Friday, February 27, 2009
राणा सांगा के पास डॉक्टर नहीं था क्या?
तो आज भी मैं नित्य की भांति अपने कक्ष में दरवाजा बंद करके चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था और ज़ी न्यूज़ पर भारतीय क्रिकेट टीम की न्यूजीलैंड के हाथों हुई हाल की पराजय के कारण धज्जियाँ उडाई जा रही थी। ऐसे में मेरी सात वर्षीया पुत्री भारी चीत्कार के साथ कमरे में प्रविष्ट हुई। आंखों से मानो न्यागरा फाल सा जल प्रपात गिर रहा था। पूंछने पर ज्ञात हुआ की प्रिंटर से पेपर उठाते हुए पेपर कट हुआ हैं। मैं ज़ी न्यूज़ (या व्यूज) को छोड़ा और इस भीषण समस्या से निपटने के लिए मुखातिब हुआ (सच मानिये, मेरी ७ वर्षीया बिटिया के साथ हर घटना आसमान गिरने से कम नहीं होती)। मैंने पहले तो चोट का मुआयना किया और फिर इस छोटे सी खरोंच पर बड़ा सा बैंड-ऐड लगा दिया। इस उपचार से रुदन सिसकियों में परिवर्तित हो गया। अब मुझे सिसकियों को शांत करने का जतन करना था।
बेटी को दिलासा देने के पूर्व मेरी अप्रवासी ग्रंथि ने जोर मारा और मैंने दिलासा को इतिहास के पाठ में बदलने का प्रयास शुरू कर दिया...मैंने पूंछा "आपको राणा सांगा का नाम पता हैं?"...रोते रोते वो बेचारी एक पल को शांत हो गई (यह मेरे इतिहास पाठ का भय था या खरोंच का दर्द या रोने के कारण रुंधा हुआ गला मुझे नहीं पता) । फिर एक अजीब सी दृष्टि के साथ उसने सिसकते हुए पूंछा "रैना सैन्गा ये कौन हैं"। हमने अपनी विलायती पुत्री के उच्चारण को नज़र अंदाज करते हुए कहा कि वो भारत में हुए बहुत बड़े प्रतापी राजा थे (मेवाड़ कह कर हम विषय को और गंभीर नहीं करना चाहते थे।) उनकी कहानी तो हम आपको रात को सुनायेंगे पर वो इतने बहादुर थे कि एक बार युद्ध में उन्हें नब्बे भाले लगे और वो फिर भी लड़ते रहे - बिना किसी दर्द के। और आप तो इतनी सी चोट से डर गए। आप तो पापा कि बहादुर प्रिंसेस हो न - फिर क्यों रोते हो?" उसने अपनी सिसकियाँ भूलकर अत्यन्त ही विस्मय के साथ मुझे देखा और कहा - "नब्बे भाले? पापा क्या उनके पास डॉक्टर नहीं था - पहले ही भाले के बाद उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए था"
Sunday, February 22, 2009
...वो स्कूल छोड़कर देखी पहली पिक्चर
हम लोग सातवी या आठवीं के छात्र रहे होंगे कि एक चलचित्र "राम तेरी गंगा मैली" आयी थी। इस चलचित्र ने थोड़े ही समय में विशेष प्रसिद्धी पा ली थी । हमारी दोस्त मंडली में विशेष उत्सुकता थी कि मैला क्या हैं। आख़िर इस गंगा का प्रदुषण क्या ? पर किसी के घर वाले उस फ़िल्म को दिखाने के लिए नहीं ले जा रहे थे। और तो और कुछ मित्र-गण के परिवार वाले तो उस चलचित्र का अपने बच्चों के बिना ही अवलोकन कर आए थे। मंडली में कुछ मित्रों ने समस्या के समाधान के लिए अपने अग्रजों से परामर्श लिया और एक युक्ति निकाली। स्कूल से भागकर १२-३ वाला शो देखा जाए और अपनी जिज्ञासा शांत की जाए।
