Friday, February 27, 2009

राणा सांगा के पास डॉक्टर नहीं था क्या?

मैं आमतौर पर शाम को ऑफिस से आकर, चाय की चुस्कियों के साथ अपनी थकान मिटाता हूँ । डेटरोइट की हाड-कंपा देने वाली बर्फीली सर्दी में गरम चाय का आनंद ही अलग होता हैं। इसी समय ज़ी चैनल पर अन्तराष्ट्रीय दर्शको के लिए ख़बर भी आती हैं जोकि सोने पे सुहागा का काम करती हैं। घर के सभी सदस्य जानते हैं की इस समय मैं कोई खलल नहीं पसंद करता। हाँ उस आधे घंटे के बाद मुझे किसी भी गृहस्थ पति की तरह किसी भी काम में झोंक दो, बच्चे भी समझते हैं कि ज़ी न्यूज़ (जिसमे न्यूज़ कम और व्यूज़ ज्यादा होते हैं) के बाद ही उनकी कोई दाल गलने वाली हैं.... मैं भी गतिरोध न हो इस लिहाज़ से दरवाजा बंद करके ही ख़बर और चाय का लुत्फ़ उठता हूँ।

तो आज भी मैं नित्य की भांति अपने कक्ष में दरवाजा बंद करके चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था और ज़ी न्यूज़ पर भारतीय क्रिकेट टीम की न्यूजीलैंड के हाथों हुई हाल की पराजय के कारण धज्जियाँ उडाई जा रही थी। ऐसे में मेरी सात वर्षीया पुत्री भारी चीत्कार के साथ कमरे में प्रविष्ट हुई। आंखों से मानो न्यागरा फाल सा जल प्रपात गिर रहा था। पूंछने पर ज्ञात हुआ की प्रिंटर से पेपर उठाते हुए पेपर कट हुआ हैं। मैं ज़ी न्यूज़ (या व्यूज) को छोड़ा और इस भीषण समस्या से निपटने के लिए मुखातिब हुआ (सच मानिये, मेरी ७ वर्षीया बिटिया के साथ हर घटना आसमान गिरने से कम नहीं होती)। मैंने पहले तो चोट का मुआयना किया और फिर इस छोटे सी खरोंच पर बड़ा सा बैंड-ऐड लगा दिया। इस उपचार से रुदन सिसकियों में परिवर्तित हो गया। अब मुझे सिसकियों को शांत करने का जतन करना था।

बेटी को दिलासा देने के पूर्व मेरी अप्रवासी ग्रंथि ने जोर मारा और मैंने दिलासा को इतिहास के पाठ में बदलने का प्रयास शुरू कर दिया...मैंने पूंछा "आपको राणा सांगा का नाम पता हैं?"...रोते रोते वो बेचारी एक पल को शांत हो गई (यह मेरे इतिहास पाठ का भय था या खरोंच का दर्द या रोने के कारण रुंधा हुआ गला मुझे नहीं पता) । फिर एक अजीब सी दृष्टि के साथ उसने सिसकते हुए पूंछा "रैना सैन्गा ये कौन हैं"। हमने अपनी विलायती पुत्री के उच्चारण को नज़र अंदाज करते हुए कहा कि वो भारत में हुए बहुत बड़े प्रतापी राजा थे (मेवाड़ कह कर हम विषय को और गंभीर नहीं करना चाहते थे।) उनकी कहानी तो हम आपको रात को सुनायेंगे पर वो इतने बहादुर थे कि एक बार युद्ध में उन्हें नब्बे भाले लगे और वो फिर भी लड़ते रहे - बिना किसी दर्द के। और आप तो इतनी सी चोट से डर गए। आप तो पापा कि बहादुर प्रिंसेस हो न - फिर क्यों रोते हो?" उसने अपनी सिसकियाँ भूलकर अत्यन्त ही विस्मय के साथ मुझे देखा और कहा - "नब्बे भाले? पापा क्या उनके पास डॉक्टर नहीं था - पहले ही भाले के बाद उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए था"

3 comments:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

राणा सांगा
नब्बे घाव लगे थे तन मे
फिर भी व्यथा नहीं थी मन मे
पानीपत के घोर समर मे
खीची थी तलवार

not needed said...

यह बात मजेदार रही!

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

बहुत अच्छा संस्मरण है।

राणा सांगा के पास जरूर डाक्टर थे। भूलिए मत कि आयुर्वेद पांच हजार साल पुरानी चिकित्सा पद्धति है। यह बात भी अपनी बिटिया को जरूर बताएं।

हां, विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए यह कठिन समस्या है कि अपने बच्चों को विलायती होने से कैसे बचाया जाए, और उन्हें भारत से जुड़ी बातें कैसे बताई जाएं।

मेरे विचार से इसका सबसे सरल और सबसे कारगर तरीका है उन्हें हिंदी भाषा का अच्छा ज्ञान दिलाना, जिसमें लिखित हिंदी भी शामिल है।

मुझे नहीं पता कि अमरीका आदि देशों के स्कूल तंत्रों में बच्चों के लिए हिंदी को एक विषय के रूप में लेकर पढ़ना कितना संभव है, पर यदि यह सुविधा उपलब्ध हो, तो जरूर इसका लाभ उठाना चाहिए।

अन्यथा स्व-प्रयत्न से बच्चों को हिंदी सिखानी चाहिए। घर में हिंदी ही बोलें, खासकर बच्चों से।

और जी न्यूस देखते समय कमरा बंद न रखें, ताकि हिंदी की आवाज घर के दूसरे लोगों के कानों तक भी पहुंचे।

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