Sunday, February 8, 2009

पादुका महिमा

आज शाम से मन में जूता छाया हुआ हैं। कुछ गंभीर मन्नन का मन भी नहीं हैं (आख़िर रविवार की शाम जो हैं) तो सोचा इसी विषय पर विचार उद्धत करुँ। अब आप भी सोचेंगे कि बैठे बठाये यह जूता चर्चा कहाँ से आ गयी। चलिए इस संशय को भी दूर कर दूँ । हुआ यूँ कि हम आपनी सात वर्षीया पुत्री हेतु पहिये युक्त जूते (जिन्हें यहाँ व्हीली कहा जाता हैं) क्रय करने गए। वहीं जूते खरीदते हुए उसे पूछा कि यह जूता चीन का बना हैं, सारी चीजे वहीं क्यों बनती हैं ? सादा सा सवाल था पर मस्तिस्क की चंचलता ने विचार तंत्र को झकझोरना शुरू किया और चिंतन अश्व ने कुचालें लेनी शुरू कर दी। सर्व प्रथम हाल में ही (फरवरी के आरम्भ में) चीनी राष्ट्राध्यक्ष पर ब्रिटेन में जूता फेकने की घटना उभरी और फिर उसने त्रेता में राम पदुकायों पर जाकर ही साँस ली।


पदुकायों अथवा जूतों ने जितना इतिहास को प्रभावित किया हैं उतना शायद ही किसी अन्य परिधान ने किया हो। जूते प्रारम्भ से ही इंसानों की विभिन्न मनोदशा के द्योतक रहे हैं। वे एक ओर जहाँ प्रेम और श्रद्धा, शक्ति, के प्रतीक बने, वहीं वे दूसरी ओर तिरस्कार और अपमान का माध्यम बने। साथ ही जूतों ने मीठी छेद-छाड़ से रिश्तों को बंधा और सजाया भी। ऐसे महान प्रभाव वाले परिधान की महिमा तो महती होगी ही।


इन्ही जूते के आभाव के कारण भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्ष स्थल पर पदाघात करने का घोर पाप किया। यदि वे उपयुक्त पादुकाएं पहनकर श्री नारायण के कक्ष में घुसे होते तो भगवन की चिर निद्रा में अपने आप ही विघ्न पड़ गया होता और फ़िर न भृगु ऋषि को क्रोध आता, ना ही वे भगवान को लात मारते, ना ही लक्ष्मी जी कुपित हो कर संपूर्ण ब्राम्हणों को दलिद्रता का श्राप देती... काश ऋषिवर के पास जूते होते...


जूतों का सबसे विविध वर्णन त्रेता युग में मिलता हैं। जहाँ जूते शासक बने, चिकत्सक बने... राम और भरत प्रेम के साक्षी एवं प्रतीक रहे इन जूतों ने न केवल कौशल राज्य पर लगभग चौदह वर्षों तक सुचारू रूप से शासन किया बल्कि आने वाले रामराज्य की नींव रखी। कहते हैं कि इसी काल में शत्रुघन के जूते की थाप पाकर मंथरा की कुबडी पीठ भी सीधी हो गयी थी। इसी काल में हनुमान जी के शक्तिशाली जूतों ने लंकिनी को एक ही प्रहार में देवलोक की यात्रा करा दी.

आगे जाए लंकिनी रोका। मारेहु लात गयी सुरलोका।।

इन्ही महान जूतों ने द्वापर में भी कम खेल नहीं खेला हैं। भगवन कृष्ण ने कालीनाग मंथन में अवश्य ही जूतों का प्रयोग किया होगा। साथ ही भीम में भी जरासंध विच्छेद हेतु अवश्य ही इनका प्रयोग किया होगा। आप मेरी बातों पर शंशय कर सकते हैं किंतु मेरा मन यह मानने को कतिपय तैयार नहीं की यह द्वंद जूतेविहीन रहे होंगे। किंतु इन सबसे इतर द्वापर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि यदि श्री कृष्ण अपने अन्तिम क्षणों में जूता पहने होते तो बहेलिया क्या खाक उन पर तीर चलता।


