Wednesday, February 18, 2009

कुँआनो का घाट

कुछ समय पूर्व की बात है, मैं सपरिवार अपने ही शहर में स्थित एक झील, केंसिंग्टन, पर पिकनिक मानाने गया था। वहीं झील सारे बच्चे झील के जल में क्रीडा कर रहे थे और मैं तट पर बैठ कर उनकी शैतानियों का आनंद ले रहा था। उनकी जल क्रीडा देखकर मन सहसा ही अतीत के कुछ उन पलों में खो गया जब मैंने भी ऐसे ही पानी में कूद-कूद कर तैरना सीखा था। मेरा ननिहाल जनपद गोरखपुर में कुँआनो नदी की किनारे स्थित एक छोटा सा गाँव 'चाईपुर माफी' हैं। माफ़ी इसलिए क्योंकि अंग्रेजो ने नील की खेती हेतु कुँआनो का जल प्रयोग करने के एवज में कुछ गाँवों को करमुक्त कर दिया था। अपनी ग्रीष्म-कालीन अवकाश के दौरान हम वहीं नदी पर जाकर तैरा करते थे। नाना के घर जाने का एक मजेदार कारण (नानी के प्रेम के अतिरिक्त) वह नदी भी थी। नदी पर तैरना और नाव की सवारी बहुत आनंददायी होती थी। वो आनंद आजतक स्मृति पटल पर धूमिल नहीं पड़ा हैं। उस ज़माने में भी हमारे शहरी जीवन में तो नदियाँ केवल पुल के नीचे से गुजर जाती थी। और दिखती भी कई बैराजो और बांधो की कृपा से नाले जैसी ही थी (चाहे वो लखनऊ की गोमती हो या बरेली की रामगंगा)। अतः चाईपुर जाने का विशेष आकर्षण हमेशा बना रहता था।

धुरियापार (कुँआनो के दुसरे तट स्थित क़स्बा जोकि शहर से जुडा हुआ था) पहुँचते ही घाट से माँ या पिता जी शाहआलम चाचा को आवाज़ लगाते थे। शाहआलम चाचा चाईपुर निवासी, मल्लाह थे जोकि घाट पर लोगो को आर-पार ले जाते थे। (सामाजिक न्याय के लिए कार्यरत, श्रधेय पाठकों के लिए स्पष्ट कर दूँ कि मल्लाह यहाँ कर्मसूचक सन्दर्भ में उपयोग हुआ हैं, जातिसूचक नहीं, शाहआलम चाचा की जाति मुझे पता नहीं) वे जगत चाचा थे पर मैं उन्हें शालाम नाना बुलाता था। मेरे ननिहाल की पुरानी ज़मींदारी के कारण वे विशेष सम्मान के साथ हमे लेने तुंरत आते थे।

हम शहरी बच्चों के आनंद का कारण कुँआनो क्षेत्रीय राजनीति में विशेष स्थान रखती थी। कुँआनो पर पुल को लेकर हमेशा ही राजनीति चलती थी। स्थानीय ब्राम्हणों और ठाकुरों के बीच यदि कोई राजनैतिक आम सहमति थी तो वो कुँआनो पर पुल की आवश्यकता पर ही थी। पुल के अभाव में लोगो को गाँव तक कोई भी भारी वस्तु ले जाने के लिए १०-१५ किलोमीटर लंबा सफर तय करना पड़ता था। बरसाती दिनों में तो यह सफर शाहपुर (एक ओर समीपवर्ती ग्राम) का पीपे-वाला अस्थायी पुल हट जाने के कारण और लंबा हो जाता था।

