Friday, October 9, 2009

करवा-चौथ: एक आपबीती

कुछ भारतीय चलचित्रों और कुछ उत्तर भारतीय परम्पराओं की धरोहर के नाते हमारी वर्तमान पीढी अपनी तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के परिवेश में भी अपनी जड़ों से जुड़े होने की चाह से मुक्त नहीं हो पाती. करवा-चौथ भी एक ऐसा ही दिन है जिस दिन कितने भी प्रगतिशील विचारों के लोग बड़े प्रेम से अपने जीवन साथी के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शन के लिए निर्जलीय उपवास रखते  हैं....वर्ष का एकमात्र  दिन जब हम जैसे बड़े से बड़े पत्नी-भीरु पति भी अपने भाग्य पर इठलाते हैं. हमारी पत्नी जी ने भी यह व्रत हमारे जन्म-जन्मान्तर के साथ हेतु वर्षों से सिद्ध किया है और यह वर्ष भी अपवाद नहीं था.

हर श्रमशील श्रद्धावान पति की तरह हम भी चन्द्र देव की प्रतीक्षा में बार बार छत पर जाकर बादलों में सिमटा आकाश निहार रहे थे. पता नहीं क्यों  अपना भारत हो या अमेरिका, हर चंद्राधारित पर्व पर चन्द्रदेव मानो ठिठुर कर बादलों की चादर ओढ़कर कर कहीं बैठ जाते हैं. जितनी बार हम अपने दांपत्य जीवन में करवा-चौथ के लिए छत पर चढ़े होंगे उतना तो हम अपने पहले प्रेम से मिलने के लिए छत पर न गए होंगे. उधर हमारी  भूखी-प्यासी देवी जी चन्द्रदेव का गुस्सा हम पर निकाल रही थी...(अरे माना हमको अब इतने वर्षों में इसकी आदत पड़ गई हैं पर भइया यह तो सर्वविदित सत्य है कि भूखी-शेरनी घायल-शेरनी से भी अधिक घातक होती है..). अपने वर्षों से घिसे घिसाए किन्तु प्रभावी वाक्यों का भी प्रयोग किया जैसे "तुम्हे चाँद की क्या ज़रुरत, दर्पण निहार लो", या फिर "ठहरो अपने आमुक मित्र (जोकि बालों के मामले में हमारी अंग्रेजी की तरह स्ट्रोंग है) को बुला लेते हैं - तुमको चाँद दिख जायेगा". किन्तु "भूखे भजन न हो गोपाला" वाली तर्ज पर "भूखे क्रोध न मिटे गोपाला" वाले हालत हो रहे थे...

तभी एक जोरदार वक्र-वाक्यास्त्र (सहज भाषा में प्यारा सा ताना) आया - "दिनभर कंप्यूटर पर टिप-टिपाते रहते हो  ज़रा इन्टरनेट पर देखकर चंदोदय का समय नहीं पता कर सकते!! पत्नी का ख्याल हो तो न...तुम्हारे  लिए  सुबह से एक बूँद पानी भी न मिला..." . सुखी दांपत्य जीवन का एक सीधा-साधा सा सिद्धांत है - जिस तरह पत्नी के पूछने पर भी आप उसे मोटी नहीं कह सकते, उसकी खरीदारी पर सवाल नहीं कर सकते उसी प्रकार आप पति को भी उसके आलस्य और नौकरी के लिए ताना नहीं कस सकते, उसकी क्रिकेट (और हमारे केस में चिठ्ठेकारी और कुछ अभिनेत्रियां भी) के प्रेम और समर्पण पर प्रश्न नहीं कर सकते. अपने इस अधिकार क्षेत्र का हनन हमे सहन नहीं हुआ.  इस ताने के आते ही हमारा भी आत्म-गौरव जाग उठा और तन-बदन में आग लग गई....बस फिर क्या था एक समर्पित पति की तरह हमने तुंरत ही इन्टरनेट से अपने शहर के लिए चंद्रोदय के समय को निकाल कर पत्नी को बताया. उस समय चंद्रोदय को बीते हुए २० मिनट से अधिक हो चुका था....

हमने समझाया कि "चाँद निकल गया है, बादलों से दिख नहीं रहा हैं... तुम व्रत खोल लो" ...परन्तु स्वभाव अनुसार हमारी पत्नी जी बिना अपने कष्टों को चरम पर ले जाए किसी भी व्रत को कैसे खोल  सकती थी - मानो अधिक देर प्यासा रहने से प्रभु इस जन्म-जन्मान्तर के आंकडों में एक-दो वर्ष और जोड़ देंगे - उन्होंने ठान ही  लिया कि बिना चन्द्र-दर्शन  के वे जल नहीं ग्रहण करेंगी और यदि न दिखा तो १२ बजे तक प्रतीक्षा करेंगी...  अब बताइए कि घर  में जब छप्पन भोग बने हो तो मन को १२ बजे तक धीर देना किनता कष्टकारी होगा. अतिश्योक्ति के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर विदेश में देसी पक्का खाना वो भी मटर और गोभी की कचौड़ियों के साथ छप्पन भोग ही लगता है.

कचौड़ियों की लालसा के दमन या अपनी भूखी-प्यासी पत्नी के हालत (या हठ)  की खीज से उत्पन्न अपनी हताशा को  समेटे हम भी अपनी चिर-प्रेयसी टीवी देवी का  दामन थामकर सोफे के  आगोश में समां गए . टीवी पर भी करवाचौथ व्रत की ही खबरें आ रही थी..सुषमा स्वराज ने चुनाव प्रचार छोड़कर व्रत किया, आधुनिक जमात के पतियों ने (हम तो पुरातन ठहरे)  पत्नियों  के  साथ निराजल व्रत रखा, और कहीं-कहीं प्रगतिशील प्रेमियों और मंगेतरों ने भी अपने संभावित जीवन-साथी की दीर्घायु के लिए निराजल उपवास किया. समाचारों के गिरते स्तर पर हमे पहले कभी इतना क्रोध न आया होगा जितना उस पल उन समाचारों को सुनकर आया. इतने भीषण समाचार कहीं हमारी भूखी शेरनी के कर्ण-स्पर्श कर जाते तो हम पता नहीं अपनी पूजा के दिन कितने प्रवचनों से दुलारे जाते कि प्रेम और झड़प से भरे गोपी-कृष्ण प्रकरण भी  छोटे लगने लगते, वक्रोक्ति अलंकार की परिभाषा ही बदलनी पडती ...अपनी इसी बैचैनी में हम कब वैचारिक सागर में गोते लगाने लगे पता ही नहीं चला...

मन ने हमेशा की तरह कुचाल भरनी शुरू की तो सारा ध्यान करवा-चौथ पर ही लग गया. करवा-चौथ यानि अपने इंडिया का वैलेंटाइन डे...भारत में अधिकतर (आज भी) प्रेम शादियों का अनुगामी होता है...(कई बार तो बच्चे प्रेम से पहले आ जाते हैं ). अतः हमारे इस वैलेंटाइन डे को लोगों ने वैवाहिक संस्कार ज्यादा मान लिया हैं...किन्तु हमारे रिवाजों में तो कुवारीं कन्याओं, प्रेमिकाओं और संभावित वधुओं को भी इस उत्सव को अपने भावी जीवन साथी के लिए मानाने की सुविधा है. अब आजकल तो प्रगतिशील और जीवन-साथी से हर पग पर कदम मिलाकर चलने वाले पुरुष भी अपने प्रेम और निष्ठा के लिए इस पर्व को निर्जलीय रूप में ही अपना रहें हैं...व्यक्तिगत रूप से  मुझे कभी भी प्रेम प्रदर्शन के लिए इस पर्व का निर्जलीय उपवास का रूप समझ में नहीं आया. मैंने कई बार अपनी पत्नी को भी इसके लिए मना किया है...जब हमारे शास्त्र वैसे ही कम से कम सात जन्मो के साथ देकर पति-पत्नी को सह-अस्तित्व का प्रायोगिक-अवसर प्रदान करते है फिर उसे काहे जन्म-जन्मान्तर तक खीचना जबकि कपाल क्रिया की कृपा से पिछला जन्म का भी साथ याद नहीं रहता.  साथ चाहिए ही तो सच्चे मन से हर दिन प्रभु से मांगो- उसका उपवास (या फिर निर्जलीय रूप) काहे यह सब टंटा करना...अच्छा पानी पीकर ही भगवान् की उपासना करके साथ मांग लो...पर श्रद्धा देवी के चरणों पर तर्क देवों शीश सदैव ही नतमस्तक रहते हैं...खैर, मूल विचार - भारतीय वैलेंटाइन डे -करवा चौथ की बात करते हैं...मेरे विचार से इसकी पूर्ण मार्केटिंग संभावना (पोटेंशियल) किसी ने तलाशा ही नहीं...वरना प्रेम-पिपासु इस जगत में इस पर्व का अन्तराष्ट्रीयकरण करके अपने-अपने  जीवन साथी के प्रति निष्ठा प्रदर्शन की एक स्वस्थ परंपरा की नींव डाली जा सकती है (हाँ निर्जलीय उपवास जैसे मसलों पर थोडी छूट देनी पड़ेगी). ऐसा अन्तराष्ट्रीयकरण न जाने कितने अन्य पर्व जैसे रक्षा-बंधन के साथ भी ऐसे ही किया जा सकता है....

अभी अपने विचारों में हम भारतीय परचम को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फहरा ही रहा थे कि पत्नी की जोरदार आवाज़ ने हमारी विचार तंद्रा को खंडित किया...दूर छत से पत्नी की आवाज़ आ रही थी - "आज पूजा होनी हैं तो तुम भी भगवान् की तरह पत्थर हो गए हो...चाँद कितना ऊपर चढ़ आया है...तुम तो कह रहे थे कि निकला ही नहीं है. ठीक से देखा ही नहीं था या फिर....".बड़े अनमने मन से हम उठकर छत की तरफ कैमरा सम्हालते हुए लपके...मन दुविधाग्रस्त था कि चाँद की इस धोखाधडी पर कुपित हों या फिर उसके आगमन पर छप्पन-भोग मिलने की ख़ुशी जताएं.....

Sunday, October 4, 2009

क्या हमने गाँधीवादी तरीकों का दुरूपयोग किया हैं?


इस माह के प्रारंभ के साथ ही सारा राष्ट्र गाँधीमय हो जाता है...अब तो बापू के जन्मतिथि को वैश्विक स्तर पर "अहिंसा दिवस" घोषित करके संयुक्त राष्ट्र ने भी गाँधी-सिद्धांतों का अनुमोदन कर दिया है. और रही सही कसर इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ओबामा जी ने अमेरिकी सामाजिक  परिवर्तन की सोच की जंडे गाँधी  के विचारों से बताकर अपनी सच्ची स्वीकारोक्ति से इस अनुमोदन को बढावा ही दिया. इसमें कोई शक नहीं हैं कि गाँधी जी ने अपने साधारण तरीकों और असाधारण इच्छाशक्ति से इस देश और विश्व की विचारधारा को बदल दिया है...यह वैचारिक परिवर्तन इस देश को किस दिशा में ले गया इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु इन परिवर्तनों ने इस राष्ट्र की आत्मा तक को प्रभावित किया इसमें कोई शक नहीं है. यदि अहिंसा के प्रवर्तक रहे हमारे आदि ऋषियों से लेकर, बुद्ध और महावीर के ज्ञान को वैश्विक स्तर पर किसी ने प्रचारित  किया  हैं - ऐसे  लोगों की सूची में गाँधी जी सर्वोपरि होंगे इसमें कोई संदेह नहीं है. गाँधी जी  ने अहिंसा को  एक वैचरिक सिद्धांत से अस्त्र के रूप में परिवर्तित करा था. और साथ ही सत्याग्रह, अनशन, असहयोग और हड़ताल जैसे  यंत्रों को  जन्म  दिया  था.

हमारे  देश  में जहाँ विचारधारा के ऊपर व्यक्तिगत छवि सदैव अधिक हावी रहती है.  (चाहे स्वतंत्रता पूर्व की कांग्रेस हो या वर्तमान के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल इस सत्य को हर कहीं देखा जा सकता है.)   गाँधी वादी विचारधरा  के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ....सिद्धांतो के  ऊपर गाँधी जी हावी हो गए....पैसे से लेकर नेतागिरी की पोशाकों तक, पार्कों से लेकर राज्यमार्गों तक, संसद की दीवारों से लेकर जन रैलियों के भाषण तक सब कुछ गांधीमय हो गया . नेताओं  ने गाँधी के समान खादी धारण कर के ग्राम-स्वराज्य को भूला दिया, गाँधी के चेहरों वाले मुद्रा (नोटों ) के भाव बढ़ाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वागत कर ग्रामीण उत्थान को अनदेखा कर दिया...गाँधी के सत्यवादी रूप की ठेकेदारी लेने वालों की चुनावी योग्यता उनके अपराधिक मामले तय करने लगे...जन-लोकतंत्र की भाषणों में दुहाई देने वालों को उनकी बाहुबली और मत लूटने या क्रय शक्ति के आधार पर ढूँढा जाने लगा, सर्व-कल्याण और हरिजन उत्थान के विषय में सोचने  के लिए नेता उनकी जातीय गणित के आधार पर तय होने लगे...हमारे देश में गाँधी तो रहे पर एक मुखौटे की तरह. उनकी आत्मा और उनके सिद्धांत तो, गोडसे की गोली से पहले, भारतीय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा की बलि चढ़ गए.....

अपने व्यतिगत क्षोभ  को मैं और भी अधिक बढा हुआ पता हूँ जब मैं गाँधीवादी हथियारों जैसे हड़ताल, अनशन, असहयोग का सार्वजानिक दुरूपयोग देखता हूँ...किसी भी सरकारी महकमों में यूनियन (चाहे मजदूर यूनियन हो या अधिकारीयों की संस्था) अपनी बातें जबरन मनवाने के लिए इनका गलत इस्तेमाल करते हुए मिल जायेंगे...अभी हाल में पायलट ने सामूहिक छुट्टी लेकर अपने असहयोग अभियान  से एक विमान कंपनी को पंगु बना दिया था... कभी-कभी जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल/अनशन , नर्सों की  हड़ताल, वार्ड-बोयस की अप्रत्याशित   हड़ताल पूरे  के  पूरे शहर को पंगु कर देती है...लोग अब बदली हुई परिस्थिति को समझना ही नहीं चाहते...गाँधी जी ने जब इन हथियारों का प्रयोग किया था तब भी जन कल्याण के भाव को कभी नाकारा नहीं था...(वो तो चौरी-चौरा कांड में भी शत्रु के अहित से भी दुखी हुए थे). उस समय देश में के शत्रु सरकार थी तो यह हथियार उस व्यवस्था  को पंगु  बनाने के लिए  प्रयुक्त हुए  थे  किन्तु वर्तमान में जन-कल्याण को नज़र-अंदाज़ करके  अपनी ही सरकार को पंगु बनाना कहाँ तक उचित हैं यह प्रश्न सभी को हड़ताल से पूर्व स्वयं से करना चाहिए . इस विषय  में इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमारे  सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में ही  एक विश्वविद्यालय की छात्रा  को फटकार  लगाई थी कि तुम गाँधी नहीं हो और गाँधीवादी तरीकों का प्रयोग विद्यालय और शिक्षा व्यवस्था को  पंगु  बनाने के लिए नहीं कर सकते. सोचने की बात  है कि हमारे राष्ट्र की सर्वोच्च न्यायिक संस्था को ऐसा क्यों कहना पड़ा? मेरी  समझ में तो दो ही विकल्प आते हैं-

  1.  वर्तमान में गाँधीवादी तरीकों ने अपनी प्रासंगिता खो दी है.


  2. हमने गाँधीवादी तरीकों का इतना दुरूपयोग कर लिया हैं कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था भी कहती हैं - "बस बहुत हुआ"

गाँधीवादी सिद्धांत तो गाँधी से जन्मे नहीं हैं...वो तो युगों से हमारी परंपरा में विद्यमान हैं...अहिंसा महावीर और बुद्ध के मनन और वाल्मीकि की करुणा में बहती एक अविरल धारा के रूप में हमारी संस्कृति का अविभाज्य अंग रही हैं. गाँधी तो चन्द्र के समान उस ज्ञान की रोशनी में बस चमक गए (सारे चकोर चन्द्र पर मोहित हैं...सूर्य को कोई पूछता भी नहीं :) ) . अतः अहिंसा  एक शाश्वत सत्य की तरह अपनी प्रासंगिता नहीं खो सकती है  (हाँ! स्थान और काल के आधार पर उसकी उचित व्याख्या करनी होगी). मुझे तो केवल  दूसरा कारण ही नज़र आता हैं और उसका मूल हमारी व्यतिगत छवि को सिद्धांतों से ऊपर रखने की आदत हैं....क्योंकि हम गाँधी के विचारों और सिद्धांतों को नहीं गाँधी को जीवित रखने के प्रयासों में जुटे हैं इसीलिए हम गाँधीवादी तरीकों के  दुरूपयोग को बढ़ावा दिए जा रहे हैं....

और हम भूलते हैं कि गाँधी को जिन्दा रखने के इस जूनून में हम हर पल, हर क्षण उन्हें मारते जा रहे हैं....

Sunday, September 27, 2009

क्या आपके साथ भी ऐसा होता है...