जब जूता सतयुग, त्रेता और द्वापर पर इतना गहन प्रभाव छोड़ सकता हैं तो फिर कलयुग की मजाल क्या... इस युग में तो जूता और भी बढ़-चढ़ कर बोला। भोजपुरी के एक लोकगायक बल्लेश्वर ने अपने एक बीराहा गीत में कहा हैं कि लोग आजकल भगवान् से ज्यादा जूतों पर ध्यान लगाते हैं - मन्दिर जाते हैं और भगवान के आगे हाथ जोड़कर बाहर रखे जूतों के बारे में ध्यान करते हैं।

हमारे भारतवर्ष में ये ही जूते रिश्तों की प्रगाढ़ता भी बढ़ते हैं। वो विवाह ही क्या जहाँ जूते न चुराएँ जाए और सालियों से खटपट न हो। विवाह में वर पक्ष के लोग जूतों को किसी राष्ट्राध्यक्ष से कम सुरक्षा नहीं प्रदान करते। वहीं वधु पक्ष भी संपूर्ण योजना के तहत इनके अपहरण के लिए प्रतिबद्ध रहता हैं। किंतु एक बार इनके अपहरण और फिर प्रेम पूर्वक पुनः आगमन के पश्चात् एक ऐसे भावपूर्ण रिश्तें का निर्माण होता हैं जिसकी शाब्दिक व्याख्या नहीं की जा सकती। इतने महान रिश्तों के निर्माता का आधुनिक काल में कुछ पतन तो हुआ हैं। अब इनका उपयोग अनादर हेतु किया जाने लगा हैं। फिर भी, इन जूतों में अपनी महती परम्परा के अंतर्गत लोगो को सुधारना शुरू कर दिया हैं। चोर, उच्चके, भ्रष्ट अधिकारी और नेता गण सभी इन समाज सुधारक जूतों से भय ग्रस्त रहते हैं। इनकी एक माला उनकी करतूतों का पर्दाफाश कर देगी इसी भय से कितने ग़लत कामो को वे जूतों के डर से नहीं करते।

इन जूतों की सहायता से पंडित मदन मोहन मालवीय ने हैदराबादी निजाम के दंभ को तोडा था। जब वे काशी विद्या पीठ के लिए धन एकत्रित करने निजाम के पास पहुचे तो उसने उन्हें जूता फेक कर मारा। उन्होंने उसी जूते को इस कथन के साथ कि "एक जूता निजाम पहनेगा दूसरा आप" नीलामी हेतु लगा दिया । निजाम ने कडुवा घूट पीते हुए अपनी साख बचने के लिए उस जूते को भरी कीमत देकर ख़रीदा। और उस नीलामी से मिला धन विद्यापीठ के काम आया। आजकल भी जूता फेककर मारने का चलन चल निकला हैं, अभी हाल में इराक में बुश पर, तो फिर ब्रिटेन में वेन जिआबाओ पर जूता फेका गया। किंतु इन घटनाओं का उद्देश सिर्फ़ अपने क्रोध का बहिर्गमन ही हैं।

इस महान जूतों के कीर्तिगान में जितने भी गीत गाये जाए कम हैं। उम्मीद ही कर सकते हैं कि आने वाले समय में यह जूते मानव मात्र के कल्याण हेतु यूँ कि काम करते रहेंगे।

कल्पनाशील,
अप्रवासी

2 comments:

Pankaj said...

हमारे इतिहास ओर व्र्त्मान जीवन मे जूतो कि महत्वता का येह परिपएक्ष दिल्चस्प लगा | कैसा विरोधभास है ... विश्व के एक भाग मै जूतो को ओछा / निम्न सम्जहा जाता है ओर वहीन दूस्री जगह उन पर अपार धन खर्चा जाता है | शायद इसी तरह कि घ्रहन्बोधि विभिन्न्ता मे ही जूतो का सही "सामाजिक विकास" होगा !

Smart Indian said...

अच्छा पॉइंट निकला आपके चिंतन से. सदा ही "पायं उपानह की नहीं सामा..." वाले संपत्तिहीन-जूता विहीन ऋषि के वंशजों को दरिद्रता का श्राप देने में कोई बहादुरी नज़र नहीं आती.

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