही बातों में फिर नई कार की बात निकल पड़ी... जॉन ने बताया कि वो नई कार से ही आया हैं. अब हमारे दोस्त के दांपत्य जीवन को चुनौती देने वाली कार हमारे घर की दहलीज पर खडी हो और हम उसके दर्शन का सौभाग्य छोड़ दे ऐसा कैसे हो सकता था. हमने भी मानवीय उत्सुकता को औपचरिकता का आवरण ओढा कर जॉन से कार-दर्शन की इच्छा व्यक्त की.
हम सभी लोग (जॉन और मैं दोनों ही सपत्नी) घर के बाहर आये. घर के बाहर जॉन की नई कार पर हमारी नज़र पढ़ते ही हम आवाक रह गए. हेलन हाथ में एक कंकड़ लेकर उसके नई कार पर कुछ घिस-घिस कर लिख रहीं थी. इंतनी महंगी कार, वो भी मुफलिसी के दौर में जिसे बेचारे जॉन ने सारे पास-पड़ोस के ताने झेलते हुए खरीदा था उसे की यह दशा - जॉन ने आव देखा न ताव बिचारी हेलन को दो तमाचे जड़ दिए. हमने तो यहाँ किसी को भी अपने बच्चों पर यूँ हाथ उठाते नहीं देखा था सो हम भी सन्न रह गए. पुलिस और डोमेस्टिक वोइलेंस के डर के चलते देसी बाप भी अपने बच्चों को छिपते छिपाते ही कभी कभार मारते होंगे और यहाँ हमारे दरवाजे पर यह क्रूरता...सिंथिया और सपना (हमारी पत्नी) ने हेलन को संभाला और हमने जॉन को...जॉन का गुस्सा अभी भी बरक़रार था. मैंने जॉन को समझाया कि क्या करते हो? बच्ची है हो जाता है... जॉन ने कार की तरफ इशारा करते हुए कहा देखो यह क्या किया हैं इस दुष्ट (रास्कल) ने... हम सभी ने नुक्सान का जायजा लेने को कार पर अपनी नज़र दौडाई...कार पर बड़े बड़े शब्दों में हेलन ने लिखा था "आई लव यू डैडी" (I Love you Daddy )....जॉन का गुस्सा आँखों से अश्रुधार बनकर फूट पड़ा और उसने हेलन की तरफ देखा और रोती सहमी सी हेलन ने बस इतना कहा "डैडी आपने कहा था यह कार मेरी हैं" (Daddy , you said that its my car)
इस घटना के तुरंत बाद ही जॉन अपने घर निकल पड़ा और मैं व्याकुल ह्रदय लिए यहीं सोचता रहा कि गलती किसकी है....
Monday, May 31, 2010
Monday, February 1, 2010
बोले तो...आज अपुन का डबल हैप्पी बर्डडे है
एक लम्बे अंतराल के बाद लिखने बैठा हूँ... आज एक वर्ष पूर्व १ फरवरी के ही दिन से अपनी व्यक्तिगत ३६वीं सूर्य परिक्रमा के प्रारंभ के साथ मैंने चिठ्ठाकारिता की शुरुआत की भी थी. आज जब चिठ्ठा-जगत में लिखते-पढ़ते (लिखते कम, पढ़ते ज्यादा) भूमिरथ पर बैठकर कर सूर्यदेव की यह परिक्रमा पूर्ण हो रही हैं...तो अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि यूनानी देव जानौस (JANUS) की तरह आगे और पीछे दोनों देखा जाये....कहते हैं न वही वर्तमान का बोध सार्थकता प्रदान करता हैं जो इतिहास से सीखे और भविष्य के लिए आशावान हो....
वैसे भी हम भारतियों को इतिहास में जीने और भविष्य के सपने देखने ही अच्छे लगते है...यदि "रंग दे बसंती" के डीजे के शब्दों को उधार लूं तो "एक टांग इतिहास में और एक टांग भविष्य में है इसीलिए तो हम ...." खैर, जाने दीजिये हम ऐसे वैसे शब्दों का इस्तेमाल करके अपनी साहित्यकार वाली उम्मीद क्यों छोड़े, अब हर कोई तो "रियलिस्टिक लिटरेचर" से सफलता पूर्वक साहित्यकार तो नहीं बन सकता. वो अलग बात हैं कि कुछ नुक्कड़ नाटक पढ़कर/मंचन कर हमने भी कभी रियलिस्टिक साहित्यकार बनने की संभावना तलाशी थी. वैसे हमारे भी चिठ्ठाकारी के बचपने में (वैसे अभी भी कौन से प्रौढ़ हो गए) चिठ्ठाकारिता में साहित्य की गंभीरता और लेखन के लिए बहस चल निकाली थी. भारतीय संसद में महिला आरक्षण की तरह वह बहस अभी भी जारी है...हम तो मन की कहने निकले थे पर जब देखा कि "भईया इ साहित्यकारों वाली लाइन लग रही है तो हमहू लग गए...." आज नहीं तो कल जब कहीं चिठ्ठाकारों को साहित्यकारों का दर्जा मिला तो हम भी प्रथम श्रेणी के नहीं तो जनरल क्लास वाले साहित्यकार तो गिन ही लिए जायेंगे...जैसे कि प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक सभी मास्टर सा'ब शिक्षाविद हो जाते हैं...