क्योंकि यह हम सभी का पहला पहला अड्वेंनचर था तो विशेष सावधानी के साथ प्रोग्राम बना। सबसे पहले तय हुआ कि यह योजना केवल भरोसेमंद साथियों से साथ ही बांटी जाए। "ज्यादा भीड़ का मतलब ज्यादा खतरा", सो चंद करीबी दोस्तों को ही साथ लेकर पिक्चर देखी जाए। आख़िरकार स्कूल गुल करके जाना, वो भो कक्षा सात में... किसी दुश्मन देश में होने वाली गुप्त कमांडो कार्यवाही से कम तो नहीं था। सो घंटो इंटरवल में और छुट्टी के बाद, क्रिकेट छोड़कर योजना बनी। योजना के क्रियान्वन के लिए दो समस्याएँ सामने आई - पहली तिथि के निर्धारण की और दूसरी पैसे के जुगाड़ की।
बहुत सोच समझ कर तय हुआ कि स्कूल में होने वाले वार्षिक समारोह की तैयारी के कारण सभी अध्यापक-गण व्यस्त हैं। अतः यदि समारोह से दो तीन पहले निकला जाए तो कक्षा में कोई भी शक नहीं करेगा। सभी अध्यापक यह मान लेंगे कि यह बच्चे किसी प्रोग्राम की तैयारी में बाहर हैं। (हमारा मित्र-मंडल वैसे भी कई कार्यक्रमों में भाग ले रहा था) । अब दूसरी समस्या के लिए तय हुआ की जेब खर्च बचाया जाए पर केवल हमसे कुछ ही खुशनसीब थे जिन्हें यह आगाध धन की सुविधा थी परन्तु टिकेट के लिए तो कुबेर धन की आवश्यकता थी अतः तय हुआ की हफ्ते -दो हफ्ते तक घर से जो कुछ भी सामान खरीदने के लिए पैसे मिले, उससे जितना बचाया जा सके, बचाया जाए। हम सबके परिवार के लिए संभवतः महंगाई दो हफ्ते के शायद थोडी ज्यादा बढ़ गई थी।
फ़िर जितने जिससे बने बचा कर टिकेट का जुगाड़ हुआ। तय दिन हम सब स्कूल गुलकर गुल खिलाने पहुंचे। हम सभी स्कूल ड्रेस में थे पर हमारे अंतर्मन ने झकझोरा की ख़ुद जो भी हैं स्कूल को बदनाम न किया जाए, अतः हमने अपनी कंठ-लंगोट (टाई) उतारकर जेब में डाली और कमीजों को निकालकर बेल्ट्स को छिपाया। इंटरवल तक तो सब कुछ ठीक रहा पर हम सबका दुर्भाग्य कि इंटरवल में हमे हमारे हिन्दी के शिक्षक "मिश्रा सर" सपत्नी मिल गए। डर से कापते हुए हम लोगों ने किसी तरह बची खुची फ़िल्म देखी। और फिर स्कूल का रास्ता लिया। उस दिन तो कुछ नहीं हुआ पर अगले दिन प्राथना सभा में सारे स्कूल के सामने नाम बुलाये गए और बाद में घर वाले ... वो ठुकाई हुई की पूछिये नहीं। अनिल जी के लेख से आज फिर शरीर का दर्द ताज़ा हो आया।
Friday, February 20, 2009
बेवफाई मेरी आदत नहीं, मजबूरी हैं!!