कई दिनों से लिखने का प्रयास कर रहा हूँ परन्तु पता नहीं क्यों कोई भी लेख पूरा नहीं कर पा रहा हूँ... ऐसा भी नहीं कि विषय नहीं मिल रहा. विषयों की विवधता भी कम नहीं हैं, किन्तु जब भी कुछ शुरू करता हूँ अधलिखा लेख छोड़ कर उठ जाता हूँ, विचार पूर्णता और संतुष्टि के मापदंडों पर खरे उतरने के पहले ही दम-तोड़ते नज़र आते हैं.... किनते ही विषय पर पोस्ट आधी-अधूरी पड़ी हैं. कितनी ही  कहानियों के पात्र अपने चरित्र का विस्तार पाने के लिए मेरी राह देख रहे हैं, कितने ही संस्मरण स्मृति-पटल और चिठ्ठे के बीच त्रिशंकु की तरह झूलते हुए मुक्ति की आकांक्षा पाले हैं...

शुरू-शुरू में तो आलस्य वश, फिर बच्चों की छुट्टियों के समाप्त होने के नाम पर, कई आत्म-निर्मित बहानों की ओट में लिखना टालता रहा. हाँ, इस काल में ले देकर कुछ कविताओं का सृजन हुआ पर सार्थक एवं गंभीर विषयों से दूरी बनी रही...कभी कभी मन को बहुत समझा कर लिखा भी तो लेख प्लूटो के समान ही विषय रुपी सूर्य  से कई कोसों दूर की परिक्रमा करता लगा....कुछ समझ न आने के कारण कुछ दिन शहर के बाहर भी घूमकर आया किन्तु कार्य, परिवार और सामाजिक निर्वहन के बीच 'स्वान्तः सुखाय' वाला लेखन कहीं भटक गया है....स्वयं को आल्हादित करने वाली बात नहीं बन पा रही

आजकल तो हालत ऐसे चल रहे हैं कि कभी-कभी तो अध्धयन करने से कतरा जाता हूँ... अपनी बारहवीं कक्षा के दिन याद आ जातें हैं जब मेरी निद्रा और पिताजी के पद-चापों में एक दूसरे को परास्त करने की प्रतिस्पर्धा सदैव बनी रहती. अभी हाल में कई रात उस काल के समान किताबों की चिलमन ओढ़कर निद्रा-सुख भी लिया. हाँ! पिताजी कुपित होने को आसपास नहीं थे (वो तो अपनी लखनऊ की प्रारंभिक ठण्ड का आनंद ले रहे होंगे) , तो भी पत्नी ने उनकी कमी कदापि भी खलने नहीं दी. किताबें छानने के भागीरथी प्रयासों से बचने के लिए ऑडियो पुस्तकों की शरण भी की किन्तु कई बार कानो और मस्तिष्क की दूरी मानो नक्षत्रों सी हो गई. ऐसा लगा कि कुछ प्रकाश वर्षों के बाद ही मष्तिष्क को पता चलेगा  कि क्या सुना...वैसे तो इस प्रकार की दूरी भार्या-संवाद और भारतीय चलचित्रों के दौरान  बनाना तो एक कला हैं किन्तु उस कला की पुनरावृति ऑडियो पुस्तकों के श्रवण के दौरान होना आश्चर्यजनक ही था....

बड़ा जतन करके जो कुछ कविताएँ और ग़ज़लों को लिखा तो उन्हें भी दोहराने का प्रयास नहीं किया . सभी वर्तनियों की त्रुटियों से यूँ भरी  थी कि मानो किसी माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेर की पहली रिलीज़ हो...माना कि एक पाठ दुहराने की हमारी आदत पुरानी हैं किन्तु आजकल न जाने कहाँ नदारद हो गई हैं. . इश्क के मामले में तो कई सौ बार दिल लगाया तब जाकर दिल-लगाना सीखा...मधुबाला से लेकर रेखा, डिम्पल और सोनम कपूर तक का सफ़र न जाने किनती मोहल्ले, कॉलोनियों, स्कूल कालेजों से होता हुआ हमारी पत्नी पर आकर रुका, पता नहीं... वो बात अलग है कि अब भी पत्नी को विश्वास दिलाना कठिन हो जाता हैं.  "आई लव यू" जैसे सार्वभौमिक शब्दों की पुनरावृति , लगभग दस वर्षों की तपस्या और दो बच्चों की गवाही भी इस मामले में प्रभावहीन हो जाती है. किन्तु इससे आप यह अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि हर बात दुहरा कर पक्का कर लेना मेरी (प्राचीन?) स्वभावगत विशेषताओं में शुमार था. पर वर्तमान में वो तो नेताओं पर हमारे विश्वास की तरह लोप ही हो गई हैं. ऐसा मैं यूँ ही  नहीं कह रहा हूँ आप साक्ष्य के तौर आप मेरे "जीवन के पदचिन्ह"   चिठ्ठे की नवीन रचना देख सकते हैं, जो इसी विषय-वस्तु पर हैं और त्रुटियों से भरी थी. (भला हो आदरणीय अरविन्द मिश्रा जी का जो उन्होंने मेरा ध्यानाकर्षण इस ओर करके मुझे अपनी त्रुटियों को  सुधारने का अवसर प्रदान किया )

ऐसा ही हाल सरयूपारीण वाले चिठ्ठे का हैं...कई निबंध भारतीय रक्षा बेडों में  पड़े मिग विमानों की तरह चंद उद्धरण रुपी कलपुर्जों के अभाव में जंग खा रहे हैं...वहां तो निबंध पूरा किये हुए इंतना समय हो गया है कि कभी-कभी भय लगता है कि मेरे आदरणीय पाठक और मार्गदर्शक यह न समझ ले कि अपने चंद्रयान की तरह लम्बा-चौड़ा अभियान काट-छाँट कर अपने उद्देश्य पूर्ति से पूर्व ही समाप्त हो गया . अभी तो वहाँ विषय के धरातल की सतह को  परखा ही था -ख़ुशी ख़ुशी जल ढूँढने की घोषणा के पहले ही लेखन का खरमास आ गया. मैं अपने सभी साथियों को यह आश्वस्त करूंगा कि शीघ्र ही वहाँ मैं इस लेखन का ग्रहण समाप्त करूंगा. ईश्वर बस इतना समरथ प्रदान करें कि यह आश्वासन भारत के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की तरह बनकर न रह जाए. वैसे तो सरकार की भांति हम पंचवर्षीय योजना बनाकर हर बार एक ही प्रयोजन तो (बार-बार) प्रयोग नहीं कर सकते. अतः अब सार्वजानिक रूप से कहने के बाद तो संभवतः अपना वादा निभाने की कोशिश करनी ही पड़ेगी वरना आज से दस-ग्यारह वर्ष बाद कोई सुश्री पाठकों में से कोई भी डॉ. संथानम की तरह आकर कहेगा कि मेरे वादे भी पोखरण-२ की तरह फुस्सी निकल गए....

जैसे हमारे गाँव देहात में कभी-कभी बुरे ग्रहों के दुष्चक्र से निकालने के लिए वृक्ष, गोरु, स्वान किसी से भी बालक या बालिका का विवाह संपन्न करा दिया जाता हैं...वैसे ही सोचता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने भी आलस्य रुपी दुष्चक्र को तोड़कर बाहर निकलूँ. अपने विचार रखकर अब भयभीत भी हूँ कि अपने आलस्य को ग्रहों के कारण बताने से चिठ्ठाजगत में चल रहे जोरदार बवंडर में न आ जाऊं. कृपया मेरे डिस्क्लेमर को यूँ समझा जाए कि मेरी ग्रहों में सिर्फ इतनी ही आस्था  हैं कि मैं अपनी विज्ञान वेधशाला का निर्माण अपने पंडित की सलाह के बिना नहीं करा सकता...अंत में इस विश्वास के साथ कि जिस प्रकार कांग्रेस के युवा नेतृत्व ने पिछले चुनावी समर  में नैया पार लगाई थी उसी प्रकार मेरी यह पोस्ट भी इस महा-आलस्य के भंवर से नेरी नैया पार लगायेगी. और साथ ही मेरी भविष्य में आने वाली पोस्टों को आप लोग चाँद-फिजा के फ़साने की तरह अल्पावधि में न भुलाकर लैला-मजनूँ के प्रेम कहानी की तरह याद रखेंगे...

आलस्य-आच्छादित
अप्रवासी


Wednesday, September 2, 2009

क्या दुनिया हिंदू हुई जाती हैं?

इस बार के "न्यूज़ वीक" के संस्करण में लिसा मिलर का एक लेख "वी आर आल हिंदू नॉव ("We Are All Hindus Now ") प्रकाशित हुआ है। इस लेख में अमेरिका में बढती सामाजिक विवधता के कारण आने वाली सामाजिक सोच और बहु-पंथ स्वीकारता के विषय में चर्चा हैं...और साथ ही इस स्वीकारता को ही हिंदुत्व की भावना माना है ।

अमेरिका, जो मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता का समर्थक संविधान रखता हैं, में ईसाई बहुसंख्यक हैं। यह राष्ट्र की नीतियों से लेकर कानून पर भी अपेक्षित प्रभाव रखते हैं जिसके उदाहरण विवाह से लेकर गर्भपात सम्बन्धी कानूनों में स्पष्ट दिखते हैं। किंतु कई सम्प्रदायों से मिलन से वैचारिक सहिष्णुता का नया अध्याय लिखा जा रहा है। ऋग्वेद के "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" सिद्धांत के अनुरूप अब अधिकांशतः अमेरिका ईश्वर प्राप्ति के कई मार्गों में विश्वास करने लगे हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर कई पश्चिमी और पूरबी विचारधाराओं के मिलन से जीवन चक्र और कर्मों की गति, पुनर्जन्म में भी विश्वास बढ़ा है। इन भारतीय विचारों के सभी धर्म के अमेरिकी नागरिकों में बढती स्वीकारिता को लिखिका ने हिंदू विचारों का अनुमोदन माना हैं।

हिंदू धर्म को सदैव कट्टर और आदिम दृष्टि से देखने वालों के लिए यह एक अच्छा सबक हैं । "वसुधैव कुटुम्बकं" के उपासक धर्म के सहिष्णुता के मंत्र से अब विश्व सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ रहा हैं। हर नवीन ज्ञान के लिए पश्चिम के अनुमोदन का मुख देखने वाले जन भी अब हिंदुत्व को इसी प्रकाश में देखकर कुछ सीखेंगे इसी उम्मीद के साथ ....
सगर्व ,
अप्रवासी

Sunday, August 30, 2009

नस्लभेदी माइक्रोसॉफ्ट ?

भारत में जातिप्रथा उन्मूलन को लेकर हमेशा ही विवाद बने रहते हैं। और इसमे कोई अतिशयोक्ति भी नहीं हैं कि कागजी उन्मूलन के बावजूद चुनावी गणित से लेकर सहज ग्रामीण जीवन में इसके लक्षण दिख ही जाते हैं। किंतु अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मूल रूप से नस्ल भेदी आचरण कम ही दिखता हैं....और कम से कम बहुराष्ट्रीय कंपनियों से तो ऐसी आशा कम ही की जाती हैं (हाँ- हिंदू-भावनाओं की बात अलग हैं ) किंतु कभी-कभी जाने -अनजाने कुछ ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं (जो कि इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों की त्रुटिवश भी हो सकता हैं) जो इनकी छवि को धूमिल करने के लिए काफी होती हैं।



अभी हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट ने अपनी पोलिश वेबसाइट पर एक श्याम वर्णी व्यक्ति की तस्वीर को पोलैंड के लिए एक गोरे व्यक्ति की तस्वीर से बदल दिया था (देखें) । संभवतः यह पौलैंड के लोगों की मान्यताओं के अनुसार ही किया गया होगा। इसे टारगेट मार्केटिंग और मार्केट सेगमेंटेशन के दृष्टि से उचित मान कर शायद अंजाम दिया गया होगा। इसके फलस्वरूप हर जगह माइक्रोसॉफ्ट की जबरजस्त भर्त्सना हुई। इसके रहस्योद्घाटन के बाद आनन -फानन इसका सुधार भी हो गया। माइक्रोसॉफ्ट ने ट्विट्टर पर अपनी गलती स्वीकार करते हुए माफ़ी भी मांग ली। किंतु इस घटना से जो नुक्सान होना था वो तो हो ही गया।



इस घटना से दो बातें उभरकर आती हैं -
१) इस प्रकार से नैतिक मूल्यों और मापदंडों को ताक पर रखकर मार्केट सेगमेंटेशन और टारगेट मार्केटिंग कितनी उचित हैं
२) क्या युरोपिय राष्ट्रों में अभी भी श्याम-वर्णीय लोग प्रचार साधनों में भी स्वीकार नहीं हैं ?
यह दोनों ही बातें मानवीय और नैतिक दोनों ही आधारों पर क्षोभ का विषय हैं । इनकी जितनी भी निंदा /भर्त्सना की जाए कम हैं । हमारे भारतीय समाज पर ऊँगली उठाने से पहले पश्चिमी जगत को अपने अन्दर व्याप्त इस तरह के रंग-भेद से ख़ुद भी छुटकारा पाना होगा। (पर यह घटना हमारी जातिभेद की के प्रति जिम्मेदारियों को समाप्त नहीं करती और हमे जातिगत भेदभावों के उन्मूलन के लिए कार्यरत रहना ही होगा )

Saturday, August 29, 2009

महापुरुषों की आलोचना और हम

आज सायंकाल मैं राजशेखर व्यास लिखित पुस्तक "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!"पढ़ रहा था। इस पुस्तक में भी नेताजी सुभाष चाँद बोस और पंडित नेहरू के रिश्तों पर चर्चा के दौरान कुछ पंक्तिया ऐसी मिली जिसमे महापुरुषों के सम्बन्ध में हमारी भारतीय मानसिकता का विश्लेषण किया गया। यह पंक्तिया वर्तमान सन्दर्भ में जिन्ना, पंडित नेहरू और सरदार पटेल के विभाजन सम्बन्धी विवाद में भी सटीक बैठती हैं। मैं समझता हूँ कि हम सभी को स्थापित मापदंडों से निकलकर राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर विभाजन का विश्लेषण करना होगा। विभाजन एक सच्चाई हैं जिससे नकारा नहीं जा सकता किंतु उसके कारकों के अध्धयन से राष्ट्र को भविष्य के लिए यथोचित सीख मिलेगी। वर्तमान सन्दर्भ में "सरहद पार सुभाष - क्या सच:क्या झूठ!" से राजशेखर व्यास के निम्न विचार पढिये और बतायें कि क्या आप इसे सहमत हैं या नहीं...

"...प्रायः हम अपने महापुरुषों की पुण्य-तिथियों और जन्म-दिवसों पर उनकी गुण-गाथा और यश-गान ही गाया करतें हैं, उनकी आलोचना या कमजोरी को सच्चाई और ईमानदारी से कहने और सहने का नैतिक साहस भी हम में नहीं हैं । क्या हम यह समझते हैं की हमारे महापुरूष इतने कच्चे हैं कि वे आलोचनाओं से ढह जाएँगें? दुसरे उनकी आलोचनाओं को उनके प्रशंसक, अनुयायी अपनी व्यक्तिगत आलोचना मान लेते हैं तथा उसे अपने अहम् और सम्मान का प्रश्न बना लेते हैं। एक प्रवृति और दखी गई है, जब भी कोई आलोचक, विद्रोही, प्रचलित परम्परा, मान्यता, विश्वास और सिद्धांतों को तोड़ने का साहस या प्रयत्न करता है तो उसे भी घमंडी या अहंकारी समझा जाता है। प्रायः यह भी देखा गया है कि महापुरुषों के समर्थक इतने अंध श्रद्धावान या कट्टर होते हैं कि उनके खिलाफ सच्चाई का एक शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करते। संभवतः वे यह समझते हैं कि अगर उनके प्रेरक का ही व्यक्तित्व ढह गया या स्वयं ही कमजोर, अक्षम या ग़लत साबित हो गया तो उनका स्वयं का अस्तित्व भी तब कहाँ जाएगा , और अपने अस्तित्व ढहने जी कल्पना मात्र से ही हम लोग इतने आतंकित रहते हैं कि सच्चाई कहने -सुनने का साहस भी खो बैठते हैं। "

Sunday, August 23, 2009

भाजपा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडम्बना ही हैं कि सारे के सारे मुख्या-धारा के राट्रीय राजनैतिक दल लोकतान्त्रिक दलगत ढांचे में विश्वास नहीं करते हैं। हमारी कांग्रेस जहाँ राजवंश मोह से च्युत नहीं हो पाती, वहीं बासपा बहन जी से बाहर नहीं सोच सकती हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में भी गिने चुने चेहरे ही हैं। भाजपा - "अ पार्टी विद डिफरेंस" से कम से कम ऐसी अपेक्षा थी कि वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी अभिव्यक्ति को दलगत राजनीति की परिधियों से बाहर रखेगी । किंतु पिछले कुछ वषों में पार्टी सोच की एक पूर्व-निर्धारित लीक से हटकर नहीं सोच पा रही हैं। हिंदुत्व और राष्ट्रीयता के मुद्दों में अपनी स्थिति भी स्पष्ट रूप से नहीं रख पा रही हैं। जहाँ संघ से अपेक्षित रूप से जुडा रहकर कर अतिवादी हिन्दू विचारधारा का समर्थन भी करना चाहती हैं वहीं दूसरी ओर सर्व-लुभावन पार्टी भी दिखना चाहती हैं। इस प्रकार विचारधारा के दो छोरों के बीच दल की डावाडोल स्थिति ने दल के नेतृत्व से जुड़े लोगों के लिए भी असमंजस और दिशाहीनता ही प्रदान की है। एक लंबे अरसे से दल के ध्वजारोही रहे कल्याण,उमा भारती आदि इसी वैचरिक द्वंद के चलते पार्टी से बाहर निकाल दिए गए । ऐसा प्रतीत होता हैं कि दल की सोच के स्थापित मापदंडों से बाहर सोचना संघ और भाजपा के वर्तमान नेतृत्व के साह्य नहीं हैं।


