Saturday, February 14, 2009

बेबी सिट्टर (बाल संरक्क्षिका)

वैलेंटाइन दिवस के उपलक्ष्य में हमारे क्षेत्र के कई जलपान गृहों ने केवल युगल जोडो के लिए विशेष समारोह का आयोजन किया था। इस कारण हमारी मित्र-मंडली एक बेबी सिट्टर की तलाश में थी। हम लोग जानकारी एकत्र कर थे। हमारे एक मित्र हैं टीपू खान जोकि कुछ समय पूर्व तक एक बेबी सिट्टर तलाश कर रहे थे। उनको दूसरे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी और पत्नी का हाथ बटाने के लिए एक बेबी सिट्टर चाहिए थी। हमने सोचा उन्ही से पता किया जाए। हम उनके घर पंहुचे और थोडी औपचरिकता के पश्चात अपना प्रश्न दागा -"भाईजान वो आप के घर एक बेबी सिट्टर आती हैं न?" इधर हमारा प्रश्न निकला उधर भाईजान के मुख से निश्स्वांस "वो बेबी सिट्टर !!!" और उनकी आँखे कुछ देर के लिए भावशून्य हो हो गयीं मानो अतीत की किसी किताब के सफे टटोल रही हो... पीछे से भाभीजान चाय की प्याली लाते हुए बोली -"भइया उस मुयी का नाम भी न लो इस घर में... और वो भी इनके सामने "। भाभी की बात सुनते ही हमारी जिज्ञासा की ग्रन्थि और तीव्र हो गयी। थोडी देर तक हम शांत बैठे रहे और भाभी के रसोई में जाने का इंतज़ार करते रहे लेकिन उनके जाते ही हम भी टीपू भाई पर कूद पड़े - टीपू भाई क्या हुआ? परजायी इतना चिढी हुई क्यों हैं...ऐसा क्या कर डाला आपने कि उस मुयी का नाम न ले आपके सामने? टीपू भाई ने सतर्कता से चारों ओर नज़र दौडाई और फिर फुसफुसाते हुए बोले "कुछ नहीं यार!! तुमको मालूम हैं इन औरतों का दिमाग....कई बार तिल का ताड़ बना देती हैं...कुछ नहीं हैं"। पर टीपू भाई के अंदाज़-ऐ-बयाँ से हमे लग गया कि दाल में काला ज़रूर हैं। हमने थोडी-थोडी देर में टीपू भाई को कुरेदना जारी रखा और थोडी देर बाद उन्होंने हमे अपनी कहानी सुना ही डाली। वो बोले तुझे तो याद हैं जब यह छोटा वाला हुआ था तो कोई भी नहीं आ पाया था, वीसा के प्रॉब्लम की वजह से... । हमने भी हामी में सर हिलाया। उन्होंने कहानी जारी रखी "...तो जब यह अस्पताल से घर आयी तब मैंने भी कुछ दिनों की छुट्टी ली थी, इसकी देखभाल के लिए। पर मैं कितने दिन घर बैठता सो इसका हाथ बटाने के लिए बेबी सिट्टर ढूढ़नी शुरू कर दी। बड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद एक अमेरिकन छोरी मिली - कॉलेज गोइंग थी... वैरी यंग एंड स्वीट लूकिंग"। टीपू भाई की आंखों में आयी चमक और आवाज़ की खनक ने मुझे उसके सौदर्य का आभास और ज्यादा करा दिया। वो जब पहले दिन घर आयी तो मैंने सोचा कि पहला दिन हैं मैं भी घर पर रुक कर निगरानी कर लेता हूँ - उसके कामकाज के बारे भी जान जाऊंगा । "बड़ी ही निपुण लड़की थी...कुछ ही देर में उसने हमारे दोनों बच्चो को सम्हाल लिया" टीपू खान बोले। "...दोनों या तीनो?" भाभी बोली जोकि कब चुपचाप आकर हमारी बात सुन रही थी, हमे पता हो नहीं चला। पर इस बार टीपू खान एक पल को ठिठके और भाभी की बात को अनसुना करते हुए कहानी में आगे बढ़ गए। "वो लड़की केवल छोटे वाले को देखने आई थी, पर उसने दोनों ही बच्चों को सम्हाल लिया था। यहाँ तक की उसने बड़े वाले के डायीपर भी बदले, बिना संकोच के। सब काम निपटाकर वो छोटे वाले के पास जाकर बैठ गयी। तुम्हारी भाभी को लगा कि जब घंटे के हिसाब से पैसे ले रही हैं तो खाली क्यों बैठे?" भाभी की तरफ़ पैनी निगाह डालते हुए टीपू भाई बोले "इन्होने उसे बर्तन साफ करने में हाथ बटाने के लिए बुला लिया... यहाँ हक़ कि थोडी देर बाद उसे वैक्यूम लाने के लिए भेज दिया...तब मैंने इन्हे टोका कि भाग जायेगी वैसे भी तुमने नौकरानी नहीं रखी हैं। वो केवल छोटे बच्चे की देखभाल करेगी। यह अपना मुल्क नहीं हैं कि एक काम को रखा और पचास काम कराये..." मैंने उसे टेलिविज़न देखने भेज दिया। इसी बात से चिढ़कर तुम्हारी भाभी ने उसी शाम को उसे वापस भेज दिया यह कहकर कि कल से काम पर आनेकी ज़रूरत नहीं हैं। मैं दोनों बच्चो को सम्हाल लुंगी।"

भाभी जो अब तक चुप बैठी थी और टीपू भाई की बातें बड़े संयम से सुन रही थी, बड़ी गंभीरता के साथ बोली "तो आज तक आप यह समझते रहे कि मैंने उसे चिढ कर वापस भेजा था।" टीपू भाई ने भाभी कि तरफ़ भ्रमित नज़रों से देखा औए पुछा "..और नहीं तो क्या?"। भाभी ने टीपू भाई ओर एक कटाक्षपूर्ण निगाह डाली और मेरी तरफ देख कर बोली - "भइया आपसे क्या छुपाना, उस दिन उसके बाद २-३ घंटे तक वो टीवी देखती रही और ये उसे.... फिर मैं कैसे उस मुयी को घर में रहने देती...."भाभी के बात सुनकर हम हतप्रद खुले मुह और अवाक् टीपू भाई को देखते रह गए।

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

वाह ! बहुत अच्छा !! मजेदार!

Pankaj said...

दिलचस्प किस्सा है ... मैं इस बात से अचंभा हूँ की एक युवा ऑर सुंदर बॉल सर्रक्षिका ऑर श्रीमान टीपू ख़ान की पसंद बहुत मिलती जुलती थी| शायद उनका भाग्य अच्छा है ... खैर अंगूर खट्टे होन तो वाइन पीने मैं ही समझदारी है !

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