फ़िल्म शालीमार का यह प्रसिद्ध किशोर दा का गीत किसे याद न होगा। कुछ दिनों पूर्व दैनिक जागरण का एक लेख पढ़ रहा था कि "क्यों सोचते हैं स्त्री पुरुष अलग-अलग"। लेख पढ़कर मन ने इस गीत को गुनगुनाना शुरू कर दिया। इस लेख में तमाम कारणों में से जो मुझे सबसे विशिष्ट लगा था - वैज्ञानिक शोधों से यह साबित हुआ है पुरुषों के न्यूरोकेमिकल्स ही बताते हैं कि वे वफा करेंगे, निभाएंगे या बेवफा होंगे। अर्थात उनकी एक जीन (पित्रैक) तय करती है कि वो वफ़ा करेंगे या बेवफाई। यह जीन (पित्रक) जो १७ विभिन्न आकारों की होती है - अपनी लम्बाई के आधार पर तय करती हैं कि कौन -कितना भरोसेमंद और वफादार होगा। जितनी लम्बी जीन उतना वफादार साथी। अतः बेवफाई पुरुषों की आदत या फितरत नहीं वरन उन्हें अनुवांशिक रूप से मिली विरासत हैं -जिसे हम चाहकर भी नहीं छोड़ सकते।
शाम आते आते मन में हलचल सी चलने लगी। अभी तक तो केवल विवाह पूर्व ही कुंडली के स्थान पर लोग रक्त समूह (ब्लड ग्रुप) के मेल कि बात करते थे। अब आने वाले समय तो पुरुषों के लिए और गंभीर चुनौतीपूर्ण होने वाला हैं। लड़कियां दोस्ती से पहले अनुवांशिक विवरण मांगेगी यह तय करने के लिए कि यह साथी उपयुक्त हैं कि नहीं।
जैसा कि आधे से अधिक संगणकीय छात्रों के साथ होता हैं - हम भी विषय विश्लेषण के लिए गूगल बाबा की शरण में गए और झट से वैश्विक ज्ञान के सागर में गोते लगाने लगे। और पूछिये मत कौन कौन सी जीन का कौन सी पुरुषीय प्रणाली कि संचलित करती मिली। मन और भी अधिक व्यग्र हो गया। कोई तलाक तय करती हैं तो कोई रिश्तों कि संतुष्टता और कोई प्यार की उन्मादकता। (कई तो सामाजिक लेख में लिखी भी नहीं जा सकती )। ऐसा लगा कि बिचारे पुरूष तो कुछ करते ही नहीं, जो भी करते हैं यह शरारती पित्रक ही करते हैं।
जहाँ पहले लेख को पढ़कर हमे सोचा था कि चल आज सारी पुरूष जाति को बेवफाई के इल्जाम से मुक्त कर देंगे और सब कुछ इन पित्रको (जीन) के माथे मढ़ देंगे। पर अब सोचते हैं कि पित्रकों पर इल्जाम से तो हमे सारे के सारे पुरुषों को सगोत्र (खानदान सहित) इल्जामित कर दिया हैं। पर चलो, इसका मतलब यह भी हैं कि सम्पूर्ण गलती आदम जी से ही चली आ रहीं, हम लोग तो केवल वाहक मात्र हैं।
व्यग्र,
अप्रवासी
Wednesday, February 18, 2009
कुँआनो का घाट
कुछ समय पूर्व की बात है, मैं सपरिवार अपने ही शहर में स्थित एक झील, केंसिंग्टन, पर पिकनिक मानाने गया था। वहीं झील सारे बच्चे झील के जल में क्रीडा कर रहे थे और मैं तट पर बैठ कर उनकी शैतानियों का आनंद ले रहा था। उनकी जल क्रीडा देखकर मन सहसा ही अतीत के कुछ उन पलों में खो गया जब मैंने भी ऐसे ही पानी में कूद-कूद कर तैरना सीखा था। मेरा ननिहाल जनपद गोरखपुर में कुँआनो नदी की किनारे स्थित एक छोटा सा गाँव 'चाईपुर माफी' हैं। माफ़ी इसलिए क्योंकि अंग्रेजो ने नील की खेती हेतु कुँआनो का जल प्रयोग करने के एवज में कुछ गाँवों को करमुक्त कर दिया था। अपनी ग्रीष्म-कालीन अवकाश के दौरान हम वहीं नदी पर जाकर तैरा करते थे। नाना के घर जाने का एक मजेदार कारण (नानी के प्रेम के अतिरिक्त) वह नदी भी थी। नदी पर तैरना और नाव की सवारी बहुत आनंददायी होती थी। वो आनंद आजतक स्मृति पटल पर धूमिल नहीं पड़ा हैं। उस ज़माने में भी हमारे शहरी जीवन में तो नदियाँ केवल पुल के नीचे से गुजर जाती थी। और दिखती भी कई बैराजो और बांधो की कृपा से नाले जैसी ही थी (चाहे वो लखनऊ की गोमती हो या बरेली की रामगंगा)। अतः चाईपुर जाने का विशेष आकर्षण हमेशा बना रहता था।
