Sunday, August 23, 2009

भाजपा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडम्बना ही हैं कि सारे के सारे मुख्या-धारा के राट्रीय राजनैतिक दल लोकतान्त्रिक दलगत ढांचे में विश्वास नहीं करते हैं। हमारी कांग्रेस जहाँ राजवंश मोह से च्युत नहीं हो पाती, वहीं बासपा बहन जी से बाहर नहीं सोच सकती हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में भी गिने चुने चेहरे ही हैं। भाजपा - "अ पार्टी विद डिफरेंस" से कम से कम ऐसी अपेक्षा थी कि वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी अभिव्यक्ति को दलगत राजनीति की परिधियों से बाहर रखेगी । किंतु पिछले कुछ वषों में पार्टी सोच की एक पूर्व-निर्धारित लीक से हटकर नहीं सोच पा रही हैं। हिंदुत्व और राष्ट्रीयता के मुद्दों में अपनी स्थिति भी स्पष्ट रूप से नहीं रख पा रही हैं। जहाँ संघ से अपेक्षित रूप से जुडा रहकर कर अतिवादी हिन्दू विचारधारा का समर्थन भी करना चाहती हैं वहीं दूसरी ओर सर्व-लुभावन पार्टी भी दिखना चाहती हैं। इस प्रकार विचारधारा के दो छोरों के बीच दल की डावाडोल स्थिति ने दल के नेतृत्व से जुड़े लोगों के लिए भी असमंजस और दिशाहीनता ही प्रदान की है। एक लंबे अरसे से दल के ध्वजारोही रहे कल्याण,उमा भारती आदि इसी वैचरिक द्वंद के चलते पार्टी से बाहर निकाल दिए गए । ऐसा प्रतीत होता हैं कि दल की सोच के स्थापित मापदंडों से बाहर सोचना संघ और भाजपा के वर्तमान नेतृत्व के साह्य नहीं हैं।


इसी क्रम में नवीनतम कड़ी हैं जसवंत सिंह। उन्हें जिन्ना पर अपने विचारों को प्रकट किया नहीं कि जिस दल के वे संस्थापक सदस्यों में से थे उसी ने उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। दल ने पहले ही स्वयं को, उनके जिन्ना सम्बन्धी विचारों को उनके व्यतिगत विचार बता कर , उनके कथन से दूर कर लिए था। फ़िर दल के चिंतन बैठक के पूर्व बिना किसी चेतावनी के, बिना उनका पक्ष सुने निष्काषित करना मात्र तानाशाही का प्रतीक हैं। दलगत लोकतंत्र के मूक एवं निर्मम वध हैं। हाल में ही हुई चुनावों में दल की पराजय के वास्तविक कारकों के निर्धारण और विश्लेषण के स्थान पर ऐसा अनुचित कदम नहीं उठाते। जसवंत सिंह ने कई बार दल के लिए विषम स्थितियां खड़ी की हैं और संभवतः दल उनसे इसी कारण निजात पाना चाहता हो । उनके ऊपर भ्रष्टाचार, अफीम, चुनावी नोट-वोट कांड, पुत्र मोह और कंधार जैसे कई विवादस्पद आरोप रहे हैं। किंतु उसके बावजूद उनका इस प्रकार से दल-निष्कासन किसी भी प्रकार उचित नहीं हैं।

अडवाणी जी ने भी जिन्ना की मजार पर जाकर मत्था टेका ही था। संघ ने नाराजगी तो दिखाई थी पर आसानी से इस आधार पर क्षमादान भी दे दिया था कि वो अडवाणी जी का व्यक्तिगत मत हैं। अडवाणी जी ने भी जिन्ना के भाषणों और अन्य विचारों और पत्रों के आधार पर अपने व्यक्तव्य को सत्य स्थापित करने का प्रयास किया था। आज जब जसवंत सिंह ने भी वही बात की तो इतना शोर क्यों हैं? मुझे तो राम चरित मानस का वो प्रसंग याद आता हैं जब मंदोदरी और विभीषण दोनों ने ही राम को सीता ससम्मान लौटने का अनुरोध किया था। रावन ने जहाँ मंदोदरी को हंसकर गले लगा कर समझाया वहीं बिचारे विभीषण को भरी सभा में पदाघात और राज-निष्कासन का दंड मिला। ऐसा ही कुछ जसवंत के साथ भी हुआ। यूँ तो इन्टरनेट पर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के सर्वे में अधिकांशतः लोगो ने भाजपा को आडवाणी और जसवंत के लिए दोहरे मापदंडो के लिए कठगरे में खड़ा किया हैं। किंतु इन सबसे इतर जिस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ हैं वो दुखद हैं। आज ही जसवंत सिंह ने अटल जी से मुलाकात की हैं और सुधीन्द्र कुलकर्णी के सैद्धांतिक कारणों से त्यागपत्र के बाद भाजपा में उत्पन्न होने वाली नवीन परिस्थितियाँ वास्तव में भारतीय राजनैतिक पटल पर महत्वपूर्ण हो सकती हैं।

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई!
कुएँ में भाँग घुली है।
सभी दलों का एक जैसा ही हाल है।

ss said...

असमंजस की स्थिति का सटीक बयान किया है आपने| लेकिन यह भी सोचने की बात है की अगर जसवंत जी को निष्काषित नहीं किया जाता तो उसपर भी बखेडा खडा किया जाता| क्या देशवासियों, मीडिया में गांधी जी, पटेल, नेहरु के बारे में विचारों को सुनने का धैर्य है?

BJP की स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो गयी है| जिन्ना जिन्ना रटने से मुसलामानों का वोट तो मिलने से रहा, स्थायी मतदाता जरूर दूर होते जा रहे हैं|

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