इसी क्रम में नवीनतम कड़ी हैं जसवंत सिंह। उन्हें जिन्ना पर अपने विचारों को प्रकट किया नहीं कि जिस दल के वे संस्थापक सदस्यों में से थे उसी ने उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। दल ने पहले ही स्वयं को, उनके जिन्ना सम्बन्धी विचारों को उनके व्यतिगत विचार बता कर , उनके कथन से दूर कर लिए था। फ़िर दल के चिंतन बैठक के पूर्व बिना किसी चेतावनी के, बिना उनका पक्ष सुने निष्काषित करना मात्र तानाशाही का प्रतीक हैं। दलगत लोकतंत्र के मूक एवं निर्मम वध हैं। हाल में ही हुई चुनावों में दल की पराजय के वास्तविक कारकों के निर्धारण और विश्लेषण के स्थान पर ऐसा अनुचित कदम नहीं उठाते। जसवंत सिंह ने कई बार दल के लिए विषम स्थितियां खड़ी की हैं और संभवतः दल उनसे इसी कारण निजात पाना चाहता हो । उनके ऊपर भ्रष्टाचार, अफीम, चुनावी नोट-वोट कांड, पुत्र मोह और कंधार जैसे कई विवादस्पद आरोप रहे हैं। किंतु उसके बावजूद उनका इस प्रकार से दल-निष्कासन किसी भी प्रकार उचित नहीं हैं।

अडवाणी जी ने भी जिन्ना की मजार पर जाकर मत्था टेका ही था। संघ ने नाराजगी तो दिखाई थी पर आसानी से इस आधार पर क्षमादान भी दे दिया था कि वो अडवाणी जी का व्यक्तिगत मत हैं। अडवाणी जी ने भी जिन्ना के भाषणों और अन्य विचारों और पत्रों के आधार पर अपने व्यक्तव्य को सत्य स्थापित करने का प्रयास किया था। आज जब जसवंत सिंह ने भी वही बात की तो इतना शोर क्यों हैं? मुझे तो राम चरित मानस का वो प्रसंग याद आता हैं जब मंदोदरी और विभीषण दोनों ने ही राम को सीता ससम्मान लौटने का अनुरोध किया था। रावन ने जहाँ मंदोदरी को हंसकर गले लगा कर समझाया वहीं बिचारे विभीषण को भरी सभा में पदाघात और राज-निष्कासन का दंड मिला। ऐसा ही कुछ जसवंत के साथ भी हुआ। यूँ तो इन्टरनेट पर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के सर्वे में अधिकांशतः लोगो ने भाजपा को आडवाणी और जसवंत के लिए दोहरे मापदंडो के लिए कठगरे में खड़ा किया हैं। किंतु इन सबसे इतर जिस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ हैं वो दुखद हैं। आज ही जसवंत सिंह ने अटल जी से मुलाकात की हैं और सुधीन्द्र कुलकर्णी के सैद्धांतिक कारणों से त्यागपत्र के बाद भाजपा में उत्पन्न होने वाली नवीन परिस्थितियाँ वास्तव में भारतीय राजनैतिक पटल पर महत्वपूर्ण हो सकती हैं।

Saturday, August 22, 2009

इस छोटे से बालक से कौन डरेगा

अप्रवासी जीवन की सबसे बड़ी असमंजस भरी बात होती हैं कि "साम दाम दंड भेद" किसी भी जुगत से अपने बच्चों को अपने व्याप्त देसीपन की घुट्टी कैसे परोसी जाए। इसी ध्येय से प्रेरित होकर हम अक्सर ही बच्चों को कुछ न कुछ भारतीय परोसते रहते हैं.... फ़िर चाहे वो भारतीय किस्से हों या चलचित्र हो... अक्सर इस भारतीयता के उन्माद में हम यह भी भूल जाते हैं कि जो हम परोस रहें हैं वो बच्चे ग्रहण भी कर रहे हैं या वे अपनी ही समझ से कुछ और सीख रहे हैं....

हमारे एक मित्र हैं (नाम नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मेरे मित्रगण जो इस चिठ्ठे को नियमित पढ़ते हैं उनको भी जानते हैं) जिनके दो पुत्र हैं दोनों में लगभग २ साल का अन्तंर हैं। कुछ सप्ताह पूर्व मैं उनके घर गया तो पाया कि दो बच्चों के बावजूद घर में जबरजस्त शान्ति हैं। इस अभूतपूर्व शान्ति से घर का सारा माहौल भी असहज सा लग रहा था। थोडी देर की औपचारिकता के पश्चात् मुझसे भी नहीं रहा गया, तो मैंने पूछ ही लिया की बच्चे इतने शांत क्यों हैं (इस प्रकार का परिवारिक मसलों का अतिक्रमण देसी भाई ही कर सकते हैं) । इस पर हमारे मित्र महोदय बोले - "यार! पूछो मत इन बच्चों ने नाक में दम कर रखा हैं। दोनों को 'टाइम आउट' दिया हैं। अब यहाँ बच्चों को अनुशासित करने के लिए मार तो सकते नहीं, तो टाइम आउट से काम चलाना पड़ता हैं" । मेरे अनुभव में अमेरिका में देसी बच्चों के लिए टाइम आउट ही सबसे ज्यादा प्रयुक्त सजा हैं जिसमे बच्चों को थोडी देर का एकांत दे दिया जाता हैं। किंतु यह सजा भी कुछ समय के बाद अपना असर खो देती हैं - हमारी बिटिया तो टाइम आउट मिलने पर ज्यादा खुश होती है ( -चलो कुछ क्षण डांट-डपट से पिंड तो छूटा) हमारे ज़माने तो बापू के थप्पड़ के डर से ही पता नही क्या-क्या हो जाता था ।

हमने भी आगंतुक की भूमिका निभाते हुए कहा - "क्या यार, इतने तो सीधे -साधे बच्चे हैं। इनको काहे को हड़का के रखा हैं। हुआ क्या?"। इस पर उन्होंने हमे बताना शुरू किया - "इन शैतानो को मैं दिखाने के लिए "बाल-गणेशा" की सीडी लाया था।" हमारे मन ने उसी क्षण एक जोर का झटका धीरे से खाया - भइया इ आधुनिकता की मिसाल कौनो न कौनो रूप में सामने आ ही जाती हैं - योग का योगा, गणेश का गणेशा!! अरे भइया भगवान् का नाम तो नहीं बिगाडो!! पर मन को हमने भी औपचारिकता के आँचल में ढककर मौन का सहारा लिया। उन्होंने अपना कथन जरी रखा - "मैंने सोचा भक्ति भावः से भरी पिक्चर हैं..कार्टून के साथ...कम से कम दोनों कुछ तो जानेगे अपने देवी-देवताओं के बारे में, अपने कल्चर के बारे में....कुछ समझ तो बनेगी हमारी पौराणिक कहानियों की.....इन दोनों ने भी बड़ा मन लगाकर कर पुरी पिक्चर देखी!!" मैंने हामी भरकर उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस कथांकन में अभी भी उनके साथ हूँ। उन्होंने कहानी को आगे विस्तार दिया..."भइया हमने सोचा था कि पिक्चर देखकर कुछ गणेशा के बारे में सीखेंगे पर ई दोनों असुरों से सीख लिए..." उनकी आंखों और वाणी में क्रोध और वेदना के मिले जुले भावः स्पष्ट उभर आए। हमारे ह्रदय में भी इस रहस्य और उसके आसुरी पक्ष को जानने की उत्कंठा भी तीव्र हो गई। हमने फिर निशब्द हामी भरी और उन्होंने आगे कहा - "पिक्चर देखने के बाद , शाम को यह दोनों सब-डिविजन (मुहल्ले) के बाकी बच्चों के साथ खेलने लगे ...तुमको तो पता हैं छोटा वाला बड़े वाले का चेला हैं...सो सारे बड़े वाले के दोस्तों ने मिलकर खेल-खेल में बाल-गणेशा का मंचन शुरू कर दिया । छोटा वाला गणेशा बना और बाकी सभी राक्षस... पिक्चर के एक सीन में बाल-गणेशा सारे राक्षसों को ललकारता हैं। उसपर सारे राक्षस बाल गणेशा को यह कह कर नकार देते हैं - "इस छोटे से बालक से कौन डरेगा" किंतु राक्षसों को गणेशा को हल्के लेना काफी भारी पड़ता हैं और गणेश उन सभी का काम-तमाम कर देता हैं। हमारे बड़े साहबजादे ने भी अपने दोस्तों के साथ राक्षस दल का नेतृत्व किया लेकिन हराने के लिए तैयार नहीं थे...इनके सारे दोस्तों ने मिलकर कर छोटे वाले को इतना पीट दिया कि उसका हाथ ही टूट गया...चेहरा भी सूज गया हैं - अब बताओ इन दुष्टों को सजा न दूँ तो क्या करुँ?"

उनकी कहानी सुनकर हमसे उनसे उस वक्त कुछ भी कहते न बना । थोडी देर बाद जब हम उनके घर से निकले तो बस यही सोचते हुए कि आजकल के बच्चे - बाप से बाप !!

Friday, August 14, 2009

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

वंदे मातरम्। वंदे मातरम्।।

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हुन्दुभुमे सुखं वर्धितोहम
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते

आज राष्ट्र उत्थान की कामना के साथ और
स्वतंत्रता पथ न्यौछावर अमर शहीदों की स्मृति के साथ
अपने भेदभावों को बिसराकर
आओ प्रण करें कि
इस वैश्विक विस्तार के युग में, हम जहाँ भी हो, जैसे भी हों ,
भारत के आदर्शों को कभी नहीं भुलायेंगे ।

ईश्वर हम सबको इतना सामर्थ्य प्रदान करे कि
राष्ट्र गरिमा और राष्ट्र रक्षा के लिए
हम अपना सर्वस्व भी बलिदान करने से कभी पीछे न
हटे।

सभी श्रद्धेय जन और राष्ट्र-प्रेमी भारतवासियों को स्वतंत्रता-दिवस की हार्दिक बधाई।

Wednesday, August 12, 2009

विदेशी बाबाओं और तांत्रिकों का खेल

आज थोडी देर पहले यह ख़बर पढ़ी कि ब्रिटेन में बसने वाले तांत्रिक, ओझाओं और बाबाओं की अब खैर नहीं और उनके विरूद्व कड़ी कार्यवाही की जायेगी। मन ने हर्ष से किसी उच्छृंखल मृग की तरह कुचालें भरनी शुरू कर दी कि चलिए भारतीयता और पुरातन शास्त्र के ज्ञानी होने के दंभ भरने वाले इन पोंगा पंडितों की ठगी की दूकान तो बंद होगी और और हमारे पुरातान ज्ञान को कुलषित करने इन व्यवसायियों से वैश्विक समाज को मुक्ति मिलेगी। किंतु स्वार्थी मन ने तुरंत ही मानस पटल पर उछलती हर्ष तरंगों में व्यवधान ड़ाल दिया कि अगर यह बाबा लोग नहीं रहेंगे तो जी टीवी, स्टार प्लस आदि चैनलों पर आने वाले धारावाहिकों को प्रायोजित कौन करेगा? इनके आभाव में तो सारा तारतम्य ही बिगड़ जाएगा, हमारी पत्नी और माता जी फ़ोन पर किस विषय पर वार्ता करेंगी, तमाम मित्र-मण्डली के मिलने पर यदि सारी सखियाँ धारावाहिक की कहानियों से विहीन होंगी तो फ़िर तो सिर्फ़ शौपिंग जैसे खर्चीले विषयों पर चर्चा करेंगी या हम पतियों के विषय में...दोनों ही खतरनाक हैं .... इन सभी बाबाओं (चाहे वे अजमेरी बाबा हों या फ़िर पंडित महाराज) के आस्तित्व से समाज में, परिवार में एक व्यवस्था बनी हुई हैं... जिसके मिटने से कई दुविधाग्रस्त स्थितियां आ जाएँगी। सामाजिक कल्याण और पारिवारिक शान्ति के बीच के चयन की स्थिति आम-तौर पर तो सहज ही होती हैं (भाई, परिवार रहा तो समाज रहेगा ) किंतु मन के ऊँट ने कई करवटें बदल कर समाज कल्याण का रुख किया....

सच, इस तरह की दुकाने सिर्फ़ भय और भविष्य के दिवास्वप्न पर ही पलती हैं। कई बार व्यक्ति हताशा और असफलताओं के ऐसे दुष्चक्र में फंसा होता हैं कि डूबते को तिनके का सहारा वाली आस के साथ इन महानुभावों के जंजाल में फंस जाता हैं। भारत में ही कितने कांड अक्सर ही सुनने को मिल जातें हैं। लोग जलती चिता नहीं छोड़कर आते हैं, लाशें कब्र से खोद कर निकल लेते हैं, बच्चों को चुरा के नरबलि जैसी घृणित कृत्यों की कितनी कहानियाँ मिल जाती हैं। हमारे भी एक सहयोगी ने इन बाबाओं के चक्कर में कई हजार डॉलर फूँक डाले थे। उनकी कहानी भी फोर्ड से नौकरी जाने से हुई। कहते हैं कि बुरा वक्त हर तरफ से घेरकर आता हैं... उस बिचारे के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, उसकी कार का एक्सीडेंट हुआ, फ़िर उनकी पत्नी का गर्भपात भी हो गया। उनको लगा कि किसी ने गाँव से भूत प्रेत हांक दिया हैं (क्योंकि दुर्भाग्य से वे नौकरी जाने से पहले भारत में अपने गाँव होकर आए थे)। उनके इस विचार की पुष्टि उनके गाँव में रहने वाले वृद्ध पिताजी ने भी यह कह कर दी कि हाँ हमारे पट्टीदार (रिश्तेदार) ऐसा कर सकते हैं। फ़िर क्या था, जी टीवी पर आने वाले एक बाबा की शरण में वे जा पहुंचे और बाबा ने १४ दिनों में स्थिति सुधार का गारंटी वाला वादा करके पूजा शुरू कर दी (और उनसे अच्छे खासे पैसे भी वसूले। इन बाबा का धाम तो ब्रिटेन में था, सो उन्होंने आनन-फानन पैसा भिजवाया। १ माह बाद भी जब हमारे मित्र की नौकरी नहीं लगी, तो उन्होंने बाबा से फ़िर दूरभाषीय आशीष लिया। बाबा ने बताया कि यह कोई साधारण भूत नहीं हैं , कोई बलशाली जिन्न हैं और बाबा को १४ दिन की और तपस्या करनी पड़ेगी....समाधान वही कि पैसा भेजो और २१ ब्राह्मण को भोजन कराओ, सफ़ेद वास्तुओं का अपने वजन के हिसाब से दान करो इत्यादि। बाबा ने कई दिनों तक हमाए बंधू को इन्ही टोने-टोटकों से व्यस्त रखा। अब यह इकोनोमी तो बाबा के जिन्न से भी बड़ी चीज निकली, सीधी होती ही नहीं थी तो नौकरी कहाँ से लगती... इसके चलते तो कई और जिन्न पनप गए होंगे... तो हमारे मित्र की भी नौकरी नहीं लगी। कई हजार की चपत के बाद हमारे बंधू अपनी अंध-विश्वास की निद्रा से जागें तो उन्हें अहसास हुआ कि कोई और नहीं बाबा रुपी जिन्न ही उनके पल्ले पड़ गया हैं। अब मुक्ति के उपाय से ज्यादा उन्हें अपने स्थिति सुधार की गारंटी पर खर्च किए पैसे याद आए। उन्होंने फ़िर बाबा का नम्बर खडकाया कि बाबा कुछ हो नहीं रहा हैं अब आप पैसे वापस करो। बाबा ने किसी स्टोर के मिंजर की तर्ज पर एक फ्री पूजा ऑफर थमा दिया। एक माह बाद जब फ्री पूजा से भी बात नहीं बनी तो हमारे मित्र ने बाबा को फ़िर गारंटी याद दिलाने के लिए फ़ोन किया। अब बाबा भी जान चुके थे कि यह चेला हाथ से निकल चुका, अब यह गाय दुधारू नहीं रही, सो बाबा अन्य कामो में व्यस्त होगए । हमारे मित्र कई दिनों तक बाबा को पकड़ने के लिए दूरभाष कंपनियों के लाभांश बढाते रहे। फ़िर एक दिन जब उनकी बची-खुची खुमारी भी उतर चुकी थी तब उन्होंने तैस में आकर गारंटी वाले पैसे बाबा के फ़ोन का जबाब देने वाले चेले से ही मांग डाले। उसके बाद तो बाबा का रूप ही बदल गया। हमारे मित्र के अगले काल पर बाबा ने उससे बात की और यह धमका डाला कि मेरे पास तेरे वाले जिन्न से भी बड़े जिन्न हैं... तेरी जो एक बच्ची बची हैं में उसको भी छीन लूँगा....उसके बाद से हमारे मित्र एकदम शांत हो गए... अभी हाल में ही भारत लौट भी गए....

पर आप ही बताएं ऐसे बाबा को चुंगल में कितने लोग फंसे होंगे। ऐसे बाबाओं की दूकान बंद होने में ही भलाई हैं।

Friday, July 17, 2009

दीनानाथ

उम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढती हुई एक काया, जिसके बाल, शरीर और चहरे की झुरियां नून-रोटी की रोज-रोंज की जदोजहद की कहानी अपने आप बयाँ करते हैं। उसके चहरे पर के झूठी खुशामद करती हुई मुस्कान हमेशा कुछ यूँ चस्पा रहती कि उसकी आँखों की ज़ुबानी अपने फरेबीपन को ठीक से छुपा भी नहीं पाती। ऐसी ही एक झूठी मुस्कान के साथ उसकी मेरी मुलाकात हुई थी...