एक और बात तो हमे चिठ्ठाकारी करते करते पता चली वो थी - हमारे लोकतंत्र की तरह इस सार्वभौमिक मंच में भी बिना बहस कोई मुद्दा ही नहीं चल सकता...गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के समान यह सच तो पहले से विद्यमान है किन्तु अब हम लिख दिए हैं तो शायद न्यूटन की तरह हम भी महान हो जाए...बस यूरेका यूरेका कह कर दौड़ना बाकी है...हमारी संस्कृति में बहस का विशेष स्थान है...जन-मन में बहस यूँ हावी है कि नुक्कड़ के चाय के दुकान से लाकर काफी-हाउस तक की संस्कृति में ज्ञानवान सिद्ध होने के लिए बहस करनी पड़ती है. और तो और कई बार ट्रेन के डिब्बे से लाकर साँझ की चौपाल तक लोग ज्ञानी-श्रेष्ठ की उपाधि हेतु बहस कर जाते है...चाहे मुद्दों में उनकी आस्था हो न हो, हाँ विषय को अपने दर्पण से निहार कर अपनी परिभाषा के साथ लोग आंकड़ों के साथ यूँ बहस करते है कि लगता है ब्रिटैनिका के संपादक मंडल में स्थान पाने का साक्षात्कार दे रहे हों. (हमने तो कई ज्ञानियों को एक बहस से दूसरी बहस में अपनी ही बात का विरोध करते हुए पाया है..खैर यह हम अल्प-बुद्धि तो अधिकतर मौन ही रह जातें हैं....)कई बार तो चिठ्ठाकारिता के मंच पर नर-नारी, साहित्यासहित्य, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, आस्था और वैज्ञानिकता जैसे मुद्दों पर ऐसे बहस होती है कि लगता है अगले कल्प में देवासुर संग्राम से पहले हमारे चिठ्ठाजगत से कुछ कैंसलटेंट तो माँगा ही लिए जायेंगे. मुद्दों को बहस से सुलझाने की हमारी प्रक्रिया में आस्था (और स्वयं को ज्ञानत्व प्रदान करने की भी) इस बात से परिलक्षित होती हैं कि कई बार यह बहस होती हैं कि बहस किस बात पर होनी चाहिए....
एक और बात जो बीते वर्ष सताती रही वो थी टिप्पणियों की बरसात की कामना...हम मन की कहने जग से निकले पर कब हाट पर नाचते बन्दर की तरह तालियों के मोहताज हो गए पता ही नहीं चला. हर लेख लिखकर हमे लगा कि बस टिप्पणियाँ चेरापूंजी की बरसात के तरह शायद रुकेंगी ही नहीं किन्तु हालात तो सहारा की मरुभूमि से भी बदतर हो गए. किसी मेलोड्रामा से भरी पिक्चर के चोट खाए हीरो की तरह कभी-कभी हमे भी और चिठ्ठों पर टिप्पणियों के महासागर देखकर मंदिरों में जाकर घंटे बजा कर "बहुत खुश होगे तुम..." वाले डायलाग बोलकर ईश्वर से गिला-शिकवा करने का मन हुआ पर फिर लगा कि भगवान् से पंगा क्यों लेना, किसी एकांत में गाना गाकर काम चला लेते हैं. फिर लगा कि चलो हम भी स्वान्तः सुखाय वाली श्रेणी में लिखने वाले बन जाते हैं.. (सच में कुछ दिनों तक डायरी में भी लिखना शुरू किया किन्तु मन न माना ) आखिर खट्टे अंगूरों के पकने और मीठा होने की उम्मीद तो हमेशा रहती हैं. बड़े बूढों ने कहा ही हैं कि उम्मीद पर दुनिया कायम है...