धुरियापार (कुँआनो के दुसरे तट स्थित क़स्बा जोकि शहर से जुडा हुआ था) पहुँचते ही घाट से माँ या पिता जी शाहआलम चाचा को आवाज़ लगाते थे। शाहआलम चाचा चाईपुर निवासी, मल्लाह थे जोकि घाट पर लोगो को आर-पार ले जाते थे। (सामाजिक न्याय के लिए कार्यरत, श्रधेय पाठकों के लिए स्पष्ट कर दूँ कि मल्लाह यहाँ कर्मसूचक सन्दर्भ में उपयोग हुआ हैं, जातिसूचक नहीं, शाहआलम चाचा की जाति मुझे पता नहीं) वे जगत चाचा थे पर मैं उन्हें शालाम नाना बुलाता था। मेरे ननिहाल की पुरानी ज़मींदारी के कारण वे विशेष सम्मान के साथ हमे लेने तुंरत आते थे।
हम शहरी बच्चों के आनंद का कारण कुँआनो क्षेत्रीय राजनीति में विशेष स्थान रखती थी। कुँआनो पर पुल को लेकर हमेशा ही राजनीति चलती थी। स्थानीय ब्राम्हणों और ठाकुरों के बीच यदि कोई राजनैतिक आम सहमति थी तो वो कुँआनो पर पुल की आवश्यकता पर ही थी। पुल के अभाव में लोगो को गाँव तक कोई भी भारी वस्तु ले जाने के लिए १०-१५ किलोमीटर लंबा सफर तय करना पड़ता था। बरसाती दिनों में तो यह सफर शाहपुर (एक ओर समीपवर्ती ग्राम) का पीपे-वाला अस्थायी पुल हट जाने के कारण और लंबा हो जाता था।
वर्षों की खींच-तान के बाद कुँआनो पर पुल बन गया, पहले पीपे-वाला; फ़िर पक्का। अब कुँआनो भी शहरी नदियों की तरह मानवीय मेलजोल से वंचित दौड़ती हुयी सड़क के नीचे सहमी हुई सी गुजरने लगी। सन २००६ में जब मैं भारत गया था, तो अपने ननिहाल भी गया। नाना-नानी के स्वर्गवास को तो अरसा हो चुका था किंतु मेरी एक मामी और ममेरे भ्राता-गण अब भी वहीं रहते हैं। चाईपुर पहुँचने में कुछ ही मिनट लगे, ज्ञात भी न हुआ कब कुँआनो के ऊपर से मेरी कार गुजर गयी। मन को सहसा विश्वास भी न हुआ कि चाईपुर आ गया हैं। शाम को सबसे मिलकर, जब मैंने आपने ममेरे भाई से कुँआनो पर जाकर स्नान करने की इच्छा जाहिर की तो वे बड़े ज़ोर से हँसे और बोले कि अब वहां गोरु (मवेशी) भी नही नहाते, तुम विलायती बाबु क्या जाओगे? एक काम करो, बस एक चक्कर लगा आओ। मैं नदी के किनारे उस पुराने घाट पर गया। घाट का तो नामोनिशान भी न था, पुल के लिए सड़क भी घाट से कुछ आगे बढ़कर बनाई गयी थी। न तो वहां शालाम नाना की झोपडी थी और न ही जल-क्रीडा करते बच्चे। नदी में भी सेवार (एक प्रकार की जलीय खर-पतवार) भी ढेर सारी उग आई थी और पानी किसी नाले से भी बदतर। बड़े दुखी मन से मैं उस पुराने घाट को (जो मेरी स्मृति के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टव्य नहीं था) छोड़कर में गाँव की तरफ़ वापस चला। मन सोचता जा रहा था की क्या यहीं विकास हैं, विकास के नाम पर एक संस्कृति का ह्रास, बच्चों के कलरव का नाश...