बात लगभग चार-पॉँच साल पहले की हैं, मैं अमेरिका से भारत गया हुआ था। मुझे सदैव ही यह बात सताती रही की मैंने चंद दिनों के प्रवास में जितना अमेरिकी भूमि का पर्यटन किया हैं उसका अंश मात्र भी भारत दर्शन नहीं किया हैं। अतः पिछली कई यात्राओं में मैं एक-दो सप्ताह भारत भ्रमण के लिए भी आरक्षित रखता हूँ। हाँ कुछ रिश्तेदारों से जल्दबाजी मैं मिलना पड़ता हैं पर फ़िर मैं माँ-बापू को साथ लेकर कुछ एकांत के परिवारिक क्षण भी बिता पता हूँ। इसी क्रम में मैं पिछली यात्रा में भरतपुर और साथ ही के दुर्ग क्षेत्र की यात्रा पर था। मेरे एक मौसेरे भाई जो आई पी एस हैं भी उसी क्षेत्र में थे - उन्होंने भी साथ घूमने का निर्णय लिया। वहीं जब उनके साथ गेस्ट हाउस पहुँचा तब दीनानाथ से मुलाकात हुई। एक पुलिस का सिपाही जिसे इलाके के क्षेत्राधिकारी ने हमारे भाई साहब और उनके साथ पहुँची हम रिश्तेदारों की सेवा के लिए भेजा था। उसी झूठी मुस्कान के साथ भाई-साहब को उसने सलाम बजाया और फिर धीरे- से सब घरवालों को शिष्टाचारवश नमस्ते करने के उपरांत उसने समान की और नज़र दौडाई और अपने साथी से साथ सारा सामान उठाकर हम सबके कमरे में ले गया।

अगले दिन सुबह से ही वो हमें सारा इलाका घुमाने ले गया। सरकारी गाड़ियों और किराये के टैक्सी में हमारा काफिला चला। बीच में भी भाई साहब से पता चला कि दीनानाथ पंडित हैं और इसी गुण के कारण क्षेत्राधिकारी ने विशेष रूप से हमारे (ब्राह्मण) भाई के लिए चयन किया हैं... (जातिवादी भूत ऊप्र से राजस्थान तक पीछा नहीं छोड़ता)। तीन दिनों की यात्रा के दौरान पानी से खाने तक सभी चीजों में दीनानाथ हमारा ख्याल रखे हुए था... सबसे ज्यादा तो मुझे और मेरी पत्नी को आराम था क्योंकि हमारी ३ वर्षीया पुत्री को वो हर जगह घूमा रहा था... वो यदि थक जाए तो हमारे लाख मन करने पर भी उसे गोदी में उठा लेता था॥ अमेरिका में रहते हुए ऐसी मानवीय सेवा और सुविधा के हम तो आदी नही रह गए थें.... उस पर गोदी के लिए तो सोचना भी असंभव था... स्ट्रोलर के आलावा गोदी वो भी पुरे पुरे दिन के लिए तो पिता होकर भी मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात थी पर दीनानाथ ने पूरी तन्मयता से हमारी बेटी को तीन दिनों तक तनिक भी थकान के अंदेशे से गोदी के सवारी कराई...इन्ही दिनों बातचीत से पता चला कि उसकी सेवानिवृति को एक वर्ष हैं और गाँव में तीन बेटिया हैं ... एक अभी भी विवाह के लिए बैठी हैं, उम्र अधिक हो गई हैं.... कुछ ऊपर की कमाई और वेतन से मिलकर जैसे तैसे काम चल जाता । तीनो दिन हमसे ज्यादा दौड़ भाग दीनानाथ ने ही की होगी।

खैर जैसे-तैसे जब हम चौथे दिन प्रातः जाने को हुए तो मैंने अपनी पत्नी को कहा कि दीनानाथ ने इतने दिनों तक हमारी सेवा की हैं (और साथ ही मुझे लगा कि वह गरीब भी हैं) तो कुछ बख्शीस दे देना ....चलने से पूर्व जब भाई साहब अपनी सरकारी गाड़ी पर चढ़ने को हुए तो दीनानाथ ने झपट कर उनका चरण-स्पर्श किया...भाई-साहब ने भी किसी राजा महराजा की तरह अभय मुद्रा बनते हुए आशीष दे डाला...उसके बाद जब वो हमारी गाड़ी की तरफ़ बढे तो हमारी पत्नी से ५०० के २ नोटों को मोड़ कर उन्हें देना चाहा। दीनानाथ ने इनकार करते हुए कहा क्या कर रहीं हैं मैडम....हम तो आपके बच्चों की तरह हैं आर्शीवाद दीजिये...इतना कहते हुए उन्होंने मेरे और मेरे पत्नी के चरण छू लिए .... हम दोनों ही हतप्रद, किंकर्तव्यविमूढ खड़े उनका मुख देखते रह गए.....मन ने क्रंदन किया ये क्या हैं ये तो हमारे पिता की उम्र के हैं...हम इनके बच्चे हुए पर यहाँ तो यह स्वं को हमारे बच्चो की तरह कह रहें हैं और हमारे चरण स्पर्श कर रहें हैं ....क्या यह सामंती व्यवस्था के अवशेष हैं जो आज भी उस पुलिस विभाग में चले आ रहे हैं जिसको यह सुनिश्चित करना हैं कि सामंती शोषण न हो....बड़ी मुश्किल से हमने अपने रुतबे की दुहाई देते हुए और यह विश्वास दिलाते हुए कि भाई-साहब को कुछ पता नहीं चलेगा - उनको वो पैसे पकडाये।

किन्तु उस घटना और दीनानाथ ने मेरे मानस पटल पर कभी भी क्षीण न पड़ने वाली छाप छोड़ डाली हैं...आज भी उस घटना का बोध न केवल मेरे रोंगटे खड़े कर देता हैं बल्कि मन को क्षोभ से भी भर देता हैं...

Friday, July 10, 2009

हिंदू भावनाओ का तिरस्कार क्यों करती हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ

अभी हाल में ही स्पेन में बर्गर किंग ने माँ लक्ष्मी के साथ अपने गौ-मांस युक्त बर्गर 'Texican Whopper' का प्रचार शुरू किया (देखें)। इस बर्गर को माँ लक्ष्मी के साथ दिखाकर टैग लाइन थी - पवित्र स्नैक। हिंदू के व्यापक विरोध के बाद ये प्रचार सामग्री आनन-फानन हटा ली गयी पर मेरी समझ में ये नहीं आता की बर्गर किंग जैसी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में व्यापक पैठ रखने वाली कंपनी -दुनिया के लगभग १५ प्रतिशत जनसँख्या की उपेक्षा कैसे कर सकती हैं। क्या यह हिंदू सहिष्णुता का परिणाम हैं? अक्सर ही इस तरह की अनदेखी क्यों होती हैं चाहे वो मक डॉनल्डस के फ्रेंच फ्राईस हो या बर्गर किंग की प्रचार सामग्री ....अभी हाल में कुछ जूतों पर हिंदू देवी-देवताओ की तस्वीरें छाप दी गई थीं तो कुछ दिनों पूर्व लन्दन में एक जूता बनानेवाली कंपनी ने अपने मॉडल का नामकरण 'विष्णु' और कृष्ण कर दिया था...

धार्मिक सहिष्णुता का मतलब निरंतर धार्मिक अवमानना या अपमान तो नहीं होना चाहिए। मैं जनता हूँ कि बहुत से प्रबुद्ध पाठक हिंदू उग्रवाद की बात करेंगे ("क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ") किंतु मेरी समझ से एक तरफा उग्रवाद और उन्माद से यह सिलसिला बंद नहीं होने वाला हैं.... हिंदू भावनाओ के प्रति पश्चिमी जगत, विशेष कर कारपोरेट जगत की संवेदनशीलता किस प्रकार जागृत की जा सकती हैं, यह हमारे समाज के सामने एक बड़ी चुनौती हैं....

Wednesday, July 8, 2009

ज़रदारी की स्वीकारोक्ति: पाकिस्तान का भस्मासुर

आज 'टाइम ऑफ़ इंडिया' की वेबसाइट पर यह ख़बर ("Pak created and nurtured terrorists: Zardari") पढ़ते-पढ़ते मैं ठिठक गया। न तो इस ख़बर में कोई नई बात, न ही कुछ नवीन जानकारी। फ़िर भी जिस बात ने मुझे चौकाया वो थी पाक राष्ट्रपति के द्वारा स्वीकारोक्ति। उनके अनुसार क्षणिक लाभ के लिए किए गए पकिस्तान के इस प्रयास की विफलता....सर्वविदित हैं कि यह क्षणिक लाभ तो भारत के अहित के आलावा कुछ भी नहीं हैं...

पकिस्तान ने जो कट्टरपंथियों की जमात तैयार की हैं वो न तो पाकिस्तान कि ही सगी हैं न भारत की। एक पूरी पीढी के ज्ञान-चक्षु बंद करके हो नेत्रहीनों की तालिबानी सेना तैयार की हैं उनसे अब सही दिशा में जाने की उम्मीद भी बेकार हैं। जरदारी के शब्दों में - वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की घटना से पूर्व यह वर्ग पाकिस्तानी समाज के सम्मानित नायक थे किंतु तत्पश्चात ये सिर्फ़ खलनायक रह गए...और आज का इनका बढ़ा हुआ स्वरुप पाकिस्तानी तंत्र की विफलता नहीं हैं क्योंकि उसीने तो वर्षों इस व्यवस्था को पला और पनपने दिया हैं.... हाय रे! भोलापन... सत्य से साक्षत्कार - भस्मासुर ने सर पर हाथ रखने की इच्छा प्रकट की तब ही पता चला हम ने क्या कर डाला...

काँटों के बेल को सालों पनपाया कि पडोसी के दरवाजे पर छोड़ आयेंगे आज घर के ही लोंगों को कांटे चुभ रहे हैं तब समझ में आया कि क्या कर डाला। कश्मीर की आजादी के नाम पार पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस तक कितने मदरसे समाज-विरोधी विष उगल रहे हैं (देखें) , जिस प्रकार अभी भी प्रतिदिन सीमा पार घुसपेठ के प्रयास होते हैं, जिस प्रकार दाऊद को संरक्षण प्राप्त हैं उससे तो लगता नहीं कि पाक ने अभी भी कुछ सबक लिया हैं। फ़िर भी यदि इस स्वीकारोक्ति को एक अच्छी पहल माना जा सकता हैं (या अपरिपक्व राजनेता की निशानी - जो ज़रदारी के लिए उचित नहीं हैं)

Sunday, July 5, 2009

ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी... की चौपाई अप्रवासी की दृष्टि से

अभी कुछ दिनों पूर्व 'बालसुब्रमण्यम जी' के चिठ्ठे को पढ़ रहा था। उन्होंने तुलसीदास के हिन्दी भक्तिकाल को योगदान के विषय में लिखा हैं। तुलसीदास मेरे भी प्रिय रचनाकारों में से हैं। तुलसी राम चरित मानस के साथ ही हम बड़े हुयें हैं। मुझे अपने दादाजी याद आते हैं जिनके पास हर विषय के लिए एक तुलसी की चौपाई या दोहा हुआ करता था। उनके ही सानिध्य और अपने पिता जी के अनुकरण से हर शनिवार सुंदरकांड पढने की भी आदत हो गई हैं। वैसे भी घर पर कुछ भी शुभ हो तुलसी की रामायण तो रखी ही जाती हैं। तुलसी के प्रति मेरा आकर्षण न केवल उनकी सहज भाषा के कारण हैं बल्कि बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड की कई चौपाईयों में जिंदगी का फलसफा मिलता हैं जोकि जितना भक्तिकाल काल में प्रासंगिक था उतना ही आज के वातावरण में....


तुलसी के आलोचक अक्सर उनके नारी विरोधी वर्णन के कारण उन्हें आरोपित करते रहें हैं। इस प्रसंग में मुख्यतः सुन्दरकाण्ड की यह चौपाई उद्दारित की जाती हैं "ढोल,गँवार ,सूद्र ,पसु ,नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।"। वे तुलसी जिन्हें सारे जग में अपने प्रभु का रूप दीखता हैं - निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोधा , जिनकी रचना में हर पात्र मर्यादा में इतना रचा-बसा हैं कि पर-स्त्री का मान माता के अतिरिक्त कुछ होता ही नहीं...रावण जैसा रक्ष-संस्कृति का प्रणेता भी अपनी भार्या के बिना सीता से मिलने नहीं जाता हैं, अपनी बंदिनी सीता को काल-कोठरी की जगह अशोक (जहाँ शोक ही न व्याप्त हो) वाटिका में रखता हैं। उसका मत नारी को मार-पीट के योग्य मान ही नहीं सकता। इसी प्रकार जहाँ शबरी का झूठा भी बिना भेदभाव के प्रभु प्रेम से खाते हैं, निषाद को मित्रवत गले लगाते हैं वहां शूद्रों को भी मारने पीटने के योग्य कैसे माना जा सकता हैं?


अधिकांशतः तुलसी प्रेमी इस चौपाई के आधार पर तुलसी को नारी-विरोधी नहीं मानते. कुछ तो इस चौपाई को तुलसी कृत मानते ही नहीं...बालसुब्रमण्यम जी ने भी इस चौपाई को प्रक्षिप्त माना हैं। इस निबंध को पढने के बाद मैंने कई अन्य चिठ्ठों पर भी इस चौपाई का विश्लेषण देखा और पाया कि विभिन्न बुद्धिजीवी इस चौपाई के विषय में विविध मत रखते हैं किंतु कोई भी इस चौपाई से तुलसी की महत्ता को कम नहीं आंकता। बालसुब्रमण्यम जी के अतिरिक्त फ़ुरसतिया जी भी इस चौपाई को स्वं सागर के द्वारा कथित वचन मान राम और तुलसी को इस व्यक्तव के आरोप से मुक्त करते हैं (देखें)। इसी प्रकार रंजना सिंह जी कई प्रकरणों में नारी उत्थान और शूद्र प्रेम के उदाहरण के स्थान पर आलोचकों द्वारा केवल एक चौपाई पर तुलसी को नारी विरोधी मानने पर आपत्ति रखती हैं। साथ ही उन्होंने तुलसी के "ताड़ना" शब्द को 'नियंत्रण' के स्थान पर उपयुक्त बताया हैं (देखें)। इसी प्रकार एक अन्य वरिष्ठ चिठ्ठाकार "लक्ष्मीनारायण गुप्त" सागर के वचनों का राम के मूक समर्थन के कारण राम और तुलसी को नारी विरोधी आरोप से मुक्त तो नहीं करते किंतु वाल्मीकि रामायण के अंश देकर ये अवश्य कहते हैं कि अन्य रचनाओ में नारी विरोधी होने के उद्धरण नही हैं। इस प्रकार एक अन्य चिठ्ठे में ऋषभ जी के अनुसार तुलसी जी केवल तीन श्रणियों के बारे में लिखते हैं जैसा कि ढोल , गँवार-सूद्र ,पसु-नारी और ताड़ना का अर्थ डांटने डपटने से हैं। इन सभी ज्ञानवान सहयोगियों के मत का सम्मान करते हुए मैं इस विषय में अपने विचार भी रखना चाहूँगा।


वैसे तो ताड़ना शब्द के अर्थ "मरना" के अतिरिक्त नियंत्रण और डांटना से तो परिभाषित हैं किंतु इस अर्थो के अतिरिक्त ताड़ना का एक और अर्थ हैं -वो हैं पूर्व-अनुमानित करना। भारतीय साहित्य संग्रह की वेब साईट (पुस्तक डॉट ओआरजी ) पर ताड़ना शब्द के कई अर्थों में से एक हैं - "स। [सं.तर्कण या ताड़न] कुछ दूरी पर लोगों की आँखे बचाकर या लुक-छिपकर किये जाते हुए काम को अपने कौशल या बुद्धि-बल से जान ये देख लेना।" जिस सन्दर्भ और घटना जिस में यह उक्ति प्रयुक्त हुई हैं उसमे यह ही अर्थ सटीक बैठता हैं। सागर राम को उनके ईश्वरीय रूप की दुहाई देते हुए कहता हैं कि हे प्रभु आप की ही प्रेरणा से रचित आकाश, वायु, अग्नि, जल और धरती सभी जड़ता के (अवगुण) से ग्रसित हैं। इस विषय में सभी ग्रन्थ भी उनकी जड़ता से बारे में कहते हैं। अतः आप मेरी इस जड़ता को क्षमा करें। इस विषय पर वाल्मीकि भी कुछ ऐसा ही वर्णित करते हैं - "पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव। स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शास्वतं मार्गमाश्रिताः।।तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोहमप्लवः। विकारस्तु भवेद् गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम्।" हे राघव ! धरती, आकाश, वायु, जल और अग्नि अपने शास्वत स्वभाव के आश्रित रहते हैं (अपनी जड़ता को कभी नहीं छोड़ते) ।


तुलसी रचना में, तदुपरांत सागर उलाहना देता हैं कि हे प्रभु आप मुझपर शक्ति प्रयोग कर जो सीख देना चाहते हैं वो तो उचित हैं (क्योकि आप सर्वशक्तिवान प्रभु हो) किंतु मैंने तो जड़वत रहकर आपकी ही मर्यादा निभाई हैं। हे प्रभु आपको भी मेरी जड़वत अवस्था ठीक उसी प्रकार पहले ही जान जानी (ताडनी) चाहिए जिस प्रकार भद्र पुरूष वाद्य-यन्त्र (ढोल), असभ्य (गंवार ), नीच (शूद्र), पशु और नारी को देखकर अपने आचरण को पूर्वानुमानित कर लेते हैं।

