आज घर की सफाई के दौरान जब सारी सर्दियों भर की रद्दी उठा कर बेसमेंट में रखने गया तो अनायास ही उसका ख्याल आ गया। गर्मी के आगमन के साथ ही बाहर पसरी पड़ी बर्फ ने अपने पाँव सुकड़ने शुरू कर दिए थे अतः नयी नवेली कोमल धूप का आनंद लेने जबतक मैं चाय की प्याली के साथ बालकनी पर आकर बैठा मैं पुरी तरह से स्मृतियों के गलियारों ने विचारने लगा था ....
"रद्दी वाला" चिल्लाते हुए वो हमारे मुहल्ले में आता था। बरेली का एक छोटा सा मोहल्ला - बजरिया पूरनमल...चहवाई और कुहाडापीर के बीच फ़सा सा इलाका। शायद वो और भी मुहल्लों में जाता होगा पर इस मुहल्ले में रहने वाले उसके नियमित ग्राहक थे...यूँ तो और भी रद्दी और कबाडीवाले आते थे आर वो अपनी मासूमियत, मृत्भाषी व्यवहार और कम उम्र की वजह से ज्यादा पसंद किया जाता था...उम्र में तो मुझसे भी छोटा रहा होगा १२-१३ बरस का....अपना ठेला धकेलते हुए "रद्दी वाला" चिल्लाते हुए घर-घर जाता था।
आज की तरह उस दिन भी ऐसी ही धूप का छत पर आनंद ले रहा था जब माँ ने नीचे से आवाज लगी कि रद्दी बेचनी हैं, रसीदी को रोको... रसीदी, हाँ रसीदी ही तो नाम था उसका। पता नही कि उसके माँ-बाप ने दिया था या रद्दी का काम करते-करते उसका नाम किसी ने रसीदी रख दिया था। मैंने छत से ही आवाज लगाई -"ओये रसीदी, रसीदी...अबे रुक...घर की रद्दी बेचनी हैं...." उसने नज़र उठाकर देखा और ठेले को हमारी गली में मोड़ दिया।
हम भी नीचे आकर घर भर की रद्दी एकत्रित करने लगे...रद्दी बेचते हुए हम माँ का हाथ बिना पूछे-कहे ही बटाने आ जाया करते थे क्योंकि रद्दी के बीच कितने खजाने मिलते थे, आपको क्या बताएं...और फिर यह चिंता भी रहती थी कि हमारे किसी पुराने खजाने को रद्दी समझकर ने बेच दिया जाए। इतने में रसीदी भी अपना तराजू और बाट लेकर आ गाया। बाट क्या थे आधे तो ईंट पत्थर ही थे पर किसी को रसीदी की इमानदारी पर शक नहीं था। वरना, बाट तो क्या, बाकी कबाडी वालों के तो तराजू भी पलटवा-पलटवा कर हम देखते थे (चुम्बक से लेकर डंडी मरने तक के खतरे जो रहते थे)। रसीदी की लोकप्रियता में उसकी ईमानदारी की शायद बड़ी भूमिका थी।
हम अख़बारों, पत्रिकायों और पुरानी कॉपी-किताबों के बंडल ला-लाकर रखने लगे। भारत में उस समय अखबार ज्ञान बाटने के अतिरिक्त कॉपी-किताबों के कवर, अलमारियों ने नीचे बिछाने से लेकर डिस्पोसबल प्लेट तक जाने कितने काम आते थे पर अब इस ऑनलाइन न्यूज़ के ज़माने में क्या होता हैं पता नहीं...खैर सारी रद्दी इकठ्ठी करने के बाद हम हर पत्रिका को उलट-पलट कर खजाना ढूँढने में व्यस्त हो गए। माँ ने रसीदी से रद्दी का दाम पूछा तो उसने अंग्रेजी अखबार के इतने और हिन्दी अखबार के इतने, मग्जीन के इतने बताने शुरू किए। जी हाँ उस समय हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों के रद्दी दाम भी अलग होते थे पर भाषा से ज्यादा अखबारी कागज़ के कारण ऐसा होता था।
