सोचा किस बात से शुरुआत करुँ - सुबह की लालिमा के साथ मेरी छातिसवी सूर्य परिक्रमा की शुरुआत हुई तो मन में अटल जी की यह पंक्तियाँ गूँज रही थी
"एक बरस बीत गया
झुलसाता जेष्ठ मास, शरद पूर्णिमा उदास,
सिसकती भरते सावन का सूख कंठ प्राण गया,
एक बरस बीत गया..."
इस वित्तीय मंदी के वातावरण में इससे इतर अभिव्यक्ति क्या हो सकती हैं, जबकि डेटरोइट का माहौल और भी गमजदा हैं। हम जैसे अप्रवासी जो छह-सात वर्षों से अभी भी ग्रीन कार्ड हेतु प्रतीक्षारत हैं की स्तिथि तो और भी बद्तर हैं। व्यावसायिक जीवन का अधोपतन निर्विरोध अनवरत जारी हैं। हम जहाँ होने चाहिए थे, उस मुकाम से आज कोसो दूर हैं और अपनी वर्त्तमान स्तिथि से निरंतर समझौता कर रहें हैं.... भविष्य के लिए जो भी संभाला वो ४०१ और शेयर बाजार की कृपा से अपने मूल से भी कम बचा हैं।
ऐसे में बस यही भाव जब विचार तंत्रों में खलबली मचा रहे थे, मेरे शयनकक्ष के द्वार पर दस्तक हुई और मेरी सात वर्षीया पुत्री धमाल मचाते हुए , मेरी पत्नी और पुत्र के साथ अवतरित हुई। मेरे जन्मदिन के उपलक्ष में हाथों में केक व उपहार और आखों में उल्लास की चमक लेकर। विचारों ने फिर करवट बदली...बच्चों की मुस्कान और आवाज की खनक ने आशा की चमक को दिल में जगा दिया। सहसा ही मुझे आने वाले समय से फिर अपेक्षाएं होने लगी। काव्यशील मन ने फिर कुछ पंक्तिया दोहराईं, इस बार स्वप्निल मायानगरी की रगीन दुनिया से, समीर के शब्दों में ...
"यूँ ही कट जाएगा सफर साथ चलने से,
मंजिल आएगी नज़र साथ चलने से
हम हैं राही प्यार के, हम हैं राही प्यार के .."
बाकी फिर...
साधू ,
अप्रवासी
Sunday, February 1, 2009
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1 comment:
हिन्दी चिटठा जगत में आपका स्वागत है.अपने जन्मदिन के अवसर पर आपने यह ब्लॉग शुरू कर अपने को एक तोहफा दिया है.अब देखिये यह चिट्ठाजगत आपको कितनी खुशी देगा. लखनऊ के हैं जानकर खुशी हुई.
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