जिस प्रकार किसी भी वाद्य-यन्त्र से मिलने से पहले अर्थात उसको बजाने से पहले जाँच परखकर कर उसकी स्थिति भांप (ताड़) लेनी कहिये। इससे उसके साधक को उसे बजाने में उचित सहजता रहेगी। इसी प्रकार जब आप किसी असभ्य (गंवार या प्रचिलित रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ) व्यक्ति से मिलने से पहले उसके हाव-भाव और उसकी मनोदशा को ताड़ लेना चाहिए और उसके अनुसार उससे मिलना चाहिए जिससे एक-दुसरे के प्रति असहजता न हो। इसी क्रम में तुलसीदास कहते हैं किसी भी नीच (या व्यावारिक स्तर पर शूद्र) व्यक्ति से मिलने पर उसके आचरण को ताड़ने (भांपने) का प्रयास करना चाहिए - इस प्रकार के पूर्वानुमानित आचरण से आप उस व्यक्ति से सम्मुख स्वं को बचा पाएंगे (अन्यथा नीच का क्या भरोसा और वो अपने आचरण से कब आपका अपमान या तिरस्कार कर दे)। किसी भी पशु को देखकर उसके व्यवहार का पूर्वानुमान (ताड़ना) अत्यन्त आवश्यक हैं - क्या वो हिंसक, वन-निवासी पशु हैं या पालतू जीव हैं... क्या वो आक्रामक हो सकता हैं (जैसे सिंह) या स्नेहाकांक्षी पशु हो सकता हैं (जैसे श्वान या मृग)। इसके पश्चात तुलसी नारी का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि किसी भी नारी से मिलने से पहले भी उसके व्यवहार और आकांक्षा का पूर्वानुमान (ताड़ना) आवश्यक हैं - जैसे वो स्त्री आपसे क्या अपेक्षा रखती हैं, क्या आपको उससे एकांत में मिलना उचित हैं या नहीं इत्यादि... (विशेष रूप से जब आप यहाँ ताड़ने का अर्थ भांपने से लेते हैं तो ये चौपाई नारी के प्रति आदर्श आचरण का उदाहरण हो जाती हैं जोकि रामायण से चरित्र के अनुरूप हैं)। सागर प्रभु राम से उलाहना देते हुए कहता हैं कि जिस प्रकार इन पॉँच परिस्थितियों में पूर्वानुमान आवश्यक हैं उसी प्रकार आपको मेरी जड़वत प्रकृति (जोकि आपके द्वारा ही रचित हैं) का पूर्वानुमान होना चाहिए था। फ़िर भी हे प्रभु आप मुझपर क्रोध कर रहे हैं.... तदुपरांत सागर नल नील के बारे में वार्ता करता हैं।

सम्भव हैं कि बहुत से प्रबुद्ध जन मेरे मत से सहमत न हो या वे इस चौपाई को नए आयामों में देखें। किंतु वर्तमान मेरे रामायण से अल्प साक्षात्कार से जो मुझे सही लगा और जो रामायण की मर्यादा निष्ठ कथांकन और तुलसी की अन्य आध्यायों में नारी समर्पण और सर्व-वर्ग कल्याण की भावना के अनुरूप लगा उसे मैंने आपके सम्मुख रखने का प्रयास किया हैं। आप इस सन्दर्भ में अपने विचार अवश्य बताएं।

Friday, June 5, 2009

जय हो: बैले और भरतनाट्यम

ग्रीष्म काल के आगमन के साथ ही यहाँ अमेरिका में विभिन्न विद्यालयों के सत्र समाप्ति की ओर हैं। इसी क्रम में हमारी पुत्री के नृत्य कक्षाओं का भी समापन गत सप्ताह हुआ। हमारी बिटिया रानी भी दो विभिन्न नृत्य विद्यालयों में पश्चात् और भारतीय नृत्य शैलियाँ सीख रहीं हैं। पश्चात शैलियों में जहाँ वो बैले, जैज़ और टैप सीखती हैं वहीं भारतीय नृत्य शैली में भरतनाट्यम के पाठ्यक्रम में दीक्षा प्राप्त कर रहीं हैं। यह नृत्यशालाएं अपने सत्रांत एक रंगारंग कार्यक्रम से करती हैं।

पिछला सप्ताहांत पुर्णतः इन्ही नृत्य कार्यक्रमों के नाम रहा। शनिवार को हमारी पुत्री के पश्चात् नृत्यशाला का कार्यक्रम था और रविवार को भरतनाट्यम का... इन कार्यक्रम में सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे बॉलीवुड और भारतीय प्रभाव देखकर हुआ।

शनिवार को हुए कार्यक्रम में आमतौर पर बैले, जैज़, हिप-हॉप और टैप के प्रदर्शन होता आया हैं। कम से कम पिछले तीन साल तो यह ही क्रम था। किंतु इस बार मैंने उन्हें बॉलीवुड डांस की नयी शैली के नाम से भारतीय फिल्मी गानों पर भी प्रदर्शन करते देखा। यह बात अलग थी के इसमे नृत्य करने वाले अधिकतर बच्चे भारतीय ही थे पर मैं एक दो विदेशी बच्चों को भी इन गानों पर नाचते हुए देखकर दंग था। इस कार्यक्रम के अन्य नृत्यों में भाग लेने वाले बच्चे तो अमेरिकी मूल के ही थे अतः अधिकतर दर्शक भी विदेशी ही थे पर मज़ा तो यह देखकर आया कि 'मौजा ही मौजा ' और 'देसी-गर्ल' पर वे भी सभी झूम रहे थे....और इस कार्यक्रम के सबसे मजेदार क्षण था जब 'जय हो' पर बैले हुआ। दर्शक भी जय हो का राग अलापते हुए दिखे....

रविवार की शाम हमारी पुत्री के भरतनाट्यम का प्रदर्शन था। भरतनाट्यम का यह हमारा पहला साल था क्योकि हमारी बिटिया ने इसी साल से इसकी शुरुआत की हैं। श्रीमती चौला थक्कर का जो हमारी पुत्री की शिक्षिका हैं वैसे तो काफी प्रसिद्द हैं। उन्होंने अपने नंदाता नमक संस्थान से कई कार्यक्रमों को करके इस इलाके में नाम कमाया हैं। फ़िर भी जब मैं ऑडिटोरियम में प्रविष्ट हुआ तो केवल देसी जनता को देखने की उम्मीद कर रहा था परन्तु दर्शकों में अमेरिकी साथियों को देख बड़ी हर्षानुभूति हुई। यहाँ तक कि नृतक एवं नृतयांगानाओ में भी प्रचुर मात्र में अमेरिकी थे। कार्यक्रम कि शुरुआत तो आशानुरूप गणेश वंदना, कृष्ण राधा आदि धार्मिक और शास्त्रीय भरतनाट्यम के नृत्यों से हुई किंतु अंत में जाते-जाते कुछ फिल्मी गीतों पर भी भरतनाट्यम हुआ। अधिकतर फिल्मी गीत तो भक्ति भावः से ओत प्रोत थे जैसे एक राधा -एक मीरा, श्याम तेरी बंसी इत्यादी किंतु अन्तिम गीत था जय हो.... एक बार फ़िर पहले जय हो पर तेज गति से होता भरतनाट्यम देखकर मंत्रमुग्ध हुए और फ़िर अपने गैर-देसी दर्शको को उस गाने पर झूमते हुए देखकर....

जय हो वैसे तो पहले-पहल मुझे रहमान के कई गीतों के मुकाबले कम पसंद था पर इन दो दिनों में इसका प्रभाव देखकर हमारी भी जुबान पर चढ़ गया हैं..... अब तो हम भी यह ही कह रहें हैं बॉलीवुड जय हो !! रहमान जय हो!!! और गुरुभाई गुलज़ार जय हो!!!

गुरुभाई गुलज़ार क्यों - यह चर्चा कभी और पर आज तो जय हो!!

आनंदित
अप्रवासी

Sunday, May 17, 2009

क्या सिक्किम में पुनः चुनाव होने चाहिए

अभी-अभी यह ख़बर पढ़ी कि सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी [एसडीएफ] ने सिक्किम की सभी विधानसभा सीटों और एकमात्र लोकसभा सीट पर बहुमत हासिल कर लिया हैं। सम्पूर्ण सिक्किम में एक भी अन्य दल एक भी सीट न पा सका। सम्पूर्ण सिक्किम विधानसभा विपक्ष विहीन हैं।

लोकतंत्र को की जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन के रूप में परिभाषित किया जाता हैं उसमे जनता का हित का ध्यान रखने के लिए विपक्ष का बड़ा हाथ होता हैं। विपक्ष प्रजा के लिए एक परिक्षण और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था के रूप में कार्यरत होता हैं जो यह निश्चित करता हैं की एक दल, एक विचारधारा और एक व्यक्ति तानाशाह का रूप न ले सके- समाज के हितार्थ निर्णय लेने के लिए और वैचारिक भिन्नता के चलते उस निर्णय के सभी पक्षों को जांचने के लिए विपक्ष का होना अत्यन्त आवश्यक हैं। लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता, क्षेत्रीय मुद्दों और नेताओं का ज़मीन से जुडा होना यह सुनिश्चित करता हैं की एक सदन में कम से कम दो पक्ष तो हो। किंतु गणितीय आधार पर केवल एक दल के सत्ता में आने की क्षीण संभावना तो रहती हैं किंतु हर लोकतंत्र में ऐसा कभी न होगा सोच कर एक दलीय सत्ता के विषय में, मेरे ज्ञान ,संविधान प्रदत कोई व्यवस्था नहीं हैं। इस बार सिक्किम में यह चमत्कार हो गया हैं और चामलिंग चौथी बार सरकार बनाने जा रहें हैं...

किंतु क्या एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए विपक्ष के आवश्यकता को ध्यान में रख कर क्या सिक्किम में पुनः चुनाव होने चाहिए (अथवा राष्ट्रपति शासन होना चाहिए ) या जनादेश का पालन करते हुए विपक्ष विहीन शासन होना चाहिए। इस व्यवस्था में संविधान क्या कहता हैं? आपके विचार और राय जानना चाहूँगा...साथ ही यदि कोई पाठक इस विषय पर संविधान प्रद्दत व्यवस्था के विषय में जानते हो तो बताएं।

Friday, April 24, 2009

रसीदी

आज घर की सफाई के दौरान जब सारी सर्दियों भर की रद्दी उठा कर बेसमेंट में रखने गया तो अनायास ही उसका ख्याल आ गया। गर्मी के आगमन के साथ ही बाहर पसरी पड़ी बर्फ ने अपने पाँव सुकड़ने शुरू कर दिए थे अतः नयी नवेली कोमल धूप का आनंद लेने जबतक मैं चाय की प्याली के साथ बालकनी पर आकर बैठा मैं पुरी तरह से स्मृतियों के गलियारों ने विचारने लगा था ....

"रद्दी वाला" चिल्लाते हुए वो हमारे मुहल्ले में आता था। बरेली का एक छोटा सा मोहल्ला - बजरिया पूरनमल...चहवाई और कुहाडापीर के बीच फ़सा सा इलाका। शायद वो और भी मुहल्लों में जाता होगा पर इस मुहल्ले में रहने वाले उसके नियमित ग्राहक थे...यूँ तो और भी रद्दी और कबाडीवाले आते थे आर वो अपनी मासूमियत, मृत्भाषी व्यवहार और कम उम्र की वजह से ज्यादा पसंद किया जाता था...उम्र में तो मुझसे भी छोटा रहा होगा १२-१३ बरस का....अपना ठेला धकेलते हुए "रद्दी वाला" चिल्लाते हुए घर-घर जाता था।


आज की तरह उस दिन भी ऐसी ही धूप का छत पर आनंद ले रहा था जब माँ ने नीचे से आवाज लगी कि रद्दी बेचनी हैं, रसीदी को रोको... रसीदी, हाँ रसीदी ही तो नाम था उसका। पता नही कि उसके माँ-बाप ने दिया था या रद्दी का काम करते-करते उसका नाम किसी ने रसीदी रख दिया था। मैंने छत से ही आवाज लगाई -"ओये रसीदी, रसीदी...अबे रुक...घर की रद्दी बेचनी हैं...." उसने नज़र उठाकर देखा और ठेले को हमारी गली में मोड़ दिया।


हम भी नीचे आकर घर भर की रद्दी एकत्रित करने लगे...रद्दी बेचते हुए हम माँ का हाथ बिना पूछे-कहे ही बटाने आ जाया करते थे क्योंकि रद्दी के बीच कितने खजाने मिलते थे, आपको क्या बताएं...और फिर यह चिंता भी रहती थी कि हमारे किसी पुराने खजाने को रद्दी समझकर ने बेच दिया जाए। इतने में रसीदी भी अपना तराजू और बाट लेकर आ गाया। बाट क्या थे आधे तो ईंट पत्थर ही थे पर किसी को रसीदी की इमानदारी पर शक नहीं था। वरना, बाट तो क्या, बाकी कबाडी वालों के तो तराजू भी पलटवा-पलटवा कर हम देखते थे (चुम्बक से लेकर डंडी मरने तक के खतरे जो रहते थे)। रसीदी की लोकप्रियता में उसकी ईमानदारी की शायद बड़ी भूमिका थी।


हम अख़बारों, पत्रिकायों और पुरानी कॉपी-किताबों के बंडल ला-लाकर रखने लगे। भारत में उस समय अखबार ज्ञान बाटने के अतिरिक्त कॉपी-किताबों के कवर, अलमारियों ने नीचे बिछाने से लेकर डिस्पोसबल प्लेट तक जाने कितने काम आते थे पर अब इस ऑनलाइन न्यूज़ के ज़माने में क्या होता हैं पता नहीं...खैर सारी रद्दी इकठ्ठी करने के बाद हम हर पत्रिका को उलट-पलट कर खजाना ढूँढने में व्यस्त हो गए। माँ ने रसीदी से रद्दी का दाम पूछा तो उसने अंग्रेजी अखबार के इतने और हिन्दी अखबार के इतने, मग्जीन के इतने बताने शुरू किए। जी हाँ उस समय हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों के रद्दी दाम भी अलग होते थे पर भाषा से ज्यादा अखबारी कागज़ के कारण ऐसा होता था।


थोडी देर में हमे अहसास हुआ कि रसीदी भी हर अखबार की तह खोल-खोलकर देख रहा हैं। धोबी के जेब झाड़-झाड़ कर देखने से तो हम परिचित थे किंतु रद्दी वाला अखबार खाद-झाड़ कर देखे बड़ा अटपटा लगा। जिस तरह हम अपना खजाना ढूंढ रहे थे उसी तरह उसे अख़बारों को पलटता देख वो हमे नकलची-बन्दर से कम न लगा...ऐसा लगा की वो हमारी विद्वता को चुनौती दे रहा हो। उमने डपटकर पूछा - "अबे रसीदी क्या कर रहा हैं..मेरी नक़ल उतारता हैं? रसीदी ने बड़े आश्चर्य से मेरी तरह देखा और कहा -"नहीं भइया जी हम काहे आपकी निकल उतारेंगे?" फ़िर हलकी सी खिसयानी हँसी के साथ बोला "हीं... हीं... हीं... मजाक कर रहे हैं न..." मैंने कहा "नहीं बे, तो अखबार में क्या ढूंढ रहा हैं पलट पलट कर....." हमारे प्रश्न के उत्तर देने से पहले उसने गंभीरता का एक ऐसा आवरण ओढ लिया की मानों हमे किसी वैदिक मीमांसा का भेद पूछ लिया हो। बड़ी गंभीरता से साथ उसने कहना शुरू किया - "भइया जी, हम देख रहे हैं की अख़बारों के बीच कोई फालतू के कागज़ तो नहीं घुसा-घुसा कर रहें हैं, लोग-बाग़ अख़बारों में कागज़ के टुकडे डाल देते हैं..." मैंने क्रोध से डांटते हुए कहा की "साले हमे चोर समझता हैं..." इस पर वो थोड़ा झेपते हुए बोला की "नहीं भइया पर जब (रद्दी की) गड्डी में और कागज़ होते हैं तो हम तो ज्यादा पैसा दे जाते हैं पर सेठ हमे बेकार रद्दी कहकर पैसा काट लेता हैं और बेईमान कहकर मारता भी हैं। उसने कल भी हमको इसी कारण पीटा"। उसकी बात सुन कर हम से कुछ कहा नहीं गया। हमने उसके अख़बारों का तह दर तह परीक्षण करने दिया लेकिन फ़िर हमारा मन उदिग्न हो उठा की इस तरह से इतने छोटे बच्चे के साथ कौन इस तरह की हरकत कर सकता हैं।

आजभी उस घटना को सोचता हूँ तो रसीदी का वही मासूम चेहरा और पिटाई वाली बात याद आ जाती हैं....