खैर, इसी कशमकश में हम जिन ज्ञानी-जनों ने हमे टिप्पणियाँ दी उनको भी आभार व्यक्त करना भूल गए... इस क्रम में कई वरिष्ठ चिठ्ठाकारों और सहयोगियों से एकलव्य की भांति सीखने की भी कोशिश की..आज इस अवसर पर उन सभी को ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ...उन सभी वरिष्टों का जिन्होंने टिप्पणियों से, त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण से और आशीष देकर न केवल उत्साहवर्धन किया बल्कि मार्गदर्शन भी उन सभी को आज शत-शत नमन और उनसे इसी प्रकार मार्गदर्शन और स्नेहाकांक्षा की अपेक्षा है...यह आशा सिर्फ इसी चिठ्ठे के लिए नहीं वरन अन्य दोनों "जीवन के पदचिन्ह" (काव्य संग्रह) और सरयूपारीण (शोध ) के लिए भी है...और सभी प्रबुद्ध-जन जिन्होंने अपना आशीष बनाकर रखा है उनसे अनुरोध है कि आप मेरी त्रुटियों को क्षमा करते हुए उचित मार्गदर्शन प्रदान करेंगे.
मुझे आजतक यह नहीं समझ में आया हम जन्मदिन क्यों उत्साहपूर्वक मानते हैं? इस विषम जगत में एक वर्ष सफलता पूर्वक जीने के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए एक वर्ष कम हो जाने के लिए...कौन जाने पर रुदन भरी इस दुनिया में रुदाली बनकर जिए तो क्या जिए - इसी फलसफे पर चलकर हम हर मौके पर ख़ुशी तलाश ही लेते...तो अपनी सालगिरह क्यों अपवाद हो.... और आने वाले समय को सिर्फ आशावादी दृष्टि से देखते हैं अतः आज केवल आने वाले समय के लिए जहाँ व्यक्तिगत रूप से आशावान हूँ [इस वर्ष भारत-यात्रा और जल्द ही हिंदी संस्था भाषिणी और एक व्यक्तिगत व्यवसाय प्रारंभ करने का स्वप्न है जिसके चलते पिछले कुछ महीने चिठ्ठों में विराम था] वहीं अपने तीनो चिठ्ठों को लेकर भी आशा है कि ऐसे मनभावन पोस्ट लिख सकूँगा जिन्हें पाठक गण टिप्पणियों से भर देंगे. हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है....
वैसे भी हम भारतियों को इतिहास में जीने और भविष्य के सपने देखने ही अच्छे लगते है...यदि "रंग दे बसंती" के डीजे के शब्दों को उधार लूं तो "एक टांग इतिहास में और एक टांग भविष्य में है इसीलिए तो हम ...." खैर, जाने दीजिये हम ऐसे वैसे शब्दों का इस्तेमाल करके अपनी साहित्यकार वाली उम्मीद क्यों छोड़े, अब हर कोई तो "रियलिस्टिक लिटरेचर" से सफलता पूर्वक साहित्यकार तो नहीं बन सकता. वो अलग बात हैं कि कुछ नुक्कड़ नाटक पढ़कर/मंचन कर हमने भी कभी रियलिस्टिक साहित्यकार बनने की संभावना तलाशी थी. वैसे हमारे भी चिठ्ठाकारी के बचपने में (वैसे अभी भी कौन से प्रौढ़ हो गए) चिठ्ठाकारिता में साहित्य की गंभीरता और लेखन के लिए बहस चल निकाली थी. भारतीय संसद में महिला आरक्षण की तरह वह बहस अभी भी जारी है...हम तो मन की कहने निकले थे पर जब देखा कि "भईया इ साहित्यकारों वाली लाइन लग रही है तो हमहू लग गए...." आज नहीं तो कल जब कहीं चिठ्ठाकारों को साहित्यकारों का दर्जा मिला तो हम भी प्रथम श्रेणी के नहीं तो जनरल क्लास वाले साहित्यकार तो गिन ही लिए जायेंगे...जैसे कि प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक सभी मास्टर सा'ब शिक्षाविद हो जाते हैं...
एक और बात तो हमे चिठ्ठाकारी करते करते पता चली वो थी - हमारे लोकतंत्र की तरह इस सार्वभौमिक मंच में भी बिना बहस कोई मुद्दा ही नहीं चल सकता...गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के समान यह सच तो पहले से विद्यमान है किन्तु अब हम लिख दिए हैं तो शायद न्यूटन की तरह हम भी महान हो जाए...बस यूरेका यूरेका कह कर दौड़ना बाकी है...हमारी संस्कृति में बहस का विशेष स्थान है...जन-मन में बहस यूँ हावी है कि नुक्कड़ के चाय के दुकान से लाकर काफी-हाउस तक की संस्कृति में ज्ञानवान सिद्ध होने के लिए बहस करनी पड़ती है. और तो और कई बार ट्रेन के डिब्बे से लाकर साँझ की चौपाल तक लोग ज्ञानी-श्रेष्ठ की उपाधि हेतु बहस कर जाते है...चाहे मुद्दों में उनकी आस्था हो न हो, हाँ विषय को अपने दर्पण से निहार कर अपनी परिभाषा के साथ लोग आंकड़ों के साथ यूँ बहस करते है कि लगता है ब्रिटैनिका के संपादक मंडल में स्थान पाने का साक्षात्कार दे रहे हों. (हमने तो कई ज्ञानियों को एक बहस से दूसरी बहस में अपनी ही बात का विरोध करते हुए पाया है..खैर यह हम अल्प-बुद्धि तो अधिकतर मौन ही रह जातें हैं....)कई बार तो चिठ्ठाकारिता के मंच पर नर-नारी, साहित्यासहित्य, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, आस्था और वैज्ञानिकता जैसे मुद्दों पर ऐसे बहस होती है कि लगता है अगले कल्प में देवासुर संग्राम से पहले हमारे चिठ्ठाजगत से कुछ कैंसलटेंट तो माँगा ही लिए जायेंगे. मुद्दों को बहस से सुलझाने की हमारी प्रक्रिया में आस्था (और स्वयं को ज्ञानत्व प्रदान करने की भी) इस बात से परिलक्षित होती हैं कि कई बार यह बहस होती हैं कि बहस किस बात पर होनी चाहिए....
