Sunday, August 30, 2009
नस्लभेदी माइक्रोसॉफ्ट ?
अभी हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट ने अपनी पोलिश वेबसाइट पर एक श्याम वर्णी व्यक्ति की तस्वीर को पोलैंड के लिए एक गोरे व्यक्ति की तस्वीर से बदल दिया था (देखें) । संभवतः यह पौलैंड के लोगों की मान्यताओं के अनुसार ही किया गया होगा। इसे टारगेट मार्केटिंग और मार्केट सेगमेंटेशन के दृष्टि से उचित मान कर शायद अंजाम दिया गया होगा। इसके फलस्वरूप हर जगह माइक्रोसॉफ्ट की जबरजस्त भर्त्सना हुई। इसके रहस्योद्घाटन के बाद आनन -फानन इसका सुधार भी हो गया। माइक्रोसॉफ्ट ने ट्विट्टर पर अपनी गलती स्वीकार करते हुए माफ़ी भी मांग ली। किंतु इस घटना से जो नुक्सान होना था वो तो हो ही गया।
इस घटना से दो बातें उभरकर आती हैं -
१) इस प्रकार से नैतिक मूल्यों और मापदंडों को ताक पर रखकर मार्केट सेगमेंटेशन और टारगेट मार्केटिंग कितनी उचित हैं
२) क्या युरोपिय राष्ट्रों में अभी भी श्याम-वर्णीय लोग प्रचार साधनों में भी स्वीकार नहीं हैं ?
यह दोनों ही बातें मानवीय और नैतिक दोनों ही आधारों पर क्षोभ का विषय हैं । इनकी जितनी भी निंदा /भर्त्सना की जाए कम हैं । हमारे भारतीय समाज पर ऊँगली उठाने से पहले पश्चिमी जगत को अपने अन्दर व्याप्त इस तरह के रंग-भेद से ख़ुद भी छुटकारा पाना होगा। (पर यह घटना हमारी जातिभेद की के प्रति जिम्मेदारियों को समाप्त नहीं करती और हमे जातिगत भेदभावों के उन्मूलन के लिए कार्यरत रहना ही होगा )
Saturday, August 29, 2009
महापुरुषों की आलोचना और हम
आज सायंकाल मैं राजशेखर व्यास लिखित पुस्तक "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!"पढ़ रहा था। इस पुस्तक में भी नेताजी सुभाष चाँद बोस और पंडित नेहरू के रिश्तों पर चर्चा के दौरान कुछ पंक्तिया ऐसी मिली जिसमे महापुरुषों के सम्बन्ध में हमारी भारतीय मानसिकता का विश्लेषण किया गया। यह पंक्तिया वर्तमान सन्दर्भ में जिन्ना, पंडित नेहरू और सरदार पटेल के विभाजन सम्बन्धी विवाद में भी सटीक बैठती हैं। मैं समझता हूँ कि हम सभी को स्थापित मापदंडों से निकलकर राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर विभाजन का विश्लेषण करना होगा। विभाजन एक सच्चाई हैं जिससे नकारा नहीं जा सकता किंतु उसके कारकों के अध्धयन से राष्ट्र को भविष्य के लिए यथोचित सीख मिलेगी। वर्तमान सन्दर्भ में "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!" से राजशेखर व्यास के निम्न विचार पढिये और बतायें कि क्या आप इसे सहमत हैं या नहीं...