Thursday, April 9, 2009

प्रधनमंत्री पद के लिए खुली बहस: किनती आवश्यक

अभी हाल में ही आडवाणी जी ने मनमोहन सिंह जी को टीवी पर खुली बहस के लिए चुनौती दी थी। वैसे तो इस बहस पर कांग्रेस की तरफ़ से आशानुरूप कोई जवाब नहीं आया। हाँ, दिग्विजय सिंह जी ने इसे सस्ती लोकप्रियता का टोटका करार दिया (देखें) और दूसरी ओर मल्लिका साराभाई ने आडवाणी जी को ही बहस की ललकार लगाई (देखें) ।

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस में राष्ट्रपति पद हेतु और कनाडा में प्रधानमंत्री पद हेतु इस तरह की बहस की प्रथा हैं। इस तरह की बहस जहाँ सभी प्रतिद्वंदियों को एक मंच पर एक-दुसरे सम्मुख लाकर आमने-सामने विचार रखने, तर्क-वितर्क करने का मौका प्रदान करतें हैं, वहीं जनता को भी अपने नेतृत्व को परखने का अवसर प्रदान करते हैं।

किसी भी लोकतंत्र में संवाद अत्यन्त आवश्यक हैं। यह संवाद विभिन्न दलों में (अंदरूनी एवं बाह्य), जनता और दलों के बीच निरवरोध चलाना चाहिए। शायद इसीलिए अधिकतर लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रिकारिता और सूचना के अधिकार की सुविधा प्रदान की गई हैं - जिससे एक स्वस्थ संवाद मतदाताओं को उचित जानकारी देकर जागरूक नागरिक बना सकें। (यहाँ ये भी आवश्यक हैं कि इस प्रकार के संवाद अथवा जानकारी सुलभ और सस्ते साधनों से उपलब्ध हो।)

भारतीय लोकतंत्र जहाँ पर बहुदलीय प्रथा हैं और दल किसी रेडियोधर्मी पदार्थ की तरह नित्य ही विघटित होते रहते हो, वहां दलों के बीच का अन्तर समझ पाना अत्यन्त जटिल हो जाता हैं। एक ही विचारधारा से उत्पन्न दल पुर्णतः विपरीत चरित्र के साथ जनता के समक्ष उतरते हैं , जैसे लोहियावादी समाजवाद से उत्पन्न मुलायम की सपा और लालू की राजद...कांग्रेस ने ही ऐसे नेताओ की फौज तैयार की हैं जो कांग्रसी-जन्म कर कांग्रेस-विरोधी हो गए और एक नए दल की प्रणेता बन गए हैं, ऐसे ही भाजपा से जन्म लेकर कितने ही राष्ट्रवादी/हिंदूवादी दल रक्तबीज की तरह उपजे हैं कहना मुश्किल हैं...व्यक्तिगत स्वार्थ, अपने अहम् , अपनी उपेक्षा और वैचारिक मतभेदों से बहुदलीय व्यवस्था में ऐसे दलों का जन्म भी अपेक्षित हैं किंतु भारत की विविधता से उत्पन्न प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद इस समस्या को और सघन कर देते हैं।

दलों के बीच अन्तर करने के लिए उनके चुनाव घोषणा-पत्र के अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं होता। भारत में अधिकांश मतदाता अपने पहले से ही तय मापदंडो के कारण इन घोषणापत्रों का संज्ञान भी नहीं लेते, यह मापदंड कुछ भी हो सकते हैं - जातिगत समीकरण, नेतृत्व में अंध-आस्था (न की दल और विचारधारा में), राजनैतिक और तत्कालीन मुद्दों से उदासीनता और मुख्य रूप से अनपढ़ मतदाता। ऐसे में, सभी दल उन्मुक्त रूप से रैलियों, चुनाव-सभाओं और यात्राओं में समर्थकों के श्रवण-सुख के आधार पर मन-लुहावन भाषण देते रहते - चाहे ये भाषण, वादे विरोधाभाषी ही क्यों न हो। चुनाव के दौरान आग भड़काऊ विषय जोकि दल की विचारधारा से विमुख हो क्यों न हो उपयोग किए जातें हैं।

इन परिस्थितियों में टीवी पर खुली बहस से न केवल मतदाताओं को अपने नेताओ के मुद्दे-दर-मुद्दे विचार और प्रस्तावित नीतियों का ज्ञान प्राप्त होगा बल्कि साथ ही प्रतिद्वंदी नेतृत्व के विचार भी जानने को मिलेंगे। यह भी पता चलेगा की क्या वे नीतिगत अन्तर हैं जो एक दल को दुसरे से, एक नेता को दुसरे से इतर करते हैं। मुझे विश्वास हैं की कई विषयों पर भाजपा और कांग्रेस शायद एक से दिखे और कई मुद्दों पर नेता अपने मतदाताओं के पूर्वाग्रहों से हटकर खड़े मिलेंगे। इस तरह की बहस में भाजपा और कांग्रेस ही नहीं जो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो को आना चाहिए और आतंरिक विषयों से लेकर अन्तराष्ट्रीय संबंधों तक पर चर्चा होनी चाहिए...

देखने-सुनने का प्रभाव भी केवल पठान के प्रभाव से ज्यादा होता हैं... साथ ही टीवी पर खुली बहस सारे राष्ट्र को व्यापक रूप से, सबसे अल्प मूल्य पर सामान संदेश प्रेषित करेगी।

Saturday, April 4, 2009

मत क्रय : लोकतंत्र की एक और पराजय

लोकतंत्र की अपनी श्रेष्ठताओं के बीच कई त्रुटियां भी हैं। जैसेकि संख्या-बल की महत्ता अक्सर ही नैतिक आदर्शों को हाशिये पर धकेल देती हैं। संख्या-बल के ही कारण भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद और (धार्मिक) आस्थावाद के अवसादों से ग्रस्त हैं। इसी संख्या-बल पर अधिपत्य जमाने के लिए राजनीति का न केवल अपराधीकरण हुआ बल्कि उसका व्यवसायी-करण भी हुआ हैं। जाति के समीकरण बैठते हुए अक्सर बाहुबलियों और मफिआओं अथवा धनाढ्यों को चुनाव-क्षेत्र से प्रतिनिधित्व मिल जाता हैं। इस सच को लगभग १४ लोकसभाओं तक हम भुगतते भी रहे। किंतु १५ लोकसभा के चयन की प्रक्रिया के शुरुआत के साथ ही लगभग तीन ऐसी घटनाएँ सामने आई जो हमारी चयन प्रक्रिया के बाजारू रूप को उजागर करती हैं। हमारी अधोपतन की ओर अग्रसर नैतिकता भी परिलक्षित होती हैं। यह घटनाएँ हैं - नेताजी (मुलायम), गोविंदा और अंत में जसवंत सिंह द्वारा खुलेआम धन वितरण की।

ऐसे तो भारतीय चुनावों में धन वितरण की घटना कुछ नवीन नहीं हैं। और शायद हमारी संवेदनशीलता भी इतनी कम ही गई हैं कि हम में से अधिकांश लोगों ने इन्हे आम घटना मान कर अनदेखा भी कर दिया हो। सम्भवतः दो कारणों से यह महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं:
१> मीडिया के विस्तार के कारण इन घटनाओ का प्रभाव वैश्विक होता हैं और यह भारतीय लोकतंत्र की छवि को धूमिल करतें हैं। पहले ऐसे घपले केवल चुनाव क्षेत्र और आयोग के बीच रह जाते थे आज यह वैश्विक रूप से बहस के मुद्दे हो जाते हैं ( यह अन्य राष्ट्रों के लिए भी सत्य हैं - जैसा ओबामा की रिक्त सीट को लेकर अमेरिका में हुआ)
२> सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज के हाल में किए सर्वेक्षण में लगभग सारे भारत में यह मत क्रय के चलन की स्वीकारोक्ति उभर कर आई। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू जैसे शिक्षित राज्य इस सूची में सबसे ऊपर हैं। शहरी क्षेत्र ग्रामीण इलाकों से ऊपर हैं।

मुलायम और गोविंदा जी ने तो होली के उपहार कह कर उस धन के वितरण के आरोप से पिंड छुडा लिया जबकि जसवंत जी ने परोपकार और दयालुता का आसरा लिया। इस चुनावी माहौल में और संदिग्ध परिस्थितिओ में दिए गए उपहारों को हमारा निष्पक्षीय चुनाव आयोग अपने राजनैतिक चश्मे से कैसे देखेगा यह तो जग जाहिर हैं...हाल ही में एक बाहुबली के चुनावी अभियान से लौटे मित्र ने बताया की वहां भी शक्ति और धन का खुलम-खुल्ला प्रयोग हो रहा हैं... दैनिक मजदूरों को यह कह कर धन दिया जाता हैं की मताधिकार का प्रयोग अवश्य करो और यह लो पैसा चुनाव वाले दिन मत देने आने के कारण होने वाले नुक्सान की भरपाई के लिए ...

यह चलन तो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। और प्रबुद्ध नागरिकों के लिए भी ... यदि यह चिंतनशील नागरिक अपने सुविधाग्रस्त जीवन से निकल कर मत प्रयोग के लिए नहीं जायेंगे तो संख्याबल हासिल करने के लिए जाति, धरम और भाषा के अतिरिक्त शक्ति और धन का नंगा खेल यूं ही अनवरत चलता रहेगा....

Tuesday, March 31, 2009

अपरिपक्वता की सज़ा...

वरुण गाँधी पर रासुका? भारत के चुनावी माहौल में जहाँ वोटों के लिए क्या-क्या नहीं होता ...बाहुबली और माफिया बन्धुओ से भरी संसद में जहाँ आचार संघिता की बात भी मजाक लगती हो, जहाँ चुनाव के दौरान अथवा अन्यत्र भी भारत, भारत के सविधान को राजनैतिक लाभ हेतु नेता गरियाते मिल जायेंगे, जहाँ भारत माँ को गली देकर लोग संसद में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हो, जहाँ कम्युनिस्ट चीन से सहानभूति संसद के दरवाजे की चाभी हो । ऐसे देश में धर्म और जाति ही चुनावी गणित तय करती हो -आग उगलना चुनाव का हथियार होता हैं। लेकिन यह एक मर्यादा के तहत ही होना चाहिए।

वरुण ने जो किया वो उचित नहीं था। उसकी भात्सना भी की जानी चाहिए । मैंने अपने पिछले चिठ्ठे में लिखा भी था की वरुण के सपनो के भारत की कल्पना भी पाप हैं। पर वरुण के भाषण उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता के साक्ष्य हैं। युवा जोश और वैचारिक दिशाहीनता ही ज्यादा उजागर करतें हैं उनके भाषण...उनके उद्दंड शब्दों के लिए उनकी जेल-यात्रा और चुनाव-आयोग की जांच ही पर्याप्त थी। मैं नहीं समझता था कि पीलीभीत की जनता इतनी रक्त-पिपासु हैं कि जरा से भड़काऊ भाषणों से दंगे कर बैठेगी... वो भी हिंदू जन-मानस...कम से कम राष्ट्र को गृह-युद्ध तक तो नहीं ले जा रहे थे उनके भाषण...(जब हमारे देश में भारत माँ को कुतिया कहने और वंदे मातरम के समर्थन में लोगों का स्वाभिमान नहीं जगता तो ये तो अत्यन्त ही तुच्छ बात थी)। ऐसे में वरुण पर रासुका लगना भी सर्वथा अनुचित हैं... वो भी बहनजी के हाथो जिनके मनुवादी विरोधी भाषण ज्यादा घातक होते थे ....

वरुण पर रासुका केवल राजनैतिक हथियार एवं वोट एकत्रिक करने की कोशिश ज्यादा लगती हैं। वरुण के भाषणों की ही तरह उन पर लगी रासुका की घटना भी निंदनीय हैं और भारतीय लोकतंत्र का मखौल उड़ती हैं...

Sunday, March 29, 2009

यह तो मेरे ख्याबों का भारत नहीं...

भारतीय लोकतंत्र का महासमर शुरू हो चुका हैं। जिस प्रकार होलिका दहन के पश्चात् होली शुरू हो जाती हैं उसी प्रकार चुनाव आयोग की घोषणा के बाद भारतीय लोकतंत्र में कीचड़ उछाल होली शुरू हो चुकी हैं... परन्तु भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करने के लिए वरुण गाँधी ने जो बयान दिया हैं उसने तो मेरे ह्रदय को ही उदिग्न कर दिया हैं...लखनऊ की सरज़मीन पर गंगा जमुनी तहजीब के बीच अपना शैशव का उदभव और यौवन की तरुणाई देखने वाले इस ह्रदय को एक आघात सा लगा। बरेली में माँ चुन्ना मियाँ के मन्दिर जाती थी (जोकि लक्ष्मी नारायण के मन्दिर के नाम से भी जाना जाता हैं) उस मन्दिर का निर्माण एक मुस्लिम ने कराया था...

गाँधी के परिवारवाद से त्रस्त कांग्रेस ने मुझे कभी भी नहीं लुभाया (मेरे पिताजी एवं दादाजी के विचार मुझसे इतर हैं) जातिवाद के घृणित अवसाद से पीड़ित नेताजी और बहनजी का समाजवाद भी मुझे कभी आकर्षक नहीं लगा। इस कारण मेरे जैसे कई राष्ट्रवादियों के लिए भाजपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं हैं । जब वरुण गाँधी और मेनका ने भाजपा का दमन पकड़ा तो थोड़ा अटपटा तो लगा पर मन के किसी कोने ने उसका स्वागत भी किया। वरुण मुझे कतिपय युयुत्सु की तरह लगे जो परिवारवाद के मोह से ग्रस्त कौरवों को छोड़ कर पांडवों से आ मिले हो। पर अभी हाल में वरुण के दिए व्यक्तवों को देखा और सुना (http://www.in.com/videos/watchvideo-varun-gandhis-antimuslim-speech-2644997.html) तो मन त्राहिमाम्, त्राहिमाम् कर उठा। राजनैतिक लाभ हेतु दाल में नमक जितनी बयानबाजी को तो सैदव से ही देखते आए इस मन को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ की कोई नेता ऐसा कर सकता हैं। इस चुनावी माहौल का ये तीसरा झटका कुछ ज्यादा ही ज़ोर से लगा (बहनजी का मनुवादी प्रेम और नेताजी का कल्याण प्रेम इस चुनाव के पहले दो झटके थे)। उनके इस व्यक्तव से मुझे संजय गाँधी याद आ गए। कहते भी हैं "माई गुन बछ्डू, पिता गुन घोड़। नाही ज्यादा ता थोड़े-थोड"....

वरुण के इस बयान की जितनी भी आलोचना की जाए कम हैं। परदेश में लाखों मील की दूरी पर बैठे इस मन में ऐसे भारत की तस्वीर तो नहीं हैं। एक सशक्त शक्तिशाली गौरान्वित भारत की छवि के स्वप्न से साथ जीते इस अप्रवासी मन में वरुण के भारत की कामना भी पाप हैं।

अधीर,
अप्रवासी

Saturday, March 21, 2009

मिथुन दा की अपील: एक सार्थक शुरुआत

अभी-अभी कुछ देर पहले "डांस इंडिया डांस" की जनता चुनाव के लिए खुली पहली कड़ी देखी। यहाँ हमारे क्षेत्र में केबल पर केवल भारतीय चैनल के नाम पर जी टीवी आता हैं। पिछले कई रियलिटी शो में मैं देखता आया हूँ कि प्रतियोगियों के चयन में क्षेत्रवाद जमकर हावी रहता हैं। और लंबे समय से मैं यह महसूस करता आया था कि चैनल और उसमे मौजूद निर्णायक मंडल भी इस क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करते रहे हैं। जहाँ तक मुझे याद हैं कि "सा रे गा मा पा चैलेन्ज" का पहला २००५ में अखिल भारतीय वोटिंग से लेकर अभी हाल में संपन्न हुए "सा रे गा मा पा २००९" तक और साथ में चाहे वो "रॉक न रोल फॅमिली’ हो या कोई और जन-आदेश वाला कार्यक्रम क्षेत्रवाद के आधार पर अधिकाधिक वोट करा कर "टी आर पी" रेटिंग बढ़ने की कोशिश सदैव ही होती रहती हैं । इसके लिए निर्णायक मंडल हो या प्रतियोगी सभी क्षेत्रीय भाषा में अनुरोध करते हैं या स्वं को एक शहर, राज्य या क्षेत्र का प्रतिनिधि बताते हैं। ऐसे में आज मिथुन चक्रवर्ती जोकि डांस इंडिया डांस के महा गुरु हैं (मुख्य निर्णायक) ने सारे भारत से अपील की हैं कि क्षेत्रवाद को छोड़कर उचित और सही प्रतियोगी का चयन करें। वैस तो मैं कभी भी मिथुन का प्रशंसक नहीं रहा और न ही ये समझता हूँ कि इस अपील से जन मानस पर कुछ फर्क पड़ेगा (जब हम जन प्रतिनिधियों के चयन में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद से ऊपर नहीं उठ पाते तो यह तो प्रतियोगी हैं) फ़िर भी चलो यह एक सही दिशा में उठाया गया एक कदम हैं। मिथुन दा -साधुवाद।

Wednesday, March 11, 2009

दिल में होली जल रही हैं...


