कई दिनों से लिखने का प्रयास कर रहा हूँ परन्तु पता नहीं क्यों कोई भी लेख पूरा नहीं कर पा रहा हूँ... ऐसा भी नहीं कि विषय नहीं मिल रहा. विषयों की विवधता भी कम नहीं हैं, किन्तु जब भी कुछ शुरू करता हूँ अधलिखा लेख छोड़ कर उठ जाता हूँ, विचार पूर्णता और संतुष्टि के मापदंडों पर खरे उतरने के पहले ही दम-तोड़ते नज़र आते हैं.... किनते ही विषय पर पोस्ट आधी-अधूरी पड़ी हैं. कितनी ही कहानियों के पात्र अपने चरित्र का विस्तार पाने के लिए मेरी राह देख रहे हैं, कितने ही संस्मरण स्मृति-पटल और चिठ्ठे के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते हुए मुक्ति की आकांक्षा पाले हैं...
शुरू-शुरू में तो आलस्य वश, फिर बच्चों की छुट्टियों के समाप्त होने के नाम पर, कई आत्म-निर्मित बहानों की ओट में लिखना टालता रहा. हाँ, इस काल में ले देकर कुछ कविताओं का सृजन हुआ पर सार्थक एवं गंभीर विषयों से दूरी बनी रही...कभी कभी मन को बहुत समझा कर लिखा भी तो लेख प्लूटो के समान ही विषय रुपी सूर्य से कई कोसों दूर की परिक्रमा करता लगा....कुछ समझ न आने के कारण कुछ दिन शहर के बाहर भी घूमकर आया किन्तु कार्य, परिवार और सामाजिक निर्वहन के बीच 'स्वान्तः सुखाय' वाला लेखन कहीं भटक गया है....स्वयं को आल्हादित करने वाली बात नहीं बन पा रही
आजकल तो हालत ऐसे चल रहे हैं कि कभी-कभी तो अध्धयन करने से कतरा जाता हूँ... अपनी बारहवीं कक्षा के दिन याद आ जातें हैं जब मेरी निद्रा और पिताजी के पद-चापों में एक दूसरे को परास्त करने की प्रतिस्पर्धा सदैव बनी रहती. अभी हाल में कई रात उस काल के समान किताबों की चिलमन ओढ़कर निद्रा-सुख भी लिया. हाँ! पिताजी कुपित होने को आसपास नहीं थे (वो तो अपनी लखनऊ की प्रारंभिक ठण्ड का आनंद ले रहे होंगे) , तो भी पत्नी ने उनकी कमी कदापि भी खलने नहीं दी. किताबें छानने के भागीरथी प्रयासों से बचने के लिए ऑडियो पुस्तकों की शरण भी की किन्तु कई बार कानो और मस्तिष्क की दूरी मानो नक्षत्रों सी हो गई. ऐसा लगा कि कुछ प्रकाश वर्षों के बाद ही मष्तिष्क को पता चलेगा कि क्या सुना...वैसे तो इस प्रकार की दूरी भार्या-संवाद और भारतीय चलचित्रों के दौरान बनाना तो एक कला हैं किन्तु उस कला की पुनरावृति ऑडियो पुस्तकों के श्रवण के दौरान होना आश्चर्यजनक ही था....
बड़ा जतन करके जो कुछ कविताएँ और ग़ज़लों को लिखा तो उन्हें भी दोहराने का प्रयास नहीं किया . सभी वर्तनियों की त्रुटियों से यूँ भरी थी कि मानो किसी माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेर की पहली रिलीज़ हो...माना कि एक पाठ दुहराने की हमारी आदत पुरानी हैं किन्तु आजकल न जाने कहाँ नदारद हो गई हैं. . इश्क के मामले में तो कई सौ बार दिल लगाया तब जाकर दिल-लगाना सीखा...मधुबाला से लेकर रेखा, डिम्पल और सोनम कपूर तक का सफ़र न जाने किनती मोहल्ले, कॉलोनियों, स्कूल कालेजों से होता हुआ हमारी पत्नी पर आकर रुका, पता नहीं... वो बात अलग है कि अब भी पत्नी को विश्वास दिलाना कठिन हो जाता हैं. "आई लव यू" जैसे सार्वभौमिक शब्दों की पुनरावृति , लगभग दस वर्षों की तपस्या और दो बच्चों की गवाही भी इस मामले में प्रभावहीन हो जाती है. किन्तु इससे आप यह अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि हर बात दुहरा कर पक्का कर लेना मेरी (प्राचीन?) स्वभावगत विशेषताओं में शुमार था. पर वर्तमान में वो तो नेताओं पर हमारे विश्वास की तरह लोप ही हो गई हैं. ऐसा मैं यूँ ही नहीं कह रहा हूँ आप साक्ष्य के तौर आप मेरे "जीवन के पदचिन्ह" चिठ्ठे की नवीन रचना देख सकते हैं, जो इसी विषय-वस्तु पर हैं और त्रुटियों से भरी थी. (भला हो आदरणीय अरविन्द मिश्रा जी का जो उन्होंने मेरा ध्यानाकर्षण इस ओर करके मुझे अपनी त्रुटियों को सुधारने का अवसर प्रदान किया )