एक और बात जो बीते वर्ष सताती रही वो थी टिप्पणियों की बरसात की कामना...हम मन की कहने जग से निकले पर कब हाट पर नाचते बन्दर की तरह तालियों के मोहताज हो गए पता ही नहीं चला. हर लेख लिखकर हमे लगा कि बस टिप्पणियाँ चेरापूंजी की बरसात के तरह शायद रुकेंगी ही नहीं किन्तु हालात तो सहारा की मरुभूमि से भी बदतर हो गए. किसी मेलोड्रामा से भरी पिक्चर के चोट खाए हीरो की तरह कभी-कभी हमे भी और चिठ्ठों पर टिप्पणियों के महासागर देखकर मंदिरों में जाकर घंटे बजा कर "बहुत खुश होगे तुम..." वाले डायलाग बोलकर ईश्वर से गिला-शिकवा करने का मन हुआ पर फिर लगा कि भगवान् से पंगा क्यों लेना, किसी एकांत में गाना गाकर काम चला लेते हैं. फिर लगा कि चलो हम भी स्वान्तः सुखाय वाली श्रेणी में लिखने वाले बन जाते हैं.. (सच में कुछ दिनों तक डायरी में भी लिखना शुरू किया किन्तु मन न माना ) आखिर खट्टे अंगूरों के पकने और मीठा होने की उम्मीद तो हमेशा रहती हैं. बड़े बूढों ने कहा ही हैं कि उम्मीद पर दुनिया कायम है...
खैर, इसी कशमकश में हम जिन ज्ञानी-जनों ने हमे टिप्पणियाँ दी उनको भी आभार व्यक्त करना भूल गए... इस क्रम में कई वरिष्ठ चिठ्ठाकारों और सहयोगियों से एकलव्य की भांति सीखने की भी कोशिश की..आज इस अवसर पर उन सभी को ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ...उन सभी वरिष्टों का जिन्होंने टिप्पणियों से, त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण से और आशीष देकर न केवल उत्साहवर्धन किया बल्कि मार्गदर्शन भी उन सभी को आज शत-शत नमन और उनसे इसी प्रकार मार्गदर्शन और स्नेहाकांक्षा की अपेक्षा है...यह आशा सिर्फ इसी चिठ्ठे के लिए नहीं वरन अन्य दोनों "जीवन के पदचिन्ह" (काव्य संग्रह) और सरयूपारीण (शोध ) के लिए भी है...और सभी प्रबुद्ध-जन जिन्होंने अपना आशीष बनाकर रखा है उनसे अनुरोध है कि आप मेरी त्रुटियों को क्षमा करते हुए उचित मार्गदर्शन प्रदान करेंगे.
मुझे आजतक यह नहीं समझ में आया हम जन्मदिन क्यों उत्साहपूर्वक मानते हैं? इस विषम जगत में एक वर्ष सफलता पूर्वक जीने के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए एक वर्ष कम हो जाने के लिए...कौन जाने पर रुदन भरी इस दुनिया में रुदाली बनकर जिए तो क्या जिए - इसी फलसफे पर चलकर हम हर मौके पर ख़ुशी तलाश ही लेते...तो अपनी सालगिरह क्यों अपवाद हो.... और आने वाले समय को सिर्फ आशावादी दृष्टि से देखते हैं अतः आज केवल आने वाले समय के लिए जहाँ व्यक्तिगत रूप से आशावान हूँ [इस वर्ष भारत-यात्रा और जल्द ही हिंदी संस्था भाषिणी और एक व्यक्तिगत व्यवसाय प्रारंभ करने का स्वप्न है जिसके चलते पिछले कुछ महीने चिठ्ठों में विराम था] वहीं अपने तीनो चिठ्ठों को लेकर भी आशा है कि ऐसे मनभावन पोस्ट लिख सकूँगा जिन्हें पाठक गण टिप्पणियों से भर देंगे. हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है....
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