सर्वप्रथम सुश्री पाठकों और सम्पूर्ण चिठ्ठा-जगत को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
हाय! अप्रवासी जीवन....होली आई और चुपचाप चली जा रही हैं...न कोई हुडदंग न ही होली की उमंग... कार्यालय में बैठकर अपने संगणक पर देश-दुनिया से आयी बधाईयाँ पढ़ रहें हैं और वही नापा तुला जवाब "आप को भी होली की हार्दिक बधाई" छाप रहे हैं... कल शाम (भारत में दुलेन्दी/होली की सुबह) सारे नात रिश्तेदारों को दूरभाष पर बधाई दी और उनके धमाल और जूनून को सुन के और ग़मज़दा हो गए।


होली के लिए शुभ करने के लिए पत्नी ने गिनी चुनी चंद गुझिया बनाई वो भी स्पेंडा (सुगर-फ्री) डालकर। बड़े अनुरोध पर कुल दस आलू के पापड़ बने - ५० मधुमय की याद दिलाते हुए तानों के बाद .... बचपन के दिन याद आ गए- जब माँ-चाची मिलकर दिनों-दिन पापड़-चिप्स बनती थी और हम घंटो धूप में बैठकर बंदरो से उनकी रक्षा करते थे...वो बात अलग हैं कि कई कच्चे ही हमारी जेठरग्नि कि भेट चढ़ जाते थे...होली की रात से पहले सारा घर बैठकर गुझिया बनाता था ... गुझिया का खोया जांचने के नाम पर कितनी बार खोया चट कर जाते थे और माँ कि ममतापूर्ण गाली खाते थे... हम भी तरह-तरह से गुझिया गूंथने के परिक्षण करते थे... फिर माँ का सारे घर को उपटन लगाना.... होली जलने जाने के बाद लौटते समय वो गन्ने खाना... पिताजी का जल्दी से घर आना (जिससे माँ उन्हें पहला रंग लगा सके) और हमारा वहीं होली जलने के बाद रंग फेकना शुरू करना... बाद में टोली बनाकर सारा शहर नापना... हाय वो हुडदंग भरी होली.....

यादों की इस वीथिका का विचरण अभी-आई बॉस की ईमेल ने तोडा...वही ऑफिस, वही चुप-चाप सन्नाटा...अब सोचता हूँ हमारे बच्चे शायद ही कभी वो आनंद ले पाए...आने वाले सप्ताहांत में सुबह मन्दिर में भारतीय बंधुओ के लिए गुलाल और फूल की होली उत्सव हैं और फ़िर एक मित्र के गैराज में थोडी देर होली का खेलने का प्लान हैं...अब तो होली का हुडदंग भी सप्ताहंती हो गया हैं.... हाय! अप्रवासी जीवन....

Sunday, March 8, 2009

नेताओ को परखने की कसौटी

मैंने Lee Iacocca (ली आईकोक्का) की लिखित पुस्तक "वेयर हव आल द लीडर्स ग़ौन?" (Where have all the Leaders Gone?) अभी हाल में ही पढ़ी। यह ली आईकोक्का ही वह महाशय हैं जिन्होंने डूबने की कगार पर बैठी क्र्य्स्लेर (Chrysler) कंपनी को सन् १९८० में न केवल उबारा था बल्कि उसको नियमित घाटे वाली स्थिति से निकाल कर एक लाभ अर्जित करने वाली संस्था में परिवर्तित कर दिया था। वाहन निर्माण में वैसे भी वो फोर्ड (Ford) की भी कई सफल कारों के भी जन्मदाता रहें हैं जिसमे फोर्ड मुस्टेंग, फिएस्टा , मरकरी कूगर इत्यादी प्रमुख हैं। ली ने ही मिनी-वैन का खाका तैयार किया था ।
अपनी इस पुस्तक में (जोकि २००७ में प्रकाशित हुई थी) ली ने अमेरिका में उस समय होने वाले चुनाव हेतु राजनैतिक माहौल और नेतृत्व की समीक्षा की थी। पूरी पुस्तक में उठाये गए प्रश्न, दिशाहीन नेतृत्व, जन मानस का असमंजस्य और वोट देने या ने देने की दुविधा जितनी अमेरिकी परिवेश में सटीक थे वे उतने ही अपने भारतीय परिवेश में भी। उसी समीक्षा में उन्होंने नेताओ को परखने की कसौटी के तौर पर एक मापदंड दिया हैं जिसे उन्होंने ९-सी (9-C) का नाम दिया हैं। यह ९-सी हैं-

  1. करिओसिटी (जिज्ञासा): सभी नेताओ को अपने अहम् से इतर सभी पहलुओ को जानने और समझने की चाहत होनी चाहिए। किसी नवइन विचार और संभावना को तलाशने की जिज्ञासा ।
  2. Creativity (सृजनात्मकता): वह नेता मिली हुई जानकारी और संसाधनों को प्रयोग कैसे कर पायेगा। क्या वह लंबे समय से चली आ रही परिपाटी से अलग कुछ करने की हिम्मत रखता हैं। क्या वो अपने विचारो को एक सिमित दायरों से बाहर लाकर कुछ कर गुजरने की संभवाना रखता हैं।
  3. Communication (वार्तालाप): किसी भी सफल नेता की लिए यह ज़रूरी हैं की वो जन-मानस से कितनी सहजता से बात करता हैं। केवल उनसे नहीं जो चाटुकारिता में रत हो बल्कि उनसे भी को प्रखर विरोधी हो... सच को व्यक्त करने से नहीं चुके ...
  4. Character (चरित्र): वैसे तो भारतीय परिवेश में यह एक दुर्लभ (संभवतः विलुप्त भी) गुण हैं। फिर भी यह जानना अत्यन्त आवश्यक की शक्ति भोग के साथ भी वो अपने चरित्र को सम्हाल पायेगा या फिट भ्रष्ट हो जाएगा (तबादले, पार्टी फंड चंदा, जन्मदिन के उपहारों आदि का अमेरिका में प्रचलन नहीं हैं वरना ली इन सबको तो इस मापदंड के दायेरे से बाहर कर देते)
  5. Courage (पौरुष): किसी भी विषम स्थिति से निपटने के लिए कितनी दृढ़-शक्ति हैं...हर चुनौती को समझने और ललकारने की कितनी हिम्मत हैं...क्या केवल कागजी-शाब्दिक शेर हैं या शिकारी भी हैं।
  6. Conviction (विचारधारा): हमारे नेताओ की किन मूल्यों और सिद्धांतो में आस्था रखते हैं। उनकी विचारधारा राष्ट्र-हित को सर्वोपरि रखती हैं या नहीं...
  7. Charisma (आकर्षण): लोगो के हुजूम में वो अलग नज़र आता हैं या नहीं...लोग उसके व्यक्तिव से रीझते हैं या नहीं॥एक सफल नेता की लोगो का विश्वास प्राप्त करने और एक भीड़ खीचने की शक्ति लोकतंत्र में ब्रम्हास्त्र से कम नहीं हैं ।
  8. Competence (सक्षमता/योग्यता): लोकतंत्र में नेतृत्व किसी तलवार कि धार पर चलने से कम नहीं हैं। नेताओ को अपने को परिणाम-उन्मुख सिद्ध करना ही पड़ेगा। एक राष्ट्र जहाँ वैचारिक साम्यता असंभव हो में जबतक नेता अपनी कुशलता, योग्यता और सक्षमता से किसी भी परियोजना/कार्यक्रम में परिणाम देकर स्वं को सिद्ध न करे तब तक उसका नेतृत्व संशय के दायरे से बाहर नहीं होता।
  9. Common Sense(सामान्य ज्ञान): सबसे साधारण गुण जोकि आसाधारण परिणाम देता हैं और अक्सर चरित्र कि तरह ही दुर्लभ होता हैं।

हमको भी इसी तरह कुछ मापदंड बनाकर अपने नेताओ को चुनना चाहिए। लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो चुकी हैं इसलिए ऐसे मापदंड बहुत ज़रूरी हो जाते हैं। आपको क्या लगता हैं क्या यह ९ मापदंड भारतीय परिवेश में भी उपयुक्त बैठेगे कि नहीं? या इनमे कुछ फेर-बदल होनी चाहिए।

Sunday, March 1, 2009

लालू जी का कंप्यूटरवा

मित्रों, आमतौर पर, मैं इस तरह के विषय अपने चिठ्ठे पर प्रकाशित नहीं करता किंतु हमारे प्यारे टीपू खान साहब ने मुझे कुछ देर पहले एक मेल भेजी थी। (ये वही टीपू भाई हैं जिनका जिक्र मैंने आपसे बेबी सीटर वाली घटना में किया था।) उन्होंने लालू जी के संगणक की कुछ रोचक तस्वीरें भेजी। मैंने सोचा की इन्हे आपके साथ भी बाटा जाए। सर्वप्रथम, कुछ डिस्क्लेमर (माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद और फिर पूजा जी के चिठ्ठे "आखिरी बार कहे देत हैं की ई हमार बिलोग नाही है " के बाद ये डिस्क्लेमर बहुत ज़रूरी हैं। )
  • यह तस्वीरें मैंने नहीं बनाई और मुझे इनका स्रोत भी नहीं पता। यदि कॉपीराईट जैसी कोई समस्या हो तो मुझे फ़ौरन बताएं- मैं इन्हे फ़ौरन हटा दूंगा
  • लालू जी हमारे समाज के माननीय नेताओ में से एक हैं। साफ़ तौर से उन्होंने रेलवे के बदलाव से अपनी योग्यता सिद्ध की हैं। मेरा उनका अनादर का कोई इरादा नहीं हैं। मैं समझता हूँ कि वे तथा उनके समर्थक इसे परिहास समझकर मुझे क्षमा करेंगे। यदि आपको यह आपतिजनक लगें तो भी बताएं, मैं इन्हे यथा सम्भव त्वरित रूप से हटा लूँगा।
  • जिन पाठकों ने इन तस्वीरों का अवलोकन पहले से किया हो उनके समय की बर्बादी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।





Friday, February 27, 2009

राणा सांगा के पास डॉक्टर नहीं था क्या?

मैं आमतौर पर शाम को ऑफिस से आकर, चाय की चुस्कियों के साथ अपनी थकान मिटाता हूँ । डेटरोइट की हाड-कंपा देने वाली बर्फीली सर्दी में गरम चाय का आनंद ही अलग होता हैं। इसी समय ज़ी चैनल पर अन्तराष्ट्रीय दर्शको के लिए ख़बर भी आती हैं जोकि सोने पे सुहागा का काम करती हैं। घर के सभी सदस्य जानते हैं की इस समय मैं कोई खलल नहीं पसंद करता। हाँ उस आधे घंटे के बाद मुझे किसी भी गृहस्थ पति की तरह किसी भी काम में झोंक दो, बच्चे भी समझते हैं कि ज़ी न्यूज़ (जिसमे न्यूज़ कम और व्यूज़ ज्यादा होते हैं) के बाद ही उनकी कोई दाल गलने वाली हैं.... मैं भी गतिरोध न हो इस लिहाज़ से दरवाजा बंद करके ही ख़बर और चाय का लुत्फ़ उठता हूँ।

तो आज भी मैं नित्य की भांति अपने कक्ष में दरवाजा बंद करके चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था और ज़ी न्यूज़ पर भारतीय क्रिकेट टीम की न्यूजीलैंड के हाथों हुई हाल की पराजय के कारण धज्जियाँ उडाई जा रही थी। ऐसे में मेरी सात वर्षीया पुत्री भारी चीत्कार के साथ कमरे में प्रविष्ट हुई। आंखों से मानो न्यागरा फाल सा जल प्रपात गिर रहा था। पूंछने पर ज्ञात हुआ की प्रिंटर से पेपर उठाते हुए पेपर कट हुआ हैं। मैं ज़ी न्यूज़ (या व्यूज) को छोड़ा और इस भीषण समस्या से निपटने के लिए मुखातिब हुआ (सच मानिये, मेरी ७ वर्षीया बिटिया के साथ हर घटना आसमान गिरने से कम नहीं होती)। मैंने पहले तो चोट का मुआयना किया और फिर इस छोटे सी खरोंच पर बड़ा सा बैंड-ऐड लगा दिया। इस उपचार से रुदन सिसकियों में परिवर्तित हो गया। अब मुझे सिसकियों को शांत करने का जतन करना था।

बेटी को दिलासा देने के पूर्व मेरी अप्रवासी ग्रंथि ने जोर मारा और मैंने दिलासा को इतिहास के पाठ में बदलने का प्रयास शुरू कर दिया...मैंने पूंछा "आपको राणा सांगा का नाम पता हैं?"...रोते रोते वो बेचारी एक पल को शांत हो गई (यह मेरे इतिहास पाठ का भय था या खरोंच का दर्द या रोने के कारण रुंधा हुआ गला मुझे नहीं पता) । फिर एक अजीब सी दृष्टि के साथ उसने सिसकते हुए पूंछा "रैना सैन्गा ये कौन हैं"। हमने अपनी विलायती पुत्री के उच्चारण को नज़र अंदाज करते हुए कहा कि वो भारत में हुए बहुत बड़े प्रतापी राजा थे (मेवाड़ कह कर हम विषय को और गंभीर नहीं करना चाहते थे।) उनकी कहानी तो हम आपको रात को सुनायेंगे पर वो इतने बहादुर थे कि एक बार युद्ध में उन्हें नब्बे भाले लगे और वो फिर भी लड़ते रहे - बिना किसी दर्द के। और आप तो इतनी सी चोट से डर गए। आप तो पापा कि बहादुर प्रिंसेस हो न - फिर क्यों रोते हो?" उसने अपनी सिसकियाँ भूलकर अत्यन्त ही विस्मय के साथ मुझे देखा और कहा - "नब्बे भाले? पापा क्या उनके पास डॉक्टर नहीं था - पहले ही भाले के बाद उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए था"

Sunday, February 22, 2009

...वो स्कूल छोड़कर देखी पहली पिक्चर

अनिल पुसदकर जी ने अपने नए चिठ्ठे "स्कूल से भाग कर जहां क्रिकेट खेलते समय पकड़ाया था आज वहां का ……………। "से हमे भी हमारे बचपन के दिन याद दिला दिए और साथ ही हिम्मत बढाई कि हम भी अपने बचपन कि एक घटना ब्लॉग जगत और साथ ही अपने परिवार (हमारी पत्नी एवं अन्य सम्बन्धियों) से बाट सके।

हम लोग सातवी या आठवीं के छात्र रहे होंगे कि एक चलचित्र "राम तेरी गंगा मैली" आयी थी। इस चलचित्र ने थोड़े ही समय में विशेष प्रसिद्धी पा ली थी । हमारी दोस्त मंडली में विशेष उत्सुकता थी कि मैला क्या हैं। आख़िर इस गंगा का प्रदुषण क्या ? पर किसी के घर वाले उस फ़िल्म को दिखाने के लिए नहीं ले जा रहे थे। और तो और कुछ मित्र-गण के परिवार वाले तो उस चलचित्र का अपने बच्चों के बिना ही अवलोकन कर आए थे। मंडली में कुछ मित्रों ने समस्या के समाधान के लिए अपने अग्रजों से परामर्श लिया और एक युक्ति निकाली। स्कूल से भागकर १२-३ वाला शो देखा जाए और अपनी जिज्ञासा शांत की जाए।

क्योंकि यह हम सभी का पहला पहला अड्वेंनचर था तो विशेष सावधानी के साथ प्रोग्राम बना। सबसे पहले तय हुआ कि यह योजना केवल भरोसेमंद साथियों से साथ ही बांटी जाए। "ज्यादा भीड़ का मतलब ज्यादा खतरा", सो चंद करीबी दोस्तों को ही साथ लेकर पिक्चर देखी जाए। आख़िरकार स्कूल गुल करके जाना, वो भो कक्षा सात में... किसी दुश्मन देश में होने वाली गुप्त कमांडो कार्यवाही से कम तो नहीं था। सो घंटो इंटरवल में और छुट्टी के बाद, क्रिकेट छोड़कर योजना बनी। योजना के क्रियान्वन के लिए दो समस्याएँ सामने आई - पहली तिथि के निर्धारण की और दूसरी पैसे के जुगाड़ की।

बहुत सोच समझ कर तय हुआ कि स्कूल में होने वाले वार्षिक समारोह की तैयारी के कारण सभी अध्यापक-गण व्यस्त हैं। अतः यदि समारोह से दो तीन पहले निकला जाए तो कक्षा में कोई भी शक नहीं करेगा। सभी अध्यापक यह मान लेंगे कि यह बच्चे किसी प्रोग्राम की तैयारी में बाहर हैं। (हमारा मित्र-मंडल वैसे भी कई कार्यक्रमों में भाग ले रहा था) । अब दूसरी समस्या के लिए तय हुआ की जेब खर्च बचाया जाए पर केवल हमसे कुछ ही खुशनसीब थे जिन्हें यह आगाध धन की सुविधा थी परन्तु टिकेट के लिए तो कुबेर धन की आवश्यकता थी अतः तय हुआ की हफ्ते -दो हफ्ते तक घर से जो कुछ भी सामान खरीदने के लिए पैसे मिले, उससे जितना बचाया जा सके, बचाया जाए। हम सबके परिवार के लिए संभवतः महंगाई दो हफ्ते के शायद थोडी ज्यादा बढ़ गई थी।

फ़िर जितने जिससे बने बचा कर टिकेट का जुगाड़ हुआ। तय दिन हम सब स्कूल गुलकर गुल खिलाने पहुंचे। हम सभी स्कूल ड्रेस में थे पर हमारे अंतर्मन ने झकझोरा की ख़ुद जो भी हैं स्कूल को बदनाम न किया जाए, अतः हमने अपनी कंठ-लंगोट (टाई) उतारकर जेब में डाली और कमीजों को निकालकर बेल्ट्स को छिपाया। इंटरवल तक तो सब कुछ ठीक रहा पर हम सबका दुर्भाग्य कि इंटरवल में हमे हमारे हिन्दी के शिक्षक "मिश्रा सर" सपत्नी मिल गए। डर से कापते हुए हम लोगों ने किसी तरह बची खुची फ़िल्म देखी। और फिर स्कूल का रास्ता लिया। उस दिन तो कुछ नहीं हुआ पर अगले दिन प्राथना सभा में सारे स्कूल के सामने नाम बुलाये गए और बाद में घर वाले ... वो ठुकाई हुई की पूछिये नहीं। अनिल जी के लेख से आज फिर शरीर का दर्द ताज़ा हो आया।

Friday, February 20, 2009

बेवफाई मेरी आदत नहीं, मजबूरी हैं!!