उस दिन से मन आजतक आहत हैं -शायद इसीलिए आज बच्चों की जलक्रीडा देखकर फिर वहीं घाट की स्मृतियों में खो गया
आहत,
अप्रवासी
Monday, February 16, 2009
...और कुछ ब्लॉग (चिठ्ठे) कुंवारे ही रह गए
ब्लॉग-पोस्ट की रचना के बाद धड़कने तेज रहती हैं कि लोग क्या कहेंगे , पढेंगे भी या नहीं ...ठीक वैसे ही कि मानो ब्लॉग के पाठक न हुए लड़की वाले हो गए जो कि विवाह हेतु ब्लॉग-पोस्ट रुपी लड़के को परखने आ रहे हो। यदि सब ठीक रहा तो १०-१५ में से एक-आध अपनी जग-लुभावन रूपसी , हर दिल कि चाहत अपनी आत्मजा रूपी टिपण्णी का कन्या-दान कर देते हैं। परन्तु असली विडंबना तो यह हैं कि जहाँ कुछ राजसी व्यक्तित्व वाले ब्लॉग-पोस्ट बहु-पत्नी आनंद उठाते हैं वहीं अन्य कुछ जीवनपर्यन्त अविवाहित ही रह जाते हैं। और अचंभित करने वाली बात तो यह हैं कि कई बार यह दोनों तरह के ब्लॉग अक्सर एक ही माँ (लेखनी) की देन होते हैं (यहाँ सादर मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि मेरे कई वरिष्ठ लेखकों के ब्लॉग रुपी पुत्रों ने सदैव हो बहु-पत्नीय व्यवस्था को बनाये रखा हैं पर वे संख्या बल के आधार पर अपवाद ही गिने जायेंगे) इस प्रकार हर ब्लोगीय कुटुंब में कुछ पोस्ट कुवारे ही मिल जायेंगे ।
आईये हम मिलकर यह संकल्प ले की इस ब्लॉग जगत की सामाजिक विसंगति को दूर करेंगे और कम से कम हर ब्लॉग को एक संगिनी अवश्य देंगे।
Saturday, February 14, 2009
बेबी सिट्टर (बाल संरक्क्षिका)
भाभी जो अब तक चुप बैठी थी और टीपू भाई की बातें बड़े संयम से सुन रही थी, बड़ी गंभीरता के साथ बोली "तो आज तक आप यह समझते रहे कि मैंने उसे चिढ कर वापस भेजा था।" टीपू भाई ने भाभी कि तरफ़ भ्रमित नज़रों से देखा औए पुछा "..और नहीं तो क्या?"। भाभी ने टीपू भाई ओर एक कटाक्षपूर्ण निगाह डाली और मेरी तरफ देख कर बोली - "भइया आपसे क्या छुपाना, उस दिन उसके बाद २-३ घंटे तक वो टीवी देखती रही और ये उसे.... फिर मैं कैसे उस मुयी को घर में रहने देती...."भाभी के बात सुनकर हम हतप्रद खुले मुह और अवाक् टीपू भाई को देखते रह गए।
Monday, February 9, 2009
विप्र स्नानं पखे पखे
अभी कुछ देर पहले दैनिक जागरण पढ़ रहा था कि एक समाचार पढ़ते हुए ठिठक गया। समाचार ही कुछ अटपटा था - "नाराज बेटे ने किया मां के खिलाफ केस"। शीर्षक पढ़कर लगा कि अपने किसी देहात का किस्सा हैं। "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी" में आस्था रखने वाले मन सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि अपने राष्ट्र में ऐसा भी कोई कर सकता हैं...अतः समाचार पढ़ना शुरू किया। पढ़कर चैन कि साँस ली कि घटना पोलैंड कि हैं। हुआ ये कि एक २२ वर्षीय व्यक्ति ने आपनी माँ पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा कर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई; कारण माँ ने उसे स्नान करने के लिए कहा था। उसने साथ में, उससे घरखर्च में हाथ बताने के लिए अनुरोध किया था। वास्तव में ही गलती माँ की हैं - इस कलयुग में बच्चों से घरखर्च कि उम्मीद और साथ में नहाने के लिए अनुरोध। वो पीढियां तो कबकी आर्यावत के बाहर विलुप्त हो गयी हैं। (शायद जम्बू द्वीप फिर भी इक्का-दुक्का प्राणी मिल भी जाए किंतु उसके पार तो मिलना मुश्किल ही हैं ।) हमारे बाबूजी होते (या माँ भी) तो पहले दो चपत रसीद करते फिर देते एक घंटा हमारी निष्कर्मण्यता प्रवचन तदुपरांत कहते नहाने के लिए। एक बार ही ऐसा अनुभव होने पर आप ख़ुद ही उसकी पुनरावृति होने नहीं देते।
वैसे तो स्नान से भागने वालों की कमी नहीं हैं - कहा भी हैं "रोज़ स्नानं देह ख्यानम, विप्र स्नानं पखे पखे"। इतनी महंगाई के ज़माने में रोज साबुन पानी का खर्च उठा पाना सम्भव ही कहाँ? रही सही कसर विलायती सर्दी पूरी कर देती हैं...ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में भी सर्दी पीछा नहीं छोड़ती। अतः नहाने धोने की उलझन कौन पाले। हमारे गाँव के पंडित जी तो साल में तीन बार ही नहाते हैं "फगुआ, खिचडी और भातुआन, करुआ पंडित के तीन स्नान।" हमारे एक चाचा (जोकि बड़े भाई की तरह अधिक हैं) तो स्नानगार में मग्गा-मग्गा पानी गिराकर और फिर सर भीगा कर चले आते थे। हमारे दादाजी को उनके पावों की जाँच करनी पड़ती थी यह जानने के लिए कि वे नहायें हैं या नहीं। कभी-कभी तौलिया भी देखा जाता था कि कितना भीगा हैं। एक बार चाचाजी ने बचने के लिए तौलिया कुछ ज्यादा ही भीगा दिया था - बिचारे तब भी पकड़े गए थे। अब जब आर्यावर्त के प्राणियों का स्नान से परहेज हैं तो फिर अन्यत्र का क्या कहना?