ऐसा ही हाल सरयूपारीण वाले चिठ्ठे का हैं...कई निबंध भारतीय रक्षा बेडों में पड़े मिग विमानों की तरह चंद उद्धरण रुपी कलपुर्जों के अभाव में जंग खा रहे हैं...वहां तो निबंध पूरा किये हुए इंतना समय हो गया है कि कभी-कभी भय लगता है कि मेरे आदरणीय पाठक और मार्गदर्शक यह न समझ ले कि अपने चंद्रयान की तरह लम्बा-चौड़ा अभियान काट-छाँट कर अपने उद्देश्य पूर्ति से पूर्व ही समाप्त हो गया . अभी तो वहाँ विषय के धरातल की सतह को परखा ही था -ख़ुशी ख़ुशी जल ढूँढने की घोषणा के पहले ही लेखन का खरमास आ गया. मैं अपने सभी साथियों को यह आश्वस्त करूंगा कि शीघ्र ही वहाँ मैं इस लेखन का ग्रहण समाप्त करूंगा. ईश्वर बस इतना समरथ प्रदान करें कि यह आश्वासन भारत के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की तरह बनकर न रह जाए. वैसे तो सरकार की भांति हम पंचवर्षीय योजना बनाकर हर बार एक ही प्रयोजन तो (बार-बार) प्रयोग नहीं कर सकते. अतः अब सार्वजानिक रूप से कहने के बाद तो संभवतः अपना वादा निभाने की कोशिश करनी ही पड़ेगी वरना आज से दस-ग्यारह वर्ष बाद कोई सुश्री पाठकों में से कोई भी डॉ. संथानम की तरह आकर कहेगा कि मेरे वादे भी पोखरण-२ की तरह फुस्सी निकल गए....
जैसे हमारे गाँव देहात में कभी-कभी बुरे ग्रहों के दुष्चक्र से निकालने के लिए वृक्ष, गोरु, स्वान किसी से भी बालक या बालिका का विवाह संपन्न करा दिया जाता हैं...वैसे ही सोचता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने भी आलस्य रुपी दुष्चक्र को तोड़कर बाहर निकलूँ. अपने विचार रखकर अब भयभीत भी हूँ कि अपने आलस्य को ग्रहों के कारण बताने से चिठ्ठाजगत में चल रहे जोरदार बवंडर में न आ जाऊं. कृपया मेरे डिस्क्लेमर को यूँ समझा जाए कि मेरी ग्रहों में सिर्फ इतनी ही आस्था हैं कि मैं अपनी विज्ञान वेधशाला का निर्माण अपने पंडित की सलाह के बिना नहीं करा सकता...अंत में इस विश्वास के साथ कि जिस प्रकार कांग्रेस के युवा नेतृत्व ने पिछले चुनावी समर में नैया पार लगाई थी उसी प्रकार मेरी यह पोस्ट भी इस महा-आलस्य के भंवर से नेरी नैया पार लगायेगी. और साथ ही मेरी भविष्य में आने वाली पोस्टों को आप लोग चाँद-फिजा के फ़साने की तरह अल्पावधि में न भुलाकर लैला-मजनूँ के प्रेम कहानी की तरह याद रखेंगे...
आलस्य-आच्छादित
अप्रवासी
बड़ा जतन करके जो कुछ कविताएँ और ग़ज़लों को लिखा तो उन्हें भी दोहराने का प्रयास नहीं किया . सभी वर्तनियों की त्रुटियों से यूँ भरी थी कि मानो किसी माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेर की पहली रिलीज़ हो...माना कि एक पाठ दुहराने की हमारी आदत पुरानी हैं किन्तु आजकल न जाने कहाँ नदारद हो गई हैं. . इश्क के मामले में तो कई सौ बार दिल लगाया तब जाकर दिल-लगाना सीखा...मधुबाला से लेकर रेखा, डिम्पल और सोनम कपूर तक का सफ़र न जाने किनती मोहल्ले, कॉलोनियों, स्कूल कालेजों से होता हुआ हमारी पत्नी पर आकर रुका, पता नहीं... वो बात अलग है कि अब भी पत्नी को विश्वास दिलाना कठिन हो जाता हैं. "आई लव यू" जैसे सार्वभौमिक शब्दों की पुनरावृति , लगभग दस वर्षों की तपस्या और दो बच्चों की गवाही भी इस मामले में प्रभावहीन हो जाती है. किन्तु इससे आप यह अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि हर बात दुहरा कर पक्का कर लेना मेरी (प्राचीन?) स्वभावगत विशेषताओं में शुमार था. पर वर्तमान में वो तो नेताओं पर हमारे विश्वास की तरह लोप ही हो गई हैं. ऐसा मैं यूँ ही नहीं कह रहा हूँ आप साक्ष्य के तौर आप मेरे "जीवन के पदचिन्ह" चिठ्ठे की नवीन रचना देख सकते हैं, जो इसी विषय-वस्तु पर हैं और त्रुटियों से भरी थी. (भला हो आदरणीय अरविन्द मिश्रा जी का जो उन्होंने मेरा ध्यानाकर्षण इस ओर करके मुझे अपनी त्रुटियों को सुधारने का अवसर प्रदान किया )
