अभी हाल में ही आडवाणी जी ने मनमोहन सिंह जी को टीवी पर खुली बहस के लिए चुनौती दी थी। वैसे तो इस बहस पर कांग्रेस की तरफ़ से आशानुरूप कोई जवाब नहीं आया। हाँ, दिग्विजय सिंह जी ने इसे सस्ती लोकप्रियता का टोटका करार दिया (देखें) और दूसरी ओर मल्लिका साराभाई ने आडवाणी जी को ही बहस की ललकार लगाई (देखें) ।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस में राष्ट्रपति पद हेतु और कनाडा में प्रधानमंत्री पद हेतु इस तरह की बहस की प्रथा हैं। इस तरह की बहस जहाँ सभी प्रतिद्वंदियों को एक मंच पर एक-दुसरे सम्मुख लाकर आमने-सामने विचार रखने, तर्क-वितर्क करने का मौका प्रदान करतें हैं, वहीं जनता को भी अपने नेतृत्व को परखने का अवसर प्रदान करते हैं।
किसी भी लोकतंत्र में संवाद अत्यन्त आवश्यक हैं। यह संवाद विभिन्न दलों में (अंदरूनी एवं बाह्य), जनता और दलों के बीच निरवरोध चलाना चाहिए। शायद इसीलिए अधिकतर लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रिकारिता और सूचना के अधिकार की सुविधा प्रदान की गई हैं - जिससे एक स्वस्थ संवाद मतदाताओं को उचित जानकारी देकर जागरूक नागरिक बना सकें। (यहाँ ये भी आवश्यक हैं कि इस प्रकार के संवाद अथवा जानकारी सुलभ और सस्ते साधनों से उपलब्ध हो।)
भारतीय लोकतंत्र जहाँ पर बहुदलीय प्रथा हैं और दल किसी रेडियोधर्मी पदार्थ की तरह नित्य ही विघटित होते रहते हो, वहां दलों के बीच का अन्तर समझ पाना अत्यन्त जटिल हो जाता हैं। एक ही विचारधारा से उत्पन्न दल पुर्णतः विपरीत चरित्र के साथ जनता के समक्ष उतरते हैं , जैसे लोहियावादी समाजवाद से उत्पन्न मुलायम की सपा और लालू की राजद...कांग्रेस ने ही ऐसे नेताओ की फौज तैयार की हैं जो कांग्रसी-जन्म कर कांग्रेस-विरोधी हो गए और एक नए दल की प्रणेता बन गए हैं, ऐसे ही भाजपा से जन्म लेकर कितने ही राष्ट्रवादी/हिंदूवादी दल रक्तबीज की तरह उपजे हैं कहना मुश्किल हैं...व्यक्तिगत स्वार्थ, अपने अहम् , अपनी उपेक्षा और वैचारिक मतभेदों से बहुदलीय व्यवस्था में ऐसे दलों का जन्म भी अपेक्षित हैं किंतु भारत की विविधता से उत्पन्न प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद इस समस्या को और सघन कर देते हैं।
दलों के बीच अन्तर करने के लिए उनके चुनाव घोषणा-पत्र के अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं होता। भारत में अधिकांश मतदाता अपने पहले से ही तय मापदंडो के कारण इन घोषणापत्रों का संज्ञान भी नहीं लेते, यह मापदंड कुछ भी हो सकते हैं - जातिगत समीकरण, नेतृत्व में अंध-आस्था (न की दल और विचारधारा में), राजनैतिक और तत्कालीन मुद्दों से उदासीनता और मुख्य रूप से अनपढ़ मतदाता। ऐसे में, सभी दल उन्मुक्त रूप से रैलियों, चुनाव-सभाओं और यात्राओं में समर्थकों के श्रवण-सुख के आधार पर मन-लुहावन भाषण देते रहते - चाहे ये भाषण, वादे विरोधाभाषी ही क्यों न हो। चुनाव के दौरान आग भड़काऊ विषय जोकि दल की विचारधारा से विमुख हो क्यों न हो उपयोग किए जातें हैं।
इन परिस्थितियों में टीवी पर खुली बहस से न केवल मतदाताओं को अपने नेताओ के मुद्दे-दर-मुद्दे विचार और प्रस्तावित नीतियों का ज्ञान प्राप्त होगा बल्कि साथ ही प्रतिद्वंदी नेतृत्व के विचार भी जानने को मिलेंगे। यह भी पता चलेगा की क्या वे नीतिगत अन्तर हैं जो एक दल को दुसरे से, एक नेता को दुसरे से इतर करते हैं। मुझे विश्वास हैं की कई विषयों पर भाजपा और कांग्रेस शायद एक से दिखे और कई मुद्दों पर नेता अपने मतदाताओं के पूर्वाग्रहों से हटकर खड़े मिलेंगे। इस तरह की बहस में भाजपा और कांग्रेस ही नहीं जो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो को आना चाहिए और आतंरिक विषयों से लेकर अन्तराष्ट्रीय संबंधों तक पर चर्चा होनी चाहिए...