"...प्रायः हम अपने महापुरुषों की पुण्य-तिथियों और जन्म-दिवसों पर उनकी गुण-गाथा और यश-गान ही गाया करतें हैं, उनकी आलोचना या कमजोरी को सच्चाई और ईमानदारी से कहने और सहने का नैतिक साहस भी हम में नहीं हैं । क्या हम यह समझते हैं की हमारे महापुरूष इतने कच्चे हैं कि वे आलोचनाओं से ढह जाएँगें? दुसरे उनकी आलोचनाओं को उनके प्रशंसक, अनुयायी अपनी व्यक्तिगत आलोचना मान लेते हैं तथा उसे अपने अहम् और सम्मान का प्रश्न बना लेते हैं। एक प्रवृति और दखी गई है, जब भी कोई आलोचक, विद्रोही, प्रचलित परम्परा, मान्यता, विश्वास और सिद्धांतों को तोड़ने का साहस या प्रयत्न करता है तो उसे भी घमंडी या अहंकारी समझा जाता है। प्रायः यह भी देखा गया है कि महापुरुषों के समर्थक इतने अंध श्रद्धावान या कट्टर होते हैं कि उनके खिलाफ सच्चाई का एक शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करते। संभवतः वे यह समझते हैं कि अगर उनके प्रेरक का ही व्यक्तित्व ढह गया या स्वयं ही कमजोर, अक्षम या ग़लत साबित हो गया तो उनका स्वयं का अस्तित्व भी तब कहाँ जाएगा , और अपने अस्तित्व ढहने जी कल्पना मात्र से ही हम लोग इतने आतंकित रहते हैं कि सच्चाई कहने -सुनने का साहस भी खो बैठते हैं। "
Sunday, August 23, 2009
भाजपा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अडवाणी जी ने भी जिन्ना की मजार पर जाकर मत्था टेका ही था। संघ ने नाराजगी तो दिखाई थी पर आसानी से इस आधार पर क्षमादान भी दे दिया था कि वो अडवाणी जी का व्यक्तिगत मत हैं। अडवाणी जी ने भी जिन्ना के भाषणों और अन्य विचारों और पत्रों के आधार पर अपने व्यक्तव्य को सत्य स्थापित करने का प्रयास किया था। आज जब जसवंत सिंह ने भी वही बात की तो इतना शोर क्यों हैं? मुझे तो राम चरित मानस का वो प्रसंग याद आता हैं जब मंदोदरी और विभीषण दोनों ने ही राम को सीता ससम्मान लौटने का अनुरोध किया था। रावन ने जहाँ मंदोदरी को हंसकर गले लगा कर समझाया वहीं बिचारे विभीषण को भरी सभा में पदाघात और राज-निष्कासन का दंड मिला। ऐसा ही कुछ जसवंत के साथ भी हुआ। यूँ तो इन्टरनेट पर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के सर्वे में अधिकांशतः लोगो ने भाजपा को आडवाणी और जसवंत के लिए दोहरे मापदंडो के लिए कठगरे में खड़ा किया हैं। किंतु इन सबसे इतर जिस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ हैं वो दुखद हैं। आज ही जसवंत सिंह ने अटल जी से मुलाकात की हैं और सुधीन्द्र कुलकर्णी के सैद्धांतिक कारणों से त्यागपत्र के बाद भाजपा में उत्पन्न होने वाली नवीन परिस्थितियाँ वास्तव में भारतीय राजनैतिक पटल पर महत्वपूर्ण हो सकती हैं।
Saturday, August 22, 2009
इस छोटे से बालक से कौन डरेगा
अप्रवासी जीवन की सबसे बड़ी असमंजस भरी बात होती हैं कि "साम दाम दंड भेद" किसी भी जुगत से अपने बच्चों को अपने व्याप्त देसीपन की घुट्टी कैसे परोसी जाए। इसी ध्येय से प्रेरित होकर हम अक्सर ही बच्चों को कुछ न कुछ भारतीय परोसते रहते हैं.... फ़िर चाहे वो भारतीय किस्से हों या चलचित्र हो... अक्सर इस भारतीयता के उन्माद में हम यह भी भूल जाते हैं कि जो हम परोस रहें हैं वो बच्चे ग्रहण भी कर रहे हैं या वे अपनी ही समझ से कुछ और सीख रहे हैं....