Sunday, February 8, 2009
पादुका महिमा
आज शाम से मन में जूता छाया हुआ हैं। कुछ गंभीर मन्नन का मन भी नहीं हैं (आख़िर रविवार की शाम जो हैं) तो सोचा इसी विषय पर विचार उद्धत करुँ। अब आप भी सोचेंगे कि बैठे बठाये यह जूता चर्चा कहाँ से आ गयी। चलिए इस संशय को भी दूर कर दूँ । हुआ यूँ कि हम आपनी सात वर्षीया पुत्री हेतु पहिये युक्त जूते (जिन्हें यहाँ व्हीली कहा जाता हैं) क्रय करने गए। वहीं जूते खरीदते हुए उसे पूछा कि यह जूता चीन का बना हैं, सारी चीजे वहीं क्यों बनती हैं ? सादा सा सवाल था पर मस्तिस्क की चंचलता ने विचार तंत्र को झकझोरना शुरू किया और चिंतन अश्व ने कुचालें लेनी शुरू कर दी। सर्व प्रथम हाल में ही (फरवरी के आरम्भ में) चीनी राष्ट्राध्यक्ष पर ब्रिटेन में जूता फेकने की घटना उभरी और फिर उसने त्रेता में राम पदुकायों पर जाकर ही साँस ली।
पदुकायों अथवा जूतों ने जितना इतिहास को प्रभावित किया हैं उतना शायद ही किसी अन्य परिधान ने किया हो। जूते प्रारम्भ से ही इंसानों की विभिन्न मनोदशा के द्योतक रहे हैं। वे एक ओर जहाँ प्रेम और श्रद्धा, शक्ति, के प्रतीक बने, वहीं वे दूसरी ओर तिरस्कार और अपमान का माध्यम बने। साथ ही जूतों ने मीठी छेद-छाड़ से रिश्तों को बंधा और सजाया भी। ऐसे महान प्रभाव वाले परिधान की महिमा तो महती होगी ही।
इन्ही जूते के आभाव के कारण भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्ष स्थल पर पदाघात करने का घोर पाप किया। यदि वे उपयुक्त पादुकाएं पहनकर श्री नारायण के कक्ष में घुसे होते तो भगवन की चिर निद्रा में अपने आप ही विघ्न पड़ गया होता और फ़िर न भृगु ऋषि को क्रोध आता, ना ही वे भगवान को लात मारते, ना ही लक्ष्मी जी कुपित हो कर संपूर्ण ब्राम्हणों को दलिद्रता का श्राप देती... काश ऋषिवर के पास जूते होते...
जूतों का सबसे विविध वर्णन त्रेता युग में मिलता हैं। जहाँ जूते शासक बने, चिकत्सक बने... राम और भरत प्रेम के साक्षी एवं प्रतीक रहे इन जूतों ने न केवल कौशल राज्य पर लगभग चौदह वर्षों तक सुचारू रूप से शासन किया बल्कि आने वाले रामराज्य की नींव रखी। कहते हैं कि इसी काल में शत्रुघन के जूते की थाप पाकर मंथरा की कुबडी पीठ भी सीधी हो गयी थी। इसी काल में हनुमान जी के शक्तिशाली जूतों ने लंकिनी को एक ही प्रहार में देवलोक की यात्रा करा दी.