देखने-सुनने का प्रभाव भी केवल पठान के प्रभाव से ज्यादा होता हैं... साथ ही टीवी पर खुली बहस सारे राष्ट्र को व्यापक रूप से, सबसे अल्प मूल्य पर सामान संदेश प्रेषित करेगी।
5 comments:
bahas ho, khuli bahas ho, lekin sarthak ho, ye jaroori hai
यह आपने बहुत ही जवलंत मुद्दा उठाया है. भारतीय राजनीती में अपने - अपने लेवल पर ब्यान बाजी करते यह नेता या राजनीतिक दल जनता के सामने एक ही मंच पर आकर किन मुद्दों पे बहस करें! मुद्दे ही क्यां हैं इनके पास? व्यक्तिगत आकंशयों, स्वार्थों के बल पर बने नेता या दल देश को क्या नेतृत्व देंगे? यहाँ तक की चुनावी घोषणा पत्र भी तत्कालिक मौसम के हिसाब से बनते हैं! एक दुसरे के सामने भीड़ कर ये एक दुसरे की पोल नहीं खोलेनेग, इतने समझदार यह लोग है हीं. प्रत्येक क्षेत्र के मतदाता या इन विषयों पर काम कर रही स्वयं सेवी सस्थ्यें ऐसी बहस के लिए लगातार दबाव डालें. इन नेतायों को एक मंच पर आने को मजबूर करें बहस के लिए, जिसे लोकल टी वी , रेडियो , समाचारों द्वारा परसारित/पर्काशित किया जाये. इस प्रकार राज्य स्तर तथा रास्ट्रीय स्तर पर जनता इन्हें मजबूर करे.
मेरी समझ में चुनाव संसद का है, प्रधानमंत्री का नहीं है। इस कारण से इस पर बहस कतई जरूरी नहीं है। बहस तो इस मामले पर हो कि आप की पार्टी का बहुमत आने पर, या विपक्ष में बैठने पर या किसी का बहुमत न आने पर आप की नीति क्या होगी?
मैं दिनेशराय से सहमत हूं। हमारे यहां पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, न कि व्यक्ति। इसलिए पार्टी की नीतियां क्या हैं, इस पर बहस होनी चाहिए। पार्टियां प्रधान मंत्री पद के लिए किसे आगे करती है, इसका चुनाव से पहले कोई महत्व नहीं है, क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि जिसे वे आगे कर रही हैं, वह प्रधान मंत्री बनेगा ही। इसलिए चुनाव से पूर्व प्रधान मंत्री के उम्मीदवारों की बेहस निरर्थक है।
अभी हाल में करण थापर शो में इस विषय की चर्चा की गई थी। विषय यह था कि क्या मनमोहन और आडावाणी के बीच टीवी बहस होनी चाहिए?
पेनलिस्टों में द हिंदू अखबार के संपादक एन. राम और वरिष्ठ पत्रकार इंदर मलहोत्रा भी थे। दोनों ही ने इस तरह की बहस को निरर्थक और समय की बर्बादी कहा।
दिनेश राय जी और बालसुब्रमण्यम जी, मैं प्रधानमंत्री पद की बहस की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि भारत में भले ही चुनाव दलगत स्तर पर होते हैं पर अधिकतर राजनैतिक दलों का स्वरूप अपने एक नेता पर ही आधारित हैं....चाहे वो परिवारवादी कांग्रेस हो (और उसके छद्म मुखौटे), सपा, बसपा...यहाँ तक की भाजपा और कम्युनिस्ट में भी नेताओ के इर्द-गिर्द ही पार्टियाँ और उनकी नीतियाँ बुनी जाती हैं.....ऐसे में इनके सर्वोच्च नेताओं की बहस चुनाव-घोषणा पत्रों के ज्यादा प्रभावशाली होगी ऐसा मेरा मानना हैं।
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