ऐसा ही हाल सरयूपारीण वाले चिठ्ठे का हैं...कई निबंध भारतीय रक्षा बेडों में पड़े मिग विमानों की तरह चंद उद्धरण रुपी कलपुर्जों के अभाव में जंग खा रहे हैं...वहां तो निबंध पूरा किये हुए इंतना समय हो गया है कि कभी-कभी भय लगता है कि मेरे आदरणीय पाठक और मार्गदर्शक यह न समझ ले कि अपने चंद्रयान की तरह लम्बा-चौड़ा अभियान काट-छाँट कर अपने उद्देश्य पूर्ति से पूर्व ही समाप्त हो गया . अभी तो वहाँ विषय के धरातल की सतह को परखा ही था -ख़ुशी ख़ुशी जल ढूँढने की घोषणा के पहले ही लेखन का खरमास आ गया. मैं अपने सभी साथियों को यह आश्वस्त करूंगा कि शीघ्र ही वहाँ मैं इस लेखन का ग्रहण समाप्त करूंगा. ईश्वर बस इतना समरथ प्रदान करें कि यह आश्वासन भारत के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की तरह बनकर न रह जाए. वैसे तो सरकार की भांति हम पंचवर्षीय योजना बनाकर हर बार एक ही प्रयोजन तो (बार-बार) प्रयोग नहीं कर सकते. अतः अब सार्वजानिक रूप से कहने के बाद तो संभवतः अपना वादा निभाने की कोशिश करनी ही पड़ेगी वरना आज से दस-ग्यारह वर्ष बाद कोई सुश्री पाठकों में से कोई भी डॉ. संथानम की तरह आकर कहेगा कि मेरे वादे भी पोखरण-२ की तरह फुस्सी निकल गए....
जैसे हमारे गाँव देहात में कभी-कभी बुरे ग्रहों के दुष्चक्र से निकालने के लिए वृक्ष, गोरु, स्वान किसी से भी बालक या बालिका का विवाह संपन्न करा दिया जाता हैं...वैसे ही सोचता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने भी आलस्य रुपी दुष्चक्र को तोड़कर बाहर निकलूँ. अपने विचार रखकर अब भयभीत भी हूँ कि अपने आलस्य को ग्रहों के कारण बताने से चिठ्ठाजगत में चल रहे जोरदार बवंडर में न आ जाऊं. कृपया मेरे डिस्क्लेमर को यूँ समझा जाए कि मेरी ग्रहों में सिर्फ इतनी ही आस्था हैं कि मैं अपनी विज्ञान वेधशाला का निर्माण अपने पंडित की सलाह के बिना नहीं करा सकता...अंत में इस विश्वास के साथ कि जिस प्रकार कांग्रेस के युवा नेतृत्व ने पिछले चुनावी समर में नैया पार लगाई थी उसी प्रकार मेरी यह पोस्ट भी इस महा-आलस्य के भंवर से नेरी नैया पार लगायेगी. और साथ ही मेरी भविष्य में आने वाली पोस्टों को आप लोग चाँद-फिजा के फ़साने की तरह अल्पावधि में न भुलाकर लैला-मजनूँ के प्रेम कहानी की तरह याद रखेंगे...
आलस्य-आच्छादित
अप्रवासी
6 comments:
होता है...होता है, ऐसा भी होता है अक्सर
अरे सुधीर भाई...बस इतनी सी बात ...लो हम धांसू आईडिया दिये देते हैं....जब भी ये हो ...आप खूब पढिये और दूसरों को अपनी टीप दीजिये...देखिये टाईम कैसे निकल जायेगा...और नये आईडिये भी...मिल जायेंगे....
बढ़िया आलेख!
विजयादशमी पर्व की आपको शुभकामनाएँ!
Bahut Khoob Janab.
Jeevan ki iss badi or dheemi naav main hum bhi aap key saath hain,
thodi-thodi mehnat har ke apnay Laksh par pahunch hi jayengey.
Roaj-Marra ki bhaag-daud main bahut saarey kaam tal jate hain,
Zyada chinta karengey to poorey kaam bhi adhurey nazar aayengey.
Dheeraj Rakhhain or masti ka malhaar gayain ... Naye Vicharon ki baarsaat apney aap ho jayegi :)
भाई हमारे साथ भी ऐसा होता है |
बाकी आपने बहुत बढिया लिखा है ....
सब के साथ यही होता है और जो संवेदनशील होते हैं वो कई बार अटक जाते हैं मगर उनकी संवेदनायें कुछ अच्छा खोजने मे रहती हैं और फिर एक दिन वो और निखर कर बाहर आते हैंाप भी कुछ अच्छा ढूँढ रहे हैं बहुत बहुत शुभकामनायें
Post a Comment