अनिल पुसदकर जी ने अपने नए चिठ्ठे "स्कूल से भाग कर जहां क्रिकेट खेलते समय पकड़ाया था आज वहां का ……………। "से हमे भी हमारे बचपन के दिन याद दिला दिए और साथ ही हिम्मत बढाई कि हम भी अपने बचपन कि एक घटना ब्लॉग जगत और साथ ही अपने परिवार (हमारी पत्नी एवं अन्य सम्बन्धियों) से बाट सके।
हम लोग सातवी या आठवीं के छात्र रहे होंगे कि एक चलचित्र "राम तेरी गंगा मैली" आयी थी। इस चलचित्र ने थोड़े ही समय में विशेष प्रसिद्धी पा ली थी । हमारी दोस्त मंडली में विशेष उत्सुकता थी कि मैला क्या हैं। आख़िर इस गंगा का प्रदुषण क्या ? पर किसी के घर वाले उस फ़िल्म को दिखाने के लिए नहीं ले जा रहे थे। और तो और कुछ मित्र-गण के परिवार वाले तो उस चलचित्र का अपने बच्चों के बिना ही अवलोकन कर आए थे। मंडली में कुछ मित्रों ने समस्या के समाधान के लिए अपने अग्रजों से परामर्श लिया और एक युक्ति निकाली। स्कूल से भागकर १२-३ वाला शो देखा जाए और अपनी जिज्ञासा शांत की जाए।
क्योंकि यह हम सभी का पहला पहला अड्वेंनचर था तो विशेष सावधानी के साथ प्रोग्राम बना। सबसे पहले तय हुआ कि यह योजना केवल भरोसेमंद साथियों से साथ ही बांटी जाए। "ज्यादा भीड़ का मतलब ज्यादा खतरा", सो चंद करीबी दोस्तों को ही साथ लेकर पिक्चर देखी जाए। आख़िरकार स्कूल गुल करके जाना, वो भो कक्षा सात में... किसी दुश्मन देश में होने वाली गुप्त कमांडो कार्यवाही से कम तो नहीं था। सो घंटो इंटरवल में और छुट्टी के बाद, क्रिकेट छोड़कर योजना बनी। योजना के क्रियान्वन के लिए दो समस्याएँ सामने आई - पहली तिथि के निर्धारण की और दूसरी पैसे के जुगाड़ की।
बहुत सोच समझ कर तय हुआ कि स्कूल में होने वाले वार्षिक समारोह की तैयारी के कारण सभी अध्यापक-गण व्यस्त हैं। अतः यदि समारोह से दो तीन पहले निकला जाए तो कक्षा में कोई भी शक नहीं करेगा। सभी अध्यापक यह मान लेंगे कि यह बच्चे किसी प्रोग्राम की तैयारी में बाहर हैं। (हमारा मित्र-मंडल वैसे भी कई कार्यक्रमों में भाग ले रहा था) । अब दूसरी समस्या के लिए तय हुआ की जेब खर्च बचाया जाए पर केवल हमसे कुछ ही खुशनसीब थे जिन्हें यह आगाध धन की सुविधा थी परन्तु टिकेट के लिए तो कुबेर धन की आवश्यकता थी अतः तय हुआ की हफ्ते -दो हफ्ते तक घर से जो कुछ भी सामान खरीदने के लिए पैसे मिले, उससे जितना बचाया जा सके, बचाया जाए। हम सबके परिवार के लिए संभवतः महंगाई दो हफ्ते के शायद थोडी ज्यादा बढ़ गई थी।
फ़िर जितने जिससे बने बचा कर टिकेट का जुगाड़ हुआ। तय दिन हम सब स्कूल गुलकर गुल खिलाने पहुंचे। हम सभी स्कूल ड्रेस में थे पर हमारे अंतर्मन ने झकझोरा की ख़ुद जो भी हैं स्कूल को बदनाम न किया जाए, अतः हमने अपनी कंठ-लंगोट (टाई) उतारकर जेब में डाली और कमीजों को निकालकर बेल्ट्स को छिपाया। इंटरवल तक तो सब कुछ ठीक रहा पर हम सबका दुर्भाग्य कि इंटरवल में हमे हमारे हिन्दी के शिक्षक "मिश्रा सर" सपत्नी मिल गए। डर से कापते हुए हम लोगों ने किसी तरह बची खुची फ़िल्म देखी। और फिर स्कूल का रास्ता लिया। उस दिन तो कुछ नहीं हुआ पर अगले दिन प्राथना सभा में सारे स्कूल के सामने नाम बुलाये गए और बाद में घर वाले ... वो ठुकाई हुई की पूछिये नहीं। अनिल जी के लेख से आज फिर शरीर का दर्द ताज़ा हो आया।
Sunday, February 22, 2009
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4 comments:
अब तो शिक्षक भी वैसे नही रहे ......unhe परवाह नही है ....कोई कुछ भी करे
:) क्या क्या यास करें..दर्द उठ जाता है फिर से. :)
संक्षिप्त और सुन्दर। सचमुच में रोमाण्टिक संस्मरण है। लिख आपने खुद पर किन्तु लगा, हमारी कथा लिख दी।
बात मेरी थी,
तुमने कही,
अच्छा लगा।
खूब हंसा पढ़कर। उन दिनों फिल्मों का समा ही वैसा था। न उसे टीवी की टक्कर थी न कंप्यूटर की।
मुझे याद है कि जब अमिताभ की नई फिल्म रिलीज होती थी, तो सनसनी सी फैल जाती थी।
मैं भी फिल्मों का खूब शौकीन रहा हूं बचपन में। शोले तीन बार देखी है और उसके डायलोग कंठस्थ थे, जो बात मेरी स्कूली विषयों के बारे में कतई नही कही जा सकती थी।
डोन भी (अमिताभ वाला) भी तीन बार देखी है। जब भी घर पर मेहमान आते थे, पिक्चर देखने का प्रोग्राम बनता था और डान ही पसंद किया जाता था। मैं भी उनके साथ हो लेता था।
पिक्चर खूब देखे, लिकिन स्कूल से बगावत करके कभी नहीं, आपका लेख पढ़कर यह अफसोस हुआ, काश यह भी आजमाया होता!
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