हमारे एक मित्र हैं (नाम नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मेरे मित्रगण जो इस चिठ्ठे को नियमित पढ़ते हैं उनको भी जानते हैं) जिनके दो पुत्र हैं दोनों में लगभग २ साल का अन्तंर हैं। कुछ सप्ताह पूर्व मैं उनके घर गया तो पाया कि दो बच्चों के बावजूद घर में जबरजस्त शान्ति हैं। इस अभूतपूर्व शान्ति से घर का सारा माहौल भी असहज सा लग रहा था। थोडी देर की औपचारिकता के पश्चात् मुझसे भी नहीं रहा गया, तो मैंने पूछ ही लिया की बच्चे इतने शांत क्यों हैं (इस प्रकार का परिवारिक मसलों का अतिक्रमण देसी भाई ही कर सकते हैं) । इस पर हमारे मित्र महोदय बोले - "यार! पूछो मत इन बच्चों ने नाक में दम कर रखा हैं। दोनों को 'टाइम आउट' दिया हैं। अब यहाँ बच्चों को अनुशासित करने के लिए मार तो सकते नहीं, तो टाइम आउट से काम चलाना पड़ता हैं" । मेरे अनुभव में अमेरिका में देसी बच्चों के लिए टाइम आउट ही सबसे ज्यादा प्रयुक्त सजा हैं जिसमे बच्चों को थोडी देर का एकांत दे दिया जाता हैं। किंतु यह सजा भी कुछ समय के बाद अपना असर खो देती हैं - हमारी बिटिया तो टाइम आउट मिलने पर ज्यादा खुश होती है ( -चलो कुछ क्षण डांट-डपट से पिंड तो छूटा) हमारे ज़माने तो बापू के थप्पड़ के डर से ही पता नही क्या-क्या हो जाता था ।
हमने भी आगंतुक की भूमिका निभाते हुए कहा - "क्या यार, इतने तो सीधे -साधे बच्चे हैं। इनको काहे को हड़का के रखा हैं। हुआ क्या?"। इस पर उन्होंने हमे बताना शुरू किया - "इन शैतानो को मैं दिखाने के लिए "बाल-गणेशा" की सीडी लाया था।" हमारे मन ने उसी क्षण एक जोर का झटका धीरे से खाया - भइया इ आधुनिकता की मिसाल कौनो न कौनो रूप में सामने आ ही जाती हैं - योग का योगा, गणेश का गणेशा!! अरे भइया भगवान् का नाम तो नहीं बिगाडो!! पर मन को हमने भी औपचारिकता के आँचल में ढककर मौन का सहारा लिया। उन्होंने अपना कथन जरी रखा - "मैंने सोचा भक्ति भावः से भरी पिक्चर हैं..कार्टून के साथ...कम से कम दोनों कुछ तो जानेगे अपने देवी-देवताओं के बारे में, अपने कल्चर के बारे में....कुछ समझ तो बनेगी हमारी पौराणिक कहानियों की.....इन दोनों ने भी बड़ा मन लगाकर कर पुरी पिक्चर देखी!!" मैंने हामी भरकर उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस कथांकन में अभी भी उनके साथ हूँ। उन्होंने कहानी को आगे विस्तार दिया..."भइया हमने सोचा था कि पिक्चर देखकर कुछ गणेशा के बारे में सीखेंगे पर ई दोनों असुरों से सीख लिए..." उनकी आंखों और वाणी में क्रोध और वेदना के मिले जुले भावः स्पष्ट उभर आए। हमारे ह्रदय में भी इस रहस्य और उसके आसुरी पक्ष को जानने की उत्कंठा भी तीव्र हो गई। हमने फिर निशब्द हामी भरी और उन्होंने आगे कहा - "पिक्चर देखने के बाद , शाम को यह दोनों सब-डिविजन (मुहल्ले) के बाकी बच्चों के साथ खेलने लगे ...तुमको तो पता हैं छोटा वाला बड़े वाले का चेला हैं...सो सारे बड़े वाले के दोस्तों ने मिलकर खेल-खेल में बाल-गणेशा का मंचन शुरू कर दिया । छोटा वाला गणेशा बना और बाकी सभी राक्षस... पिक्चर के एक सीन में बाल-गणेशा सारे राक्षसों को ललकारता हैं। उसपर सारे राक्षस बाल गणेशा को यह कह कर नकार देते हैं - "इस छोटे से बालक से कौन डरेगा" किंतु राक्षसों को गणेशा को हल्के लेना काफी भारी पड़ता हैं और गणेश उन सभी का काम-तमाम कर देता हैं। हमारे बड़े साहबजादे ने भी अपने दोस्तों के साथ राक्षस दल का नेतृत्व किया लेकिन हराने के लिए तैयार नहीं थे...इनके सारे दोस्तों ने मिलकर कर छोटे वाले को इतना पीट दिया कि उसका हाथ ही टूट गया...चेहरा भी सूज गया हैं - अब बताओ इन दुष्टों को सजा न दूँ तो क्या करुँ?"
उनकी कहानी सुनकर हमसे उनसे उस वक्त कुछ भी कहते न बना । थोडी देर बाद जब हम उनके घर से निकले तो बस यही सोचते हुए कि आजकल के बच्चे - बाप से बाप !!