आगे जाए लंकिनी रोका। मारेहु लात गयी सुरलोका।।
इन्ही महान जूतों ने द्वापर में भी कम खेल नहीं खेला हैं। भगवन कृष्ण ने कालीनाग मंथन में अवश्य ही जूतों का प्रयोग किया होगा। साथ ही भीम में भी जरासंध विच्छेद हेतु अवश्य ही इनका प्रयोग किया होगा। आप मेरी बातों पर शंशय कर सकते हैं किंतु मेरा मन यह मानने को कतिपय तैयार नहीं की यह द्वंद जूतेविहीन रहे होंगे। किंतु इन सबसे इतर द्वापर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि यदि श्री कृष्ण अपने अन्तिम क्षणों में जूता पहने होते तो बहेलिया क्या खाक उन पर तीर चलता।
जब जूता सतयुग, त्रेता और द्वापर पर इतना गहन प्रभाव छोड़ सकता हैं तो फिर कलयुग की मजाल क्या... इस युग में तो जूता और भी बढ़-चढ़ कर बोला। भोजपुरी के एक लोकगायक बल्लेश्वर ने अपने एक बीराहा गीत में कहा हैं कि लोग आजकल भगवान् से ज्यादा जूतों पर ध्यान लगाते हैं - मन्दिर जाते हैं और भगवान के आगे हाथ जोड़कर बाहर रखे जूतों के बारे में ध्यान करते हैं।
हमारे भारतवर्ष में ये ही जूते रिश्तों की प्रगाढ़ता भी बढ़ते हैं। वो विवाह ही क्या जहाँ जूते न चुराएँ जाए और सालियों से खटपट न हो। विवाह में वर पक्ष के लोग जूतों को किसी राष्ट्राध्यक्ष से कम सुरक्षा नहीं प्रदान करते। वहीं वधु पक्ष भी संपूर्ण योजना के तहत इनके अपहरण के लिए प्रतिबद्ध रहता हैं। किंतु एक बार इनके अपहरण और फिर प्रेम पूर्वक पुनः आगमन के पश्चात् एक ऐसे भावपूर्ण रिश्तें का निर्माण होता हैं जिसकी शाब्दिक व्याख्या नहीं की जा सकती। इतने महान रिश्तों के निर्माता का आधुनिक काल में कुछ पतन तो हुआ हैं। अब इनका उपयोग अनादर हेतु किया जाने लगा हैं। फिर भी, इन जूतों में अपनी महती परम्परा के अंतर्गत लोगो को सुधारना शुरू कर दिया हैं। चोर, उच्चके, भ्रष्ट अधिकारी और नेता गण सभी इन समाज सुधारक जूतों से भय ग्रस्त रहते हैं। इनकी एक माला उनकी करतूतों का पर्दाफाश कर देगी इसी भय से कितने ग़लत कामो को वे जूतों के डर से नहीं करते।
इन जूतों की सहायता से पंडित मदन मोहन मालवीय ने हैदराबादी निजाम के दंभ को तोडा था। जब वे काशी विद्या पीठ के लिए धन एकत्रित करने निजाम के पास पहुचे तो उसने उन्हें जूता फेक कर मारा। उन्होंने उसी जूते को इस कथन के साथ कि "एक जूता निजाम पहनेगा दूसरा आप" नीलामी हेतु लगा दिया । निजाम ने कडुवा घूट पीते हुए अपनी साख बचने के लिए उस जूते को भरी कीमत देकर ख़रीदा। और उस नीलामी से मिला धन विद्यापीठ के काम आया। आजकल भी जूता फेककर मारने का चलन चल निकला हैं, अभी हाल में इराक में बुश पर, तो फिर ब्रिटेन में वेन जिआबाओ पर जूता फेका गया। किंतु इन घटनाओं का उद्देश सिर्फ़ अपने क्रोध का बहिर्गमन ही हैं।
इस महान जूतों के कीर्तिगान में जितने भी गीत गाये जाए कम हैं। उम्मीद ही कर सकते हैं कि आने वाले समय में यह जूते मानव मात्र के कल्याण हेतु यूँ कि काम करते रहेंगे।
कल्पनाशील,
अप्रवासी
Saturday, February 7, 2009
सादर आभार
अप्रवासी