थोडी देर में हमे अहसास हुआ कि रसीदी भी हर अखबार की तह खोल-खोलकर देख रहा हैं। धोबी के जेब झाड़-झाड़ कर देखने से तो हम परिचित थे किंतु रद्दी वाला अखबार खाद-झाड़ कर देखे बड़ा अटपटा लगा। जिस तरह हम अपना खजाना ढूंढ रहे थे उसी तरह उसे अख़बारों को पलटता देख वो हमे नकलची-बन्दर से कम न लगा...ऐसा लगा की वो हमारी विद्वता को चुनौती दे रहा हो। उमने डपटकर पूछा - "अबे रसीदी क्या कर रहा हैं..मेरी नक़ल उतारता हैं? रसीदी ने बड़े आश्चर्य से मेरी तरह देखा और कहा -"नहीं भइया जी हम काहे आपकी निकल उतारेंगे?" फ़िर हलकी सी खिसयानी हँसी के साथ बोला "हीं... हीं... हीं... मजाक कर रहे हैं न..." मैंने कहा "नहीं बे, तो अखबार में क्या ढूंढ रहा हैं पलट पलट कर....." हमारे प्रश्न के उत्तर देने से पहले उसने गंभीरता का एक ऐसा आवरण ओढ लिया की मानों हमे किसी वैदिक मीमांसा का भेद पूछ लिया हो। बड़ी गंभीरता से साथ उसने कहना शुरू किया - "भइया जी, हम देख रहे हैं की अख़बारों के बीच कोई फालतू के कागज़ तो नहीं घुसा-घुसा कर रहें हैं, लोग-बाग़ अख़बारों में कागज़ के टुकडे डाल देते हैं..." मैंने क्रोध से डांटते हुए कहा की "साले हमे चोर समझता हैं..." इस पर वो थोड़ा झेपते हुए बोला की "नहीं भइया पर जब (रद्दी की) गड्डी में और कागज़ होते हैं तो हम तो ज्यादा पैसा दे जाते हैं पर सेठ हमे बेकार रद्दी कहकर पैसा काट लेता हैं और बेईमान कहकर मारता भी हैं। उसने कल भी हमको इसी कारण पीटा"। उसकी बात सुन कर हम से कुछ कहा नहीं गया। हमने उसके अख़बारों का तह दर तह परीक्षण करने दिया लेकिन फ़िर हमारा मन उदिग्न हो उठा की इस तरह से इतने छोटे बच्चे के साथ कौन इस तरह की हरकत कर सकता हैं।
आजभी उस घटना को सोचता हूँ तो रसीदी का वही मासूम चेहरा और पिटाई वाली बात याद आ जाती हैं....
Friday, April 24, 2009
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7 comments:
सही कहा आपने,हर गली,मुहल्ले का अपना कबाड़ी यानी रद्दीवाला होता है।
आपके चिट्ठे से पता चला कि आप बरेली में रह चुके हैं, मैं भी १९९७-१९९९ के बीच बरेली में रहा हूँ| १९९८ में जी आई सी से १२ वीं उत्तीर्ण की| अब आगे भी आपके चिट्ठे पर आना लगा रहेगा | वैसे हम बिहारीपुर मोहल्ले में झगडे वाली मठिया के पास रहते थे|
हर जीवन की अपनी अपनी इमानदारिया,बेमानिया बटी होती है ..ओर साथ में उनके साथ जीने का सर्वाइवल भी इन्सान सीख जाता है....
मर्म भरा लेख है. इसे पढ़ कर मुझे बचपन की वो कहानी याद आ गयी (प्रसिद्ध हिंदी कहानीकार की है) जिसमे एक साहेब घर की छोटी-मोटी परेशानी से दुखी हो बाहर निकलते हैं, तो उन्हें पीपल के पेड़ तले एक बचा कुछ खाने की चीज़ें बेचते दीखता है, वो सब कुछ खरीद लेते है तथा उस बचे को 'फोल्लो' करतें है. उसके घर की हालत देख उन्हें लगता है की उस स्थिती के सामने उनके गम तो कुछ भी नहीं.
बहुत सही लिखा है। अभी हमारे देश में बच्चों का बहुत अधिक शोषण होता है। यह बहुत ही शर्मनाक बात है हम सबके लिए।
Ravish ji ki blog charcha mein aaj aapke 'Saryupari' blog ke bare mein padha. Vahan 'Comment As' box blank dikh rahe hone ki vajah se comment nahin kar paya. E-mail de dein to mail se bhi comment dene ki suvidha ho jayegi. Brahmanon ke itihaas ki khoj ka accha pryas aarambh kiya hai aapne. Aapke Pita ke patron ka mujhe bhi intejar hai. Shubhkaamnayein.
loved this post. Will be coming back for more
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