वर्षों की खींच-तान के बाद कुँआनो पर पुल बन गया, पहले पीपे-वाला; फ़िर पक्का। अब कुँआनो भी शहरी नदियों की तरह मानवीय मेलजोल से वंचित दौड़ती हुयी सड़क के नीचे सहमी हुई सी गुजरने लगी। सन २००६ में जब मैं भारत गया था, तो अपने ननिहाल भी गया। नाना-नानी के स्वर्गवास को तो अरसा हो चुका था किंतु मेरी एक मामी और ममेरे भ्राता-गण अब भी वहीं रहते हैं। चाईपुर पहुँचने में कुछ ही मिनट लगे, ज्ञात भी न हुआ कब कुँआनो के ऊपर से मेरी कार गुजर गयी। मन को सहसा विश्वास भी न हुआ कि चाईपुर आ गया हैं। शाम को सबसे मिलकर, जब मैंने आपने ममेरे भाई से कुँआनो पर जाकर स्नान करने की इच्छा जाहिर की तो वे बड़े ज़ोर से हँसे और बोले कि अब वहां गोरु (मवेशी) भी नही नहाते, तुम विलायती बाबु क्या जाओगे? एक काम करो, बस एक चक्कर लगा आओ। मैं नदी के किनारे उस पुराने घाट पर गया। घाट का तो नामोनिशान भी न था, पुल के लिए सड़क भी घाट से कुछ आगे बढ़कर बनाई गयी थी। न तो वहां शालाम नाना की झोपडी थी और न ही जल-क्रीडा करते बच्चे। नदी में भी सेवार (एक प्रकार की जलीय खर-पतवार) भी ढेर सारी उग आई थी और पानी किसी नाले से भी बदतर। बड़े दुखी मन से मैं उस पुराने घाट को (जो मेरी स्मृति के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टव्य नहीं था) छोड़कर में गाँव की तरफ़ वापस चला। मन सोचता जा रहा था की क्या यहीं विकास हैं, विकास के नाम पर एक संस्कृति का ह्रास, बच्चों के कलरव का नाश...

उस दिन से मन आजतक आहत हैं -शायद इसीलिए आज बच्चों की जलक्रीडा देखकर फिर वहीं घाट की स्मृतियों में खो गया

आहत,
अप्रवासी

5 comments:

Tarun said...

कई बार विकास की कीमत ऐसे ही चुकानी पड़ती है

Anil Pusadkar said...

ऐसा लगा कि कोई मेरे बचपन की कहानी मुझे ही सुना रहा है।मैने भी ननिहाल की नदि मे तैरना सीखा है।अब वंहा कोई नही जाता,मै साल मे दो-तीन बार जाता हूं तो उधर का एक चक्कर मार लेता हूं,कुछ देर बैठ कर फ़्लैश-बैक देख लेता हूं और गहरी सांस ्के साथ सब कुछ वहीं छोड़कर वापस लौट आता हूं।बहुत अच्छा लिखा आपने।

pritima vats said...

इस तरह के निर्माण हमेशा से प्राकृतिक सुन्दरता और संस्कृति का नुकसान करते आये हैं।

पोस्ट अच्छा लगा।

Pankaj said...

अच्छा लिखा है ... इसे पड़ कर मुझे भी आपने ननके ओर ददके की याद आ गये |

दुर्भाग्यवश किसी शाहर या गाव का विकास अगर योजनाबध त्तरीके से अगर ना किया जाए तो स्थानीय प्रकृति को काफ़ी काष्ठ उठना पड़ता है | मानो या ना मानो, पूरे भारत मे ऐसा होता आया है ओर शायद आब भी हो रहा है | गाव का एक आम आदमी रोजमर्रा की आवाशकताओ की भूलभुलैया मैं उलझ कर केवल रोज़गार ऑर लघु भोतिकटावादी सहूलियातों मेव्यस्त रह जाता है | शहर वासी भी यह भूल जाते हैं की हज़ारों ऊँचे भावनो ओर चकाचोंधीी "मालों" के निर्माण मे लाखो पेड पौधों और नदी नालों को नष्ट किया गया था |

दूसरों को क्या दोष दे ... हम खुद भी इन सब के ज़िम्मेयवार हैं | "गोग्रीन" क्रांति की शुरुआत हमे खुद से करनी होगी क्योंकि मैं मानता हून की एक चना अकेला भी भाड़ फोड़ सकता है ... क्योंकि प्रकृति ऑर भगवान भी उसके साथ होते है :)

ANAND TRIPATHI said...

BHAIYA I M FROM THE ADJCENT VILLAGE RASOOLPUR MAFI TO THAT CHAIPUR MAFI
WHEN THE BRIDGE AT KUANO WAS CUNSTRUCTED I WAS IN 10th STANDERD
NADI TO KHO GAYI PAR AAP KO SHAYAD PATA N HO BARISH ME HAM LOG SCHOOL JANE ME JITNE PARESHAN HOTE THE AB BACHHE UTNE PARESHAN NAHI HOTE

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