हम बेवफा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके
हमको मिली उसकी सज़ा, हम जो खता कर ना सके
हम बेवफा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके

फ़िल्म शालीमार का यह प्रसिद्ध किशोर दा का गीत किसे याद न होगा। कुछ दिनों पूर्व दैनिक जागरण का एक लेख पढ़ रहा था कि "क्यों सोचते हैं स्त्री पुरुष अलग-अलग"। लेख पढ़कर मन ने इस गीत को गुनगुनाना शुरू कर दिया। इस लेख में तमाम कारणों में से जो मुझे सबसे विशिष्ट लगा था - वैज्ञानिक शोधों से यह साबित हुआ है पुरुषों के न्यूरोकेमिकल्स ही बताते हैं कि वे वफा करेंगे, निभाएंगे या बेवफा होंगे। अर्थात उनकी एक जीन (पित्रैक) तय करती है कि वो वफ़ा करेंगे या बेवफाई। यह जीन (पित्रक) जो १७ विभिन्न आकारों की होती है - अपनी लम्बाई के आधार पर तय करती हैं कि कौन -कितना भरोसेमंद और वफादार होगा। जितनी लम्बी जीन उतना वफादार साथी। अतः बेवफाई पुरुषों की आदत या फितरत नहीं वरन उन्हें अनुवांशिक रूप से मिली विरासत हैं -जिसे हम चाहकर भी नहीं छोड़ सकते।

शाम आते आते मन में हलचल सी चलने लगी। अभी तक तो केवल विवाह पूर्व ही कुंडली के स्थान पर लोग रक्त समूह (ब्लड ग्रुप) के मेल कि बात करते थे। अब आने वाले समय तो पुरुषों के लिए और गंभीर चुनौतीपूर्ण होने वाला हैं। लड़कियां दोस्ती से पहले अनुवांशिक विवरण मांगेगी यह तय करने के लिए कि यह साथी उपयुक्त हैं कि नहीं।

जैसा कि आधे से अधिक संगणकीय छात्रों के साथ होता हैं - हम भी विषय विश्लेषण के लिए गूगल बाबा की शरण में गए और झट से वैश्विक ज्ञान के सागर में गोते लगाने लगे। और पूछिये मत कौन कौन सी जीन का कौन सी पुरुषीय प्रणाली कि संचलित करती मिली। मन और भी अधिक व्यग्र हो गया। कोई तलाक तय करती हैं तो कोई रिश्तों कि संतुष्टता और कोई प्यार की उन्मादकता। (कई तो सामाजिक लेख में लिखी भी नहीं जा सकती )। ऐसा लगा कि बिचारे पुरूष तो कुछ करते ही नहीं, जो भी करते हैं यह शरारती पित्रक ही करते हैं।

जहाँ पहले लेख को पढ़कर हमे सोचा था कि चल आज सारी पुरूष जाति को बेवफाई के इल्जाम से मुक्त कर देंगे और सब कुछ इन पित्रको (जीन) के माथे मढ़ देंगे। पर अब सोचते हैं कि पित्रकों पर इल्जाम से तो हमे सारे के सारे पुरुषों को सगोत्र (खानदान सहित) इल्जामित कर दिया हैं। पर चलो, इसका मतलब यह भी हैं कि सम्पूर्ण गलती आदम जी से ही चली आ रहीं, हम लोग तो केवल वाहक मात्र हैं।

व्यग्र,
अप्रवासी

Wednesday, February 18, 2009

कुँआनो का घाट

कुछ समय पूर्व की बात है, मैं सपरिवार अपने ही शहर में स्थित एक झील, केंसिंग्टन, पर पिकनिक मानाने गया था। वहीं झील सारे बच्चे झील के जल में क्रीडा कर रहे थे और मैं तट पर बैठ कर उनकी शैतानियों का आनंद ले रहा था। उनकी जल क्रीडा देखकर मन सहसा ही अतीत के कुछ उन पलों में खो गया जब मैंने भी ऐसे ही पानी में कूद-कूद कर तैरना सीखा था। मेरा ननिहाल जनपद गोरखपुर में कुँआनो नदी की किनारे स्थित एक छोटा सा गाँव 'चाईपुर माफी' हैं। माफ़ी इसलिए क्योंकि अंग्रेजो ने नील की खेती हेतु कुँआनो का जल प्रयोग करने के एवज में कुछ गाँवों को करमुक्त कर दिया था। अपनी ग्रीष्म-कालीन अवकाश के दौरान हम वहीं नदी पर जाकर तैरा करते थे। नाना के घर जाने का एक मजेदार कारण (नानी के प्रेम के अतिरिक्त) वह नदी भी थी। नदी पर तैरना और नाव की सवारी बहुत आनंददायी होती थी। वो आनंद आजतक स्मृति पटल पर धूमिल नहीं पड़ा हैं। उस ज़माने में भी हमारे शहरी जीवन में तो नदियाँ केवल पुल के नीचे से गुजर जाती थी। और दिखती भी कई बैराजो और बांधो की कृपा से नाले जैसी ही थी (चाहे वो लखनऊ की गोमती हो या बरेली की रामगंगा)। अतः चाईपुर जाने का विशेष आकर्षण हमेशा बना रहता था।

धुरियापार (कुँआनो के दुसरे तट स्थित क़स्बा जोकि शहर से जुडा हुआ था) पहुँचते ही घाट से माँ या पिता जी शाहआलम चाचा को आवाज़ लगाते थे। शाहआलम चाचा चाईपुर निवासी, मल्लाह थे जोकि घाट पर लोगो को आर-पार ले जाते थे। (सामाजिक न्याय के लिए कार्यरत, श्रधेय पाठकों के लिए स्पष्ट कर दूँ कि मल्लाह यहाँ कर्मसूचक सन्दर्भ में उपयोग हुआ हैं, जातिसूचक नहीं, शाहआलम चाचा की जाति मुझे पता नहीं) वे जगत चाचा थे पर मैं उन्हें शालाम नाना बुलाता था। मेरे ननिहाल की पुरानी ज़मींदारी के कारण वे विशेष सम्मान के साथ हमे लेने तुंरत आते थे।

हम शहरी बच्चों के आनंद का कारण कुँआनो क्षेत्रीय राजनीति में विशेष स्थान रखती थी। कुँआनो पर पुल को लेकर हमेशा ही राजनीति चलती थी। स्थानीय ब्राम्हणों और ठाकुरों के बीच यदि कोई राजनैतिक आम सहमति थी तो वो कुँआनो पर पुल की आवश्यकता पर ही थी। पुल के अभाव में लोगो को गाँव तक कोई भी भारी वस्तु ले जाने के लिए १०-१५ किलोमीटर लंबा सफर तय करना पड़ता था। बरसाती दिनों में तो यह सफर शाहपुर (एक ओर समीपवर्ती ग्राम) का पीपे-वाला अस्थायी पुल हट जाने के कारण और लंबा हो जाता था।

वर्षों की खींच-तान के बाद कुँआनो पर पुल बन गया, पहले पीपे-वाला; फ़िर पक्का। अब कुँआनो भी शहरी नदियों की तरह मानवीय मेलजोल से वंचित दौड़ती हुयी सड़क के नीचे सहमी हुई सी गुजरने लगी। सन २००६ में जब मैं भारत गया था, तो अपने ननिहाल भी गया। नाना-नानी के स्वर्गवास को तो अरसा हो चुका था किंतु मेरी एक मामी और ममेरे भ्राता-गण अब भी वहीं रहते हैं। चाईपुर पहुँचने में कुछ ही मिनट लगे, ज्ञात भी न हुआ कब कुँआनो के ऊपर से मेरी कार गुजर गयी। मन को सहसा विश्वास भी न हुआ कि चाईपुर आ गया हैं। शाम को सबसे मिलकर, जब मैंने आपने ममेरे भाई से कुँआनो पर जाकर स्नान करने की इच्छा जाहिर की तो वे बड़े ज़ोर से हँसे और बोले कि अब वहां गोरु (मवेशी) भी नही नहाते, तुम विलायती बाबु क्या जाओगे? एक काम करो, बस एक चक्कर लगा आओ। मैं नदी के किनारे उस पुराने घाट पर गया। घाट का तो नामोनिशान भी न था, पुल के लिए सड़क भी घाट से कुछ आगे बढ़कर बनाई गयी थी। न तो वहां शालाम नाना की झोपडी थी और न ही जल-क्रीडा करते बच्चे। नदी में भी सेवार (एक प्रकार की जलीय खर-पतवार) भी ढेर सारी उग आई थी और पानी किसी नाले से भी बदतर। बड़े दुखी मन से मैं उस पुराने घाट को (जो मेरी स्मृति के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टव्य नहीं था) छोड़कर में गाँव की तरफ़ वापस चला। मन सोचता जा रहा था की क्या यहीं विकास हैं, विकास के नाम पर एक संस्कृति का ह्रास, बच्चों के कलरव का नाश...

उस दिन से मन आजतक आहत हैं -शायद इसीलिए आज बच्चों की जलक्रीडा देखकर फिर वहीं घाट की स्मृतियों में खो गया

आहत,
अप्रवासी

Monday, February 16, 2009

...और कुछ ब्लॉग (चिठ्ठे) कुंवारे ही रह गए

अभी कुछ दिनों पूर्व ब्लॉग वाणी पर काजल कुमार जी का एक कार्टून देखा था (kajalkumarcartoons: कार्टून:- जब इस ब्लॉगर का पाँव भारी होता है.. ) जिसमे एक ब्लॉगर की व्यथा गाथा थी। बेचारा ब्लॉगर चिकित्सक से परामर्श ले रहा होता हैं की पोस्ट लिख कर बेचैनी रहती हैं की किसी ने पढ़ा की नहीं। सच में उन्होंने उस हास्यपूर्ण अभियक्ति के माध्यम से एक तीखा सत्य उजागर किया हैं।
ब्लॉग-पोस्ट की रचना के बाद धड़कने तेज रहती हैं कि लोग क्या कहेंगे , पढेंगे भी या नहीं ...ठीक वैसे ही कि मानो ब्लॉग के पाठक न हुए लड़की वाले हो गए जो कि विवाह हेतु ब्लॉग-पोस्ट रुपी लड़के को परखने आ रहे हो। यदि सब ठीक रहा तो १०-१५ में से एक-आध अपनी जग-लुभावन रूपसी , हर दिल कि चाहत अपनी आत्मजा रूपी टिपण्णी का कन्या-दान कर देते हैं। परन्तु असली विडंबना तो यह हैं कि जहाँ कुछ राजसी व्यक्तित्व वाले ब्लॉग-पोस्ट बहु-पत्नी आनंद उठाते हैं वहीं अन्य कुछ जीवनपर्यन्त अविवाहित ही रह जाते हैं। और अचंभित करने वाली बात तो यह हैं कि कई बार यह दोनों तरह के ब्लॉग अक्सर एक ही माँ (लेखनी) की देन होते हैं (यहाँ सादर मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि मेरे कई वरिष्ठ लेखकों के ब्लॉग रुपी पुत्रों ने सदैव हो बहु-पत्नीय व्यवस्था को बनाये रखा हैं पर वे संख्या बल के आधार पर अपवाद ही गिने जायेंगे) इस प्रकार हर ब्लोगीय कुटुंब में कुछ पोस्ट कुवारे ही मिल जायेंगे ।
आईये हम मिलकर यह संकल्प ले की इस ब्लॉग जगत की सामाजिक विसंगति को दूर करेंगे और कम से कम हर ब्लॉग को एक संगिनी अवश्य देंगे।

Saturday, February 14, 2009

बेबी सिट्टर (बाल संरक्क्षिका)

वैलेंटाइन दिवस के उपलक्ष्य में हमारे क्षेत्र के कई जलपान गृहों ने केवल युगल जोडो के लिए विशेष समारोह का आयोजन किया था। इस कारण हमारी मित्र-मंडली एक बेबी सिट्टर की तलाश में थी। हम लोग जानकारी एकत्र कर थे। हमारे एक मित्र हैं टीपू खान जोकि कुछ समय पूर्व तक एक बेबी सिट्टर तलाश कर रहे थे। उनको दूसरे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी और पत्नी का हाथ बटाने के लिए एक बेबी सिट्टर चाहिए थी। हमने सोचा उन्ही से पता किया जाए। हम उनके घर पंहुचे और थोडी औपचरिकता के पश्चात अपना प्रश्न दागा -"भाईजान वो आप के घर एक बेबी सिट्टर आती हैं न?" इधर हमारा प्रश्न निकला उधर भाईजान के मुख से निश्स्वांस "वो बेबी सिट्टर !!!" और उनकी आँखे कुछ देर के लिए भावशून्य हो हो गयीं मानो अतीत की किसी किताब के सफे टटोल रही हो... पीछे से भाभीजान चाय की प्याली लाते हुए बोली -"भइया उस मुयी का नाम भी न लो इस घर में... और वो भी इनके सामने "। भाभी की बात सुनते ही हमारी जिज्ञासा की ग्रन्थि और तीव्र हो गयी। थोडी देर तक हम शांत बैठे रहे और भाभी के रसोई में जाने का इंतज़ार करते रहे लेकिन उनके जाते ही हम भी टीपू भाई पर कूद पड़े - टीपू भाई क्या हुआ? परजायी इतना चिढी हुई क्यों हैं...ऐसा क्या कर डाला आपने कि उस मुयी का नाम न ले आपके सामने? टीपू भाई ने सतर्कता से चारों ओर नज़र दौडाई और फिर फुसफुसाते हुए बोले "कुछ नहीं यार!! तुमको मालूम हैं इन औरतों का दिमाग....कई बार तिल का ताड़ बना देती हैं...कुछ नहीं हैं"। पर टीपू भाई के अंदाज़-ऐ-बयाँ से हमे लग गया कि दाल में काला ज़रूर हैं। हमने थोडी-थोडी देर में टीपू भाई को कुरेदना जारी रखा और थोडी देर बाद उन्होंने हमे अपनी कहानी सुना ही डाली। वो बोले तुझे तो याद हैं जब यह छोटा वाला हुआ था तो कोई भी नहीं आ पाया था, वीसा के प्रॉब्लम की वजह से... । हमने भी हामी में सर हिलाया। उन्होंने कहानी जारी रखी "...तो जब यह अस्पताल से घर आयी तब मैंने भी कुछ दिनों की छुट्टी ली थी, इसकी देखभाल के लिए। पर मैं कितने दिन घर बैठता सो इसका हाथ बटाने के लिए बेबी सिट्टर ढूढ़नी शुरू कर दी। बड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद एक अमेरिकन छोरी मिली - कॉलेज गोइंग थी... वैरी यंग एंड स्वीट लूकिंग"। टीपू भाई की आंखों में आयी चमक और आवाज़ की खनक ने मुझे उसके सौदर्य का आभास और ज्यादा करा दिया। वो जब पहले दिन घर आयी तो मैंने सोचा कि पहला दिन हैं मैं भी घर पर रुक कर निगरानी कर लेता हूँ - उसके कामकाज के बारे भी जान जाऊंगा । "बड़ी ही निपुण लड़की थी...कुछ ही देर में उसने हमारे दोनों बच्चो को सम्हाल लिया" टीपू खान बोले। "...दोनों या तीनो?" भाभी बोली जोकि कब चुपचाप आकर हमारी बात सुन रही थी, हमे पता हो नहीं चला। पर इस बार टीपू खान एक पल को ठिठके और भाभी की बात को अनसुना करते हुए कहानी में आगे बढ़ गए। "वो लड़की केवल छोटे वाले को देखने आई थी, पर उसने दोनों ही बच्चों को सम्हाल लिया था। यहाँ तक की उसने बड़े वाले के डायीपर भी बदले, बिना संकोच के। सब काम निपटाकर वो छोटे वाले के पास जाकर बैठ गयी। तुम्हारी भाभी को लगा कि जब घंटे के हिसाब से पैसे ले रही हैं तो खाली क्यों बैठे?" भाभी की तरफ़ पैनी निगाह डालते हुए टीपू भाई बोले "इन्होने उसे बर्तन साफ करने में हाथ बटाने के लिए बुला लिया... यहाँ हक़ कि थोडी देर बाद उसे वैक्यूम लाने के लिए भेज दिया...तब मैंने इन्हे टोका कि भाग जायेगी वैसे भी तुमने नौकरानी नहीं रखी हैं। वो केवल छोटे बच्चे की देखभाल करेगी। यह अपना मुल्क नहीं हैं कि एक काम को रखा और पचास काम कराये..." मैंने उसे टेलिविज़न देखने भेज दिया। इसी बात से चिढ़कर तुम्हारी भाभी ने उसी शाम को उसे वापस भेज दिया यह कहकर कि कल से काम पर आनेकी ज़रूरत नहीं हैं। मैं दोनों बच्चो को सम्हाल लुंगी।"

भाभी जो अब तक चुप बैठी थी और टीपू भाई की बातें बड़े संयम से सुन रही थी, बड़ी गंभीरता के साथ बोली "तो आज तक आप यह समझते रहे कि मैंने उसे चिढ कर वापस भेजा था।" टीपू भाई ने भाभी कि तरफ़ भ्रमित नज़रों से देखा औए पुछा "..और नहीं तो क्या?"। भाभी ने टीपू भाई ओर एक कटाक्षपूर्ण निगाह डाली और मेरी तरफ देख कर बोली - "भइया आपसे क्या छुपाना, उस दिन उसके बाद २-३ घंटे तक वो टीवी देखती रही और ये उसे.... फिर मैं कैसे उस मुयी को घर में रहने देती...."भाभी के बात सुनकर हम हतप्रद खुले मुह और अवाक् टीपू भाई को देखते रह गए।
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