Friday, August 14, 2009
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
वंदे मातरम्। वंदे मातरम्।।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हुन्दुभुमे सुखं वर्धितोहम
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते
आज राष्ट्र उत्थान की कामना के साथ और
स्वतंत्रता पथ न्यौछावर अमर शहीदों की स्मृति के साथ
अपने भेदभावों को बिसराकर आओ प्रण करें कि
इस वैश्विक विस्तार के युग में, हम जहाँ भी हो, जैसे भी हों ,
भारत के आदर्शों को कभी नहीं भुलायेंगे ।
ईश्वर हम सबको इतना सामर्थ्य प्रदान करे कि
राष्ट्र गरिमा और राष्ट्र रक्षा के लिए
हम अपना सर्वस्व भी बलिदान करने से कभी पीछे न हटे।
सभी श्रद्धेय जन और राष्ट्र-प्रेमी भारतवासियों को स्वतंत्रता-दिवस की हार्दिक बधाई।
Wednesday, August 12, 2009
विदेशी बाबाओं और तांत्रिकों का खेल
सच, इस तरह की दुकाने सिर्फ़ भय और भविष्य के दिवास्वप्न पर ही पलती हैं। कई बार व्यक्ति हताशा और असफलताओं के ऐसे दुष्चक्र में फंसा होता हैं कि डूबते को तिनके का सहारा वाली आस के साथ इन महानुभावों के जंजाल में फंस जाता हैं। भारत में ही कितने कांड अक्सर ही सुनने को मिल जातें हैं। लोग जलती चिता नहीं छोड़कर आते हैं, लाशें कब्र से खोद कर निकल लेते हैं, बच्चों को चुरा के नरबलि जैसी घृणित कृत्यों की कितनी कहानियाँ मिल जाती हैं। हमारे भी एक सहयोगी ने इन बाबाओं के चक्कर में कई हजार डॉलर फूँक डाले थे। उनकी कहानी भी फोर्ड से नौकरी जाने से हुई। कहते हैं कि बुरा वक्त हर तरफ से घेरकर आता हैं... उस बिचारे के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, उसकी कार का एक्सीडेंट हुआ, फ़िर उनकी पत्नी का गर्भपात भी हो गया। उनको लगा कि किसी ने गाँव से भूत प्रेत हांक दिया हैं (क्योंकि दुर्भाग्य से वे नौकरी जाने से पहले भारत में अपने गाँव होकर आए थे)। उनके इस विचार की पुष्टि उनके गाँव में रहने वाले वृद्ध पिताजी ने भी यह कह कर दी कि हाँ हमारे पट्टीदार (रिश्तेदार) ऐसा कर सकते हैं। फ़िर क्या था, जी टीवी पर आने वाले एक बाबा की शरण में वे जा पहुंचे और बाबा ने १४ दिनों में स्थिति सुधार का गारंटी वाला वादा करके पूजा शुरू कर दी (और उनसे अच्छे खासे पैसे भी वसूले। इन बाबा का धाम तो ब्रिटेन में था, सो उन्होंने आनन-फानन पैसा भिजवाया। १ माह बाद भी जब हमारे मित्र की नौकरी नहीं लगी, तो उन्होंने बाबा से फ़िर दूरभाषीय आशीष लिया। बाबा ने बताया कि यह कोई साधारण भूत नहीं हैं , कोई बलशाली जिन्न हैं और बाबा को १४ दिन की और तपस्या करनी पड़ेगी....समाधान वही कि पैसा भेजो और २१ ब्राह्मण को भोजन कराओ, सफ़ेद वास्तुओं का अपने वजन के हिसाब से दान करो इत्यादि। बाबा ने कई दिनों तक हमाए बंधू को इन्ही टोने-टोटकों से व्यस्त रखा। अब यह इकोनोमी तो बाबा के जिन्न से भी बड़ी चीज निकली, सीधी होती ही नहीं थी तो नौकरी कहाँ से लगती... इसके चलते तो कई और जिन्न पनप गए होंगे... तो हमारे मित्र की भी नौकरी नहीं लगी। कई हजार की चपत के बाद हमारे बंधू अपनी अंध-विश्वास की निद्रा से जागें तो उन्हें अहसास हुआ कि कोई और नहीं बाबा रुपी जिन्न ही उनके पल्ले पड़ गया हैं। अब मुक्ति के उपाय से ज्यादा उन्हें अपने स्थिति सुधार की गारंटी पर खर्च किए पैसे याद आए। उन्होंने फ़िर बाबा का नम्बर खडकाया कि बाबा कुछ हो नहीं रहा हैं अब आप पैसे वापस करो। बाबा ने किसी स्टोर के मिंजर की तर्ज पर एक फ्री पूजा ऑफर थमा दिया। एक माह बाद जब फ्री पूजा से भी बात नहीं बनी तो हमारे मित्र ने बाबा को फ़िर गारंटी याद दिलाने के लिए फ़ोन किया। अब बाबा भी जान चुके थे कि यह चेला हाथ से निकल चुका, अब यह गाय दुधारू नहीं रही, सो बाबा अन्य कामो में व्यस्त होगए । हमारे मित्र कई दिनों तक बाबा को पकड़ने के लिए दूरभाष कंपनियों के लाभांश बढाते रहे। फ़िर एक दिन जब उनकी बची-खुची खुमारी भी उतर चुकी थी तब उन्होंने तैस में आकर गारंटी वाले पैसे बाबा के फ़ोन का जबाब देने वाले चेले से ही मांग डाले। उसके बाद तो बाबा का रूप ही बदल गया। हमारे मित्र के अगले काल पर बाबा ने उससे बात की और यह धमका डाला कि मेरे पास तेरे वाले जिन्न से भी बड़े जिन्न हैं... तेरी जो एक बच्ची बची हैं में उसको भी छीन लूँगा....उसके बाद से हमारे मित्र एकदम शांत हो गए... अभी हाल में ही भारत लौट भी गए....
पर आप ही बताएं ऐसे बाबा को चुंगल में कितने लोग फंसे होंगे। ऐसे बाबाओं की दूकान बंद होने में